मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

सच्ची तीर्थयात्रा...

हज यात्रा पूरी करके एक दिन अब्दुल्ला बिन मुबारक कावा में सोए हुए थे। सपने में उन्होंने दो फरिश्तों को आपस में बातें करते देखा। एक ने दूसरे से पूछा-‘‘इस साल हज के लिए कितने आदमी आए और उनमें से कितनों की दुआ कबूल हुई ?’’

जवाब में दूसरे फरिश्ते ने कहा-‘‘यों हज करने को 40 लाख आए थे, पर इनमें से दुआ किसी की कबूल नहीं हुई है। इस साल दुआ सिर्फ एक की कबूल हुई है और वह भी ऐसा है, जो यहाँ नहीं आया।’’

पहले फरिश्ते को बहुत अचंभा हुआ। उसने पूछा-‘‘भला वह कौन खुशनसीब है, जो यहा आया भी नहीं और उसकी हज कबूल हो गई ?’’

दूसरे फरिश्ते ने पहले को बताया-‘‘वह है दमिश्क का मोची अली बिन मूफिक।’’

इस पाक हस्ती को देखने के लिए अब्दुल्ला बिन मुबारक अगले ही दिन दमिश्क के लिए चल पड़े और वहाँ उन्होंने मोची मूफिक का घर ढ़ूँढ़ निकाला।

मूफिक की आँखों में आँसू भर आए और सिर हिलाते हुए कहा-‘‘मेरा मुकद्दर ऐसा कहाँ, जो हज को जा पाता। जिंदगी भर की मेहनत से 700 दिरम उस यात्रा के लिए जमा किए थे, पर एक दिन मैंने देखा कि पड़ोस के गरीब लोग पेट की ज्वाला बुझाने के लिए उन चीजों को खा रहे थे, जिन्हें खाया नहीं जा सकता। उनकी बेबसी ने मेरा दिल हिला दिया और हज के लिए जो जमा की थी, सो उन मुफलिसों को बाँट दिया।’’

दीन-दुखियों की सहायता ही सच्ची तीर्थयात्रा है।

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