मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

संशयग्रस्त मनःस्थिति...

आम यद्यपि पक चुका था, इसी में था कि किसी की तृप्ति बनता, पर वृक्ष में लगे रहने का मोह छूटा नहीं। पेड़ का मालिक पके आमों की खोज-बीन करने वृक्ष पर चढ़ा भी, पर आम पतों की झुरमुट में ऐसा छिपा कि हाथ आया ही नहीं। दूसरे दिन उसने देखा कि उसके सब पड़ोसी जा चुके, उसका अकेले ही रहने का मोह नहीं टूटा था और अब मित्रों की विरह-व्यथा और सताने लगी। आम कभी तो सोचता-नीचे कूद जाऊँ और अपने मित्रों में जा मिलूँ, फिर उसे मोह अपनी ओर खींचता, आम इसी उधेड़बुन में पड़ा रहा। संशय का यही कीड़ा धीरे-धीरे आम को खाने लबा और एक दिन उसका सारा रस चूस लिया, सूखा-पिचका आम नर कंकाल के समान पेड़ में लगा रह गया।

आम की आत्मा यह देखकर बहुत पछताई-कुछ संसार की सेवा भी न बन पड़ी और अंत हुआ तो ऐसा दुःख।

इतनी कथा सुनाने के बाद वसिष्ठ ने अजामिल से कहा-‘‘वत्स ! समझदार होकर भी जो सांसारिकता के मोह में फँसे ‘अब निकलें’-‘अब निकलें’ सोचते रहते हैं उनका भी अंत ऐसे ही होता है।’’

संशयग्रस्त मनःस्थिति के लोग न तो इधर के रहते हैं और न उधर के।

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