बुधवार, 14 दिसंबर 2011

zindgi ki PRIBHASHA....

1- Give the world the best that you have, and the best will come back to you. 
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2- Kbhi khushi ki asha, 
kbhi gm ki nirasha, 
kbhi spno ki chandni, 
kbhi hqiqat ki chaya, 
kuch khokr kuch pane ki asha, 
shayad yhi h zindgi ki PRIBHASHA. 
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3- Jivaatma ki Yogyata ho to hi usko Jivan me "Satsang or Seva" ka Avasar milta hai-Kirit Bhai 
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4- Khush naseeb wo nahi jiska naseeb acha h,
Balki Khush naseeb wo he jo Apne naseeb se khush he." 
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5- Life never leavs u empty..
It alwys replacs evrythng u lost..
If it asks u 2 put somthng Down, 
its bcoz it wants u 2 pick up somthng better. 
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6- Our life begins with our cry,
Our life ends with other's cry.
Try to utilize this gap & laugh as much as possible between these cries !
Stay Happy Always. 
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7- The Biggest Suspense Of Life Is...
We Know For Whom We Are Praying But ?
We Never Know The Person Who Is Praying For Us
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8- Meaningful Msg:
All that I've learnt about life can be summarized in three words- ??
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"LIFE GOES ON"!!! 
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9- Me Iswar ko manta nhi hu,
Me Iswar ko janta hu..
Kyoki Iswar Mane ka vishay nhi janne ka vishay h. 
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10- Very Short But Much Truthful Lines..
''Get a best friend like a mirror,
because when u cry,
it never laughs" ! 
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11- Very Short, But Much Truthful Lines..
''Get a best friend like a mirror,
because when u cry,
it never laughs"! 
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12- Manushya Yoni Ki Visheshta H Ki Manav Sharir Me Akar Swechhanusar Karm Kar Sakta H, Utthan Aur Patan Ka Marg Swym Chunta H. 
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13- Very Important Thought :
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"TURN" to GOD....
Before you "RETURN" to GOD...! 
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14- Savdhan ! ! ! 
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pal bhar ka krodh aapka pura bhavishya bigad sakta h.
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15- Aap jiwan me kitne b unche kyo na uth jaye apni garibi or kathinayee k din kabhi mat bhuliye. 
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16- Jb aap kisi ko bhotik padarth dene me asmarth ho to b apni sad bhavnaye or shubh kamnaye dusro ko dete rahiye. 
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17- "If u have the ability to stand tall even after u have been hurt badly by ur dear ones, Just a smile will punish them more than ur words" 
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18- Baccho pr nivesh krne ki sbse acchi chij h apna SAMAY or acche SANSKAR. Dhyan rakhe, ek shreshth balak ka nirman so school banane se b accha h. 
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19- Manvta ki sewa krne wale hath utne he dhanya h jitne parmatma ki prarthna karne wale onth. 
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20- The main difference between ATTITUDE & EGO is that, "Attitude" makes you DIFFERENT from others !
While "Ego" makes you ALONE from others...! 
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21- Badhao ko dekh ke vichlit na ho. vishwas rakhe, Jeewan me 99 dwar band ho jate h, tb b koi na koi ek dwar zarur khula rahta h. 
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22- Dheeraj mt khoo. Heenta or hatasha tumhe shobha nahi deti. Apne aatam vishwas ko badhao, Fir se prayas karo, Tumhe safalta zarur milegi. 
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23- No one in life will think exactly like the way you think..!
Learn to appreciate all the differences and understand each other..! 
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24- Dhan or business me itne b busy mat hoiye ki Swasthay, Pariwar, or apne Kartwyo pr dhyan na de paye...
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मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

श्री गायत्री चालीसा


ह्रीं, श्रीं, क्लीं, मेधा, प्रभा, जीवन ज्योति प्रचण्ड ॥ 
शान्ति, क्रान्ति, जाग्रति, प्रगति, रचना शक्ति अखण्ड ॥ १॥

जगत जननी, मङ्गल करनि, गायत्री सुखधाम । 
प्रणवों सावित्री, स्वधा, स्वाहा पूरन काम ॥ २॥
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भूर्भुवः स्वः ॐ युत जननी। 
गायत्री नित कलिमल दहनी॥१॥ 

अक्षर चौविस परम पुनीता। 
इनमें बसें शास्त्र श्रुति गीता॥२॥ 

शाश्वत सतोगुणी सत रूपा। 
सत्य सनातन सुधा अनूपा॥३॥ 

हंसारूढ श्वेताम्बर धारी। 
स्वर्ण कान्ति शुचि गगन- बिहारी॥४॥ 

पुस्तक पुष्प कमण्डलु माला। 
शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला॥५॥ 

ध्यान धरत पुलकित हिय होई। 
सुख उपजत दुःख दुर्मति खोई॥६॥ 

कामधेनु तुम सुर तरु छाया। 
निराकार की अद्भुत माया॥७॥ 

तुम्हरी शरण गहै जो कोई। 
तरै सकल संकट सों सोई॥८॥ 

सरस्वती लक्ष्मी तुम काली। 
दिपै तुम्हारी ज्योति निराली॥९॥ 

तुम्हरी महिमा पार न पावैं। 
जो शारद शत मुख गुन गावैं॥१०॥ 

चार वेद की मात पुनीता। 
तुम ब्रह्माणी गौरी सीता॥११॥ 

महामन्त्र जितने जग माहीं। 
कोउ गायत्री सम नाहीं॥१२॥ 

सुमिरत हिय में ज्ञान प्रकासै। 
आलस पाप अविद्या नासै॥१३॥ 

सृष्टि बीज जग जननि भवानी। 
कालरात्रि वरदा कल्याणी॥१४॥ 

ब्रह्मा विष्णु रुद्र सुर जेते। 
तुम सों पावें सुरता तेते॥१५॥ 

तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे। 
जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे॥१६॥ 

महिमा अपरम्पार तुम्हारी। 
जय जय जय त्रिपदा भयहारी॥१७॥ 

पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना। 
तुम सम अधिक न जगमे आना॥१८॥ 

तुमहिं जानि कछु रहै न शेषा। 
तुमहिं पाय कछु रहै न क्लेसा॥१९॥ 

जानत तुमहिं तुमहिं ह्वै जाई। 
पारस परसि कुधातु सुहाई॥२०॥ 

तुम्हरी शक्ति दिपै सब ठाई। 
माता तुम सब ठौर समाई॥२१॥ 

ग्रह नक्षत्र ब्रह्माण्ड घनेरे। 
सब गतिवान तुम्हारे प्रेरे॥२२॥ 

सकल सृष्टि की प्राण विधाता। 
पालक पोषक नाशक त्राता॥२३॥ 

मातेश्वरी दया व्रत धारी। 
तुम सन तरे पातकी भारी॥२४॥ 

जापर कृपा तुम्हारी होई। 
तापर कृपा करें सब कोई॥२५॥ 

मंद बुद्धि ते बुधि बल पावें। 
रोगी रोग रहित हो जावें॥२६॥ 

दारिद मिटै कटै सब पीरा। 
नाशै दुःख हरै भव भीरा॥२७॥ 

गृह क्लेश चित चिन्ता भारी। 
नासै गायत्री भय हारी॥२८॥ 

सन्तति हीन सुसन्तति पावें। 
सुख संपति युत मोद मनावें॥२९॥ 

भूत पिशाच सबै भय खावें। 
यम के दूत निकट नहिं आवें॥३०॥ 

जो सधवा सुमिरें चित लाई। 
अछत सुहाग सदा सुखदाई॥३१॥ 

घर वर सुख प्रद लहैं कुमारी। 
विधवा रहें सत्य व्रत धारी॥३२॥ 

जयति जयति जगदंब भवानी। 
तुम सम और दयालु न दानी॥३३॥ 

जो सतगुरु सो दीक्षा पावे। 
सो साधन को सफल बनावे॥३४॥ 

सुमिरन करे सुरूचि बड़भागी। 
लहै मनोरथ गृही विरागी॥३५॥ 

अष्ट सिद्धि नवनिधि की दाता। 
सब समर्थ गायत्री माता॥३६॥ 

ऋषि मुनि यती तपस्वी योगी। 
आरत अर्थी चिन्तित भोगी॥३७॥ 

जो जो शरण तुम्हारी आवें। 
सो सो मन वांछित फल पावें॥३८॥ 

बल बुधि विद्या शील स्वभाउ। 
धन वैभव यश तेज उछाउ॥३९॥ 

सकल बढें उपजें सुख नाना। 
जे यह पाठ करै धरि ध्याना॥४०॥ 
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यह चालीसा भक्ति युत पाठ करै जो कोई । 
तापर कृपा प्रसन्नता गायत्री की होय ॥ 

-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

परमार्थ और लोकमंगल...

संत फ्रांसिस ने एक कोढ़ी को चिकित्सा के लिए धन दिया, वस्त्र दिए, स्वयं ने उनकी सेवा की। एक गिरजाघर की मरम्मत के लिए दुकान की कपड़े की कई गाँठें और अपना घोड़ा बेचकर सारा धन दे दिया। उनके पिता को इन बातों का पता चला तो उन्होंने उन्हें मारा-पीटा ही नहीं, अपनी संपदा के उत्तराधिकार से वंचित भी करने की धमकी दी।

पिता की यह धमकी सुनकर-‘‘आपने मुझे एक बहुत बड़े मोह बंधन से मुक्त कर दिया हैं। मैं स्वंय उस संपति को दूर से प्रणाम करता हूँ, जो परमार्थ और लोकमंगल के काम में नहीं आ सकती।’’

यह कहते हुए उन्होंने उनके कपड़े तक उतार दिए। उन्होंने पिता की संपदा के अधिकार को लात मार दी। 

लोकसेवा के मार्ग में बाधा बनने वाली संपदा का परित्याग ही उचित है।

निश्छल मन...

राँका कुम्हार ने बरतन पकाने की भट्ठी तैयार की तथा पकाने के लिए बरतन उसमें रख दिए। उनमें से एक बरतन में बिल्ली के बच्चे भी थे। राँका को इसका पता नहीं था। उसने भट्ठी में आग दी। बरतन पक रहे थे तब बिल्ली आकर चक्कर काटने लगी। राँका सब बात समझकर बड़ा दुःखी हुआ और भगवान से प्रार्थना करता हुआ बैठा रहा दूसरे दिन पके बरतन भट्ठी से निकालने लगा तो देखा की एक बरतन कच्चा रह गया है, उसमें से म्याऊ-म्याऊ की आवाज निकल रही है। यह देखकर वह निहाल हो गया।

निश्छल मन से की गई प्रार्थना कभी व्यर्थ नहीं जाती।

मानवीय अपराध

एक बार एक सेठ जी स्वंय महामना मालवीय जी के पास अपने एक प्रीतिभोज में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए पहुँचे। महामना जी ने उनके इस निमंत्रण को इन विनम्र किंतु मर्मस्पर्शी शब्दों में अस्वीकार कर दिया-‘‘यह आपकी कृपा है, जो मुझ अकिंचन के पास स्वयं निमंत्रण देने पधारें, किंतु जब तक मेरे इस देश में मेरे हजारों-लाखों भाई आधे पेट रहकर दिन काट रहे हों तो मैं विविध व्यंजनों से परिपूर्ण बड़े-बड़े भोजों मे कैसे सम्मिलित हो सकता हूँ- ये सुस्वादु पदार्थ मेरे गले कैसे उतर सकते हैं।’’

महामना जी की यह मर्मयुक्त बात सुन सेठ जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने प्रीतिभोज में व्यय होने वाला सारा धन गरीबों के कल्याण हेतु दान दे दिया। बाद में उनका हृदय इस सत्कार्य से आनन्दमग्न हो उठा। 

अन्य लोगों के कष्टपीडि़त और अभावग्रस्त रहते स्वयं मौज-मस्ती में रहना मानवीय अपराध हैं। 

एक बार मनु नाव में वेद रखे हुए जा रहे थे कि समुद्र में तूफान आ गया। तूफान शांत हुआ तो देखा कि एक बड़ी मछली उनकी नाव को सहारा दिए खड़ी है। मनु ने विनीत भाव से पूछा-

भगवान् ! आपने ही मेरी रक्षा की, आप कौन हैं ? ‘‘मत्स्य भगवान दिव्य रूप में प्रकट होकर बोले-‘‘वत्स ! तूने ज्ञान की रक्षा का व्रत लिया, इसलिए तेरी सहायता के लिए मुझे आना पड़ा।’’

सदुद्देश्य के लिए प्रयत्न करने वालों का भगवान स्वयं सहायक होता हैं।

विकृति...

सम्राट पुष्यमित्र का अश्वमेध सानंद संपन्न हुआ और दूसरी रात को अतिथियों की विदाई के उपलक्ष्य में नृत्योत्सव रखा गया।

यज्ञ के ब्रह्मा महर्षि पतंजलि उस उत्सव में सम्मिलित हुए। महर्षि के शिष्य चैत्र को उस आयोजन में महर्षि की उपस्थिति अखरी। उस समय तो उसे कुछ न कहा, पर एक दिन जब महर्षि योगदर्शन पढ़ा रहे थे तो चैत्र ने उपालम्भपूर्वक पूछा-‘‘गुरूवर ! क्या नृत्य गीत के रसरंग चितवृतियों के निरोध में सहायक होते हैं ?’’

महर्षि ने शिष्य का अभिप्राय समझा। उन्होंने कहा-‘‘सौम्य! आत्मा का स्वरूप रसमय है। रस में उसे आनंद मिलता है और तृप्ति भी। वह रस विकृत न होने पाए और शुद्ध स्वरूप में बना रहे, इसी सावधानी का नाम संयम है। विकार की आशंका से रस का परित्याग कर देना उचित नहीं। क्या कोई किसान पशुओं द्वारा खेत चर लिए जाने के भय से कृषि करना छोड़ देता है ? यह तो संयम नहीं, पलायन रहा। रस रहित जीवन बनाकर किया गया संयम-प्रयत्न ऐसा ही है, जैसे जल को तरलता और अग्नि को ऊष्मा से वंचित करना। सो हे भद्र! भ्रम मत करो।’’

रस नहीं, हेय और त्याज्य तो उसकी विकृति है।

संशयग्रस्त मनःस्थिति...

आम यद्यपि पक चुका था, इसी में था कि किसी की तृप्ति बनता, पर वृक्ष में लगे रहने का मोह छूटा नहीं। पेड़ का मालिक पके आमों की खोज-बीन करने वृक्ष पर चढ़ा भी, पर आम पतों की झुरमुट में ऐसा छिपा कि हाथ आया ही नहीं। दूसरे दिन उसने देखा कि उसके सब पड़ोसी जा चुके, उसका अकेले ही रहने का मोह नहीं टूटा था और अब मित्रों की विरह-व्यथा और सताने लगी। आम कभी तो सोचता-नीचे कूद जाऊँ और अपने मित्रों में जा मिलूँ, फिर उसे मोह अपनी ओर खींचता, आम इसी उधेड़बुन में पड़ा रहा। संशय का यही कीड़ा धीरे-धीरे आम को खाने लबा और एक दिन उसका सारा रस चूस लिया, सूखा-पिचका आम नर कंकाल के समान पेड़ में लगा रह गया।

आम की आत्मा यह देखकर बहुत पछताई-कुछ संसार की सेवा भी न बन पड़ी और अंत हुआ तो ऐसा दुःख।

इतनी कथा सुनाने के बाद वसिष्ठ ने अजामिल से कहा-‘‘वत्स ! समझदार होकर भी जो सांसारिकता के मोह में फँसे ‘अब निकलें’-‘अब निकलें’ सोचते रहते हैं उनका भी अंत ऐसे ही होता है।’’

संशयग्रस्त मनःस्थिति के लोग न तो इधर के रहते हैं और न उधर के।

सच्ची तीर्थयात्रा...

हज यात्रा पूरी करके एक दिन अब्दुल्ला बिन मुबारक कावा में सोए हुए थे। सपने में उन्होंने दो फरिश्तों को आपस में बातें करते देखा। एक ने दूसरे से पूछा-‘‘इस साल हज के लिए कितने आदमी आए और उनमें से कितनों की दुआ कबूल हुई ?’’

जवाब में दूसरे फरिश्ते ने कहा-‘‘यों हज करने को 40 लाख आए थे, पर इनमें से दुआ किसी की कबूल नहीं हुई है। इस साल दुआ सिर्फ एक की कबूल हुई है और वह भी ऐसा है, जो यहाँ नहीं आया।’’

पहले फरिश्ते को बहुत अचंभा हुआ। उसने पूछा-‘‘भला वह कौन खुशनसीब है, जो यहा आया भी नहीं और उसकी हज कबूल हो गई ?’’

दूसरे फरिश्ते ने पहले को बताया-‘‘वह है दमिश्क का मोची अली बिन मूफिक।’’

इस पाक हस्ती को देखने के लिए अब्दुल्ला बिन मुबारक अगले ही दिन दमिश्क के लिए चल पड़े और वहाँ उन्होंने मोची मूफिक का घर ढ़ूँढ़ निकाला।

मूफिक की आँखों में आँसू भर आए और सिर हिलाते हुए कहा-‘‘मेरा मुकद्दर ऐसा कहाँ, जो हज को जा पाता। जिंदगी भर की मेहनत से 700 दिरम उस यात्रा के लिए जमा किए थे, पर एक दिन मैंने देखा कि पड़ोस के गरीब लोग पेट की ज्वाला बुझाने के लिए उन चीजों को खा रहे थे, जिन्हें खाया नहीं जा सकता। उनकी बेबसी ने मेरा दिल हिला दिया और हज के लिए जो जमा की थी, सो उन मुफलिसों को बाँट दिया।’’

दीन-दुखियों की सहायता ही सच्ची तीर्थयात्रा है।

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

अलबानिया की रानी एलिजाबेथ एक दिन समुद्री यात्रा पर जा रही थी। तूफान आया और जहाज बुरी तरह डगमगाने लगा। मल्लाहों का धीरज टूट गया और वे डूबने की आशंका व्यक्त करने लगे। रानी ने गंभीर मुद्रा में मल्लाहों से कहा-‘‘अलबानिया के राजपरिवार का कोई सदस्य अभी तक जलयान की दुर्घटना में डूबा नहीं हैं। मैं जब तक इस पर सवार हूँ, तब तक तुममें से किसी को भी डूबने की आशंका करने की जरूरत नहीं।’’ 

मल्लाह निश्चिन्त होकर डाँड चलाते रहे। तूफान ठंढ़ा हुआ और जहाज शांतिपूर्वक निश्चित स्थान पर पहुँच गया। यदि उन्हें घबराहट रही होती तो अस्त-व्यस्त काम करते और जहाज को डुबो बैठते।

कर्तव्य का पालन...


कोर्टमार्शल के सम्मुख तात्या टोपे को उपस्थित करने के बाद अँगरेज न्यायाधीशें ने कहा-‘‘यदि अपने बचाव के लिए तुम्हें कुछ कहना है तो कह सकते हो।’’

‘‘मैंने ब्रिटिश शासन से टक्कर ली हैं।’’

तात्या ने स्वाभिमानपूर्वक कहा-‘‘मैं जानता हूँ कि इसके बदले मुझे मृत्युदंड़ प्राप्त होगा। मैं केवल ईश्वरीय न्याय और उसके न्यायालय में विश्वास करता हूँ, इसलिए अपने बचाव के पक्ष में कुछ नहीं कहना चाहता।’’

नियमानुसार उन्हें फाँसी ही दी गई। वधस्थल पर ले जाते समय उनके हाथ-पैर बाँधे जाने लगे तो वे बोले-‘‘तुम मेरे हाथ-पैर बाँधने का कष्ट क्यों करते हो, लाओ, फाँसी का फंदा मैं स्वयं अपने हाथों से पहन लेता हूँ।’’

कर्तव्य का पालन करते हुए मृत्यु भी आ जाए तो श्रेष्ठ है।

                                                       आप भी युग निर्माण योजना में सहभागी बने।

मेहनत का फल...

‘‘अरी मूर्ख गौरैया! तू दिन भर ऐसे ही तिनके चुनने में लगी रहेगी क्या ? छिः-छिः तू भी अजीब है, न कुछ मौज, न मस्ती-बस, वही दिन-रात परिश्रम, परिश्रम।’’

कौए की विद्रूप वाणी सुनकर भी गौरैया चुपचाप तिनके चुनने ओर घोंसला बनाने में लगी रही। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। कुछ दिन ही बीते थे, वर्षा ऋतु आ गई। एक दिन बादल घुमड़े और जोर का पानी बरसने लगा। गौरैया अपने बच्चों सहित घोंसले में छिपी रही और कौआ इधर-उधर मारा-मारा फिरता रहा। शाम को वह गौरैया के पास जाकर बोला-‘‘बहन ! सचमुच मुझसे भूल हुई जो तुझे बुरा-भला कहा। तुझे इस प्रकार सुरक्षित बैठे देखकर अब मुझे मालूम हुआ कि मेहनत का फल सदा मीठा होता है।’’

अंधविश्वास ...

एक युवक को नौकरी का इंटरव्यू देने के लिए 24 तारीख को बुलाया गया। युवक 22 तारीख को चलने को हुआ तो घर वालों ने कहा आज शनिवार है, अच्छा दिन नहीं, कल जाना। दूसरे दिन पंडि़त जी बोले रवि, शुक्र को पश्चिम की यात्रा वर्जित है, सो वह दिन भी गया। 23 तारीख को ‘योगिनी बाएँ पड़ेगी’ कहकर ज्योतिषी ने चक्कर में ड़ाल दिया। 24 को कपड़े पहनकर चलने को हुआ कि एक बच्ची ने छ़ीक दिया, लड़की को जुकाम था, पर घर वालों ने नहीं जाने दिया। 25 को घर से बाहर निकलते ही बिल्ली रास्ता काट गई। अपशकुन टालने के लिए, जब तक लड़के को रोककर रखा गया, रेलगाड़ी निकल गई। युवक 26 तारीख को आफिस पहुँचा तो दरवाजे पर लिखा पाया- "नो वेकेन्सी" अब कोई स्थान खाली नहीं।

अंधविश्वासों के कारण अक्सर बड़ी हानियाँ उठानी पड़ती हैं।

तुम यह नहीं समझ सकते....

एक बार भगवान कृष्ण से भेंट करने उद्धव गए। उद्धव और माधव दोनों बचपन के दोस्त थे। द्वारपाल ने कहा-‘‘इस समय भगवान पूजा में बैठे हैं, इसलिए अभी थोड़ी देर आपको ठहरना होगा।’’ समाचार पाते ही भगवान शीघ्र पूजा कार्य से निवृत होकर उद्धव से मिलने आए। कुशल प्रश्न के बाद भगवान ने पूछा-‘‘उद्धव ! तुम किसलिए आए हो ?’’

उद्धव ने कहा-‘‘यह तो बाद में बताऊँगा, पहले मुझे यह बतलाएँ कि आप किसका ध्यान कर रहे थे ?’’ भगवान ने कहा-‘‘उद्धव ! तुम यह नहीं समझ सकते।’’ लेकिन उद्धव ने जिद की, तब भगवान ने कहा-‘‘उद्धव ! तुझे क्या बताऊँ, मैं तेरा ही ध्यान कर रहा था।’’ 

सेवक स्वामी का जितना ध्यान रखते हैं, स्वामी भी सेवक का उतना ही ध्यान, सम्मान रखते हैं।

जितनी बार गिरो, उतनी बार उठो...

सुप्रसिद्ध अँगरेज अभिनेता टाल्या के स्वास्थ्य और सौंदर्य से आकर्षित होकर ड़ाइरेक्टरों ने उसकी माँग स्वीकार कर ली और उसे रंगमंच पर पहुँचा दिया, किंतु उस बेचारे से न तो एक शब्द बोलते बना, न नाचते-कूदते। फिल्म ड़ाइरेक्टर नें गले की कमीज पकड़ी और झिड़ककर नीचे उतार दिया। कई अच्छे लोगों की सिफारिस के कारण एक बार फिर रंगमंच पर पहुँच तो गया, पर बेचारे की एक ड्रामे में बोलते समय ऐसी घिग्गी बँधी कि कुछ बोल ही नहीं पाया। फिल्म की आधी रीलें बेकार गई। ड़ाइरेक्टरों ने ड़ाँटकर कहा-‘‘अब दुबारा आने का प्रयत्न मत करना महाशय ?’’

और उसे ड़ाँटकर वहाँ से भगा दिया। टाल्या फिर भी हिम्मत न हारा, कुलियों जैसे सामान उठाने के छोटे-छोटे पार्ट अदा करते-करते एक दिन सुप्रसिद्ध अभिनेता बन गया। किसी ने पूछा-‘‘तुम्हारी सफलता का रहस्य क्या है ?’’ तो उसने हँसकर कहा-‘‘जितनी बार गिरो, उतनी बार उठो।यह सिद्धान्त स्वीकार कर लें तो आप भी निरंतर उठते चले जाएँगे, किसी सहारे की जरूरत नहीं पड़ेगी।’’

जनमानस के मोती...

स्वाति नक्षत्र था। वारिद जलबिंदु तेजी से चला आ रहा था।

वृक्ष की हरित नवल कोंपल ने रोककर पूछा-‘‘पिय ! किधर चले ?’’

‘‘भद्रे ! जलनिधि पर सूर्य की कोपदृष्टि हुई, वह उसे सुखाए ड़ाल रहा है। जलनिधि की सहायता करने जा रहा हूँ।’’

‘‘छोड़ो भी व्यर्थ की चिंता। खुद को मिटाकर भी कोई किसी की सहायता करता है ! चार दिन की जिंदगी है, कर लो आनंदभोग। कहाँ मिलेगी कोमल शय्या!’’

जलबिंदु ने एक न सुनी। तेजी से लुढ़क पड़ा सागर की ओर। नीचे तैर रही थी सीप। उसने जलबिंदु को आँचल में समेट लिया, वह जलबिंदु न रहकर हो गया मोती। सागर की लहरों से एक धीमी-सी ध्वनि निकली- ‘‘निज अस्तित्व की चिंता छोड़कर समाज के कल्याण के लिए जो अग्रसर होते हैं, वे बन जाते हैं जनमानस के मोती।’’

परिश्रम और पुरूषार्थ का मूल्य

भिखारी दिन भर भीख माँगता-माँगता शाम को एक सराय में पहुँचा और भीतर की कोठरी में भीख की झोली रखकर सो गया।

थोड़ी देर पीछे एक किसान आया। उसके पास रूपयों की एक थैली थी। किसान बैल खरीदने गया था।

भीख की झोली रूपयों की थैली से बोली-‘‘बहन ! हम तुम एक बिरादरी के हैं, इतनी दूर क्यों हैं, आओ हम तुम एक हो जाएँ ?’’

रूपयों की थैली ने हँसकर कहा-‘‘बहन ! क्षमा करो, यदि मैं तुमसे मिल गई तो संसार में परिश्रम और पुरूषार्थ का मूल्य ही क्या रह जाएगा !’’

सहृदयता का आर्दश

एक बार देवता मनुष्यों के किसी व्यवहार से क्रुद्ध हो गए। उन्होंने दुर्भिक्ष को पृथ्वी पर भेजा और मनुष्यो के होश दुरस्त करने की आज्ञा दे दी।

दुर्भिक्ष ने अपना विकराल रूप बनाया। अन्न और जल के अभाव में असंख्य मनुष्य रोते-कलपते मृत्यु के मुख में जाने लगे। अपनी सफलता का निरीक्षण करने दुर्भिक्ष दर्पपूर्वक निकला तो उस भयंकर विनाश के बीच एक प्रेरक दृश्य उसने देखा।

एक क्षुधित मनुष्य कई दिन के बाद रोटी का छोटा टुकड़ा कहीं से पाता है, पर वह उसे स्वयं नहीं खाता, वरन भूख से छट-पटाकर प्राण त्यागने की स्थिति में पहुँचे हुए एक सड़े कुते को वह रोटी का टुकड़ा खिला देता है।

इस दृश्य को देखकर दुर्भिक्ष का हृदय उमड़ पड़ा आँखें भर आई। उसने अपनी माया समेटी और स्वर्ग को वापस लौट गया।

देवताओं ने इतनी जल्दी लौट आने का कारण पूछा तो उसने कहा-‘‘जहाँ सहृदयता का आर्दश जीवित हो, वहाँ देवलोक ही होता। धरती पर भी मैंने स्वर्ग के दृश्य देखे और वहाँ से उलटे पाँवों लौटना पड़ा।’’

रविवार, 11 दिसंबर 2011

खुदा के आदेशों का पालन

खलीफा उमर एक बार अपने धर्मस्थान पर बैठे हुए थे। उन्हें स्वर्ग में एक फरिश्ता उड़ता हुआ दिखाई दिया। उसके कंधे पर बहुत मोटी पुस्तक लदी हुई थी। खलीफा ने उसे पुकारा, वह नीचे उतरा तो उन्होंने उस पुस्तक के बारे में पूछा कि इसमें क्या हैं ? फरिश्ते ने कहा-‘‘इसमें उन लोगों के नाम लिखे हैं, जो खुदा की इबादत करते हैं।’’

उन्होंने अपना नाम तलाश कराया तो फरिश्ते ने सारी पुस्तक ढूँढ़ डाली, उसका नाम कहीं न मिला। इस पर खलीफा बहुत दुखी हुए कि हमारा इतना परिश्रम बेकार ही चला गया।

कुछ दिन बाद एक और फरिश्ता छोटी-सी किताब लिए उधर से गुजरा। खलीफा ने उसे भी बुलाया और पूछा कि इसमें क्या हैं ? फरिश्ते ने कहा-‘‘इसमें उन लोगों के नाम लिखे हैं, जिसकी इबादत खुदाबंद करीम खुद करते हैं।’’

खलीफा ने पूछा-‘‘क्या ईश्वर भी किसी की इबादत करता हैं?’’फरिश्ते ने कहा-‘‘हाँ! जो लोग खुदा के आदेशों का पालन करते हैं, उन पर दुनिया को चलाने की कोशिश करते हैं, उन्हें खुदा बहुत आदर की दृष्टि से देखता है और उनकी इबादत वह खुदा करता है।’’

क्या इसमें मेरा भी नाम है ? खलीफा ने पूछा। फरिश्ता बोला कुछ नहीं, पुस्तक वहीं छोड़कर आगे अढ़ गया। खलिफा ने खोलकर देखा तो उनका नाम सबसे पहला था।

चमत्कार नहीं, चरित्र और ज्ञान...

एक बार एक व्यक्ति ने एक ऊँची बल्ली पर रत्नजडि़त कीमती कमंड़लु टाँग दिया और घोषणा की कि जो कोई साधु इस बल्ली पर सीधा चढ़कर कमंड़लु उतार लेगा उसे यह कीमती पात्र ही नहीं, बहुत दक्षिणा भी दूँगा। बहुत से त्यागी और विद्वान साधुओं ने भी प्रयत्न किया, पर किसी को सफलता न मिली। अंत में कष्यप नामक नट विद्या में बहुत-सा जीवन बिताकर साधु बने एक बौद्व भिक्षु ने उस बल्ली पर चढ़कर कमंडलु उतार लिया। उसकी बहुत प्रशंसा हुई और धन मिला।

जब यह समाचार भगवान बुद्व के पास पहुँचा तो वे बहुत दुखी हुए। उन्होंने सब शिष्यों को बुलाकर कहा-‘‘भविष्य में तुम में से कोई भिक्षु इस प्रकार का चमत्कार न दिखाए और न उन लोगों से भिक्षा ग्रहण करे जो साधु का आचार नहीं, चमत्कार देखकर उसे बड़ा मानते हों।’’

चमत्कार नहीं, चरित्र और ज्ञान ही साधुता की कसौटी है।

उपयोगिता

एक धनपति था। वह नित्य ही एक घृतदीप जलाकर मंदिर में रख आता था। एक दूसरा निर्धन व्यक्ति था। वह सरसों के तेल का एक दीपक जलाकर नित्य अपनी गली में रख देता था। वह अँधेरी गली थी। दोनों मरकर जब यमलोक पहुँचे तो धनपति को निम्न स्थिति की सुविधाए दी गई और निर्धन व्यक्ति को उच्च श्रेणी की। यह व्यवस्था देखी तो धनपति ने धर्मराज से पूछा-‘‘यह भेद क्यों, जबकि मैं भगवान के मंदिर में दीपक जलाता था, वह भी घी का।’’

धर्मराज मुस्कराए और बोले-‘‘पुण्य की महत्ता मूल्यों के आधार पर नहीं, कार्य की उपयोगिता और भावना के आधार पर होती हैं। मंदिर तो पहले से ही प्रकाशमान था। उस व्यक्ति ने ऐसे स्थान पर प्रकाश फैलाया, जिससे हजारों व्यक्तियों ने लाभ उठाया। उसके दीपक की उपयोगिता अधिक थी।’’

नीति और न्याय

रावण ने एक और कूटनीतिक चाल फेंकी। बोला-अंगद ! जिस राम ने तेरे पिता को मारा, तू उन्हीं की सहायता कर कहा है ? मेरे मित्र का पुत्र होकर भी तू मुझ से बैर कर रहा है !

अंगद हँसा और बोला-रावण ! अन्यायी से लड़ना और उसे मारना ही सच्चा धर्म है। चाहे वह मेरा पिता हो अथवा आप ही क्यों न हों।

अंगद के ऐसे तेजस्वी शब्द सुनकर रावण को उतर देते न बना।

संबध नहीं, नीति और न्याय का पक्ष ही वरेण्य है।

सत्पात्र

आचार्य उपकौशल को अपनी पुत्री के लिए योग्य वर की खोज थी। उनके गुरूकुल में कई विद्वान ब्रह्मचारी थे, किंतु वे कन्यादान के लिए ऐसे सत्पात्र की खोज में थे, जो विकट से विकट परिस्थितियों में भी आत्मा को प्रताडि़त न करे। परीक्षा के लिए उन्होंने सब ब्रह्मचारियों को गुप्त रूप से आभूषण लाने को कहा, जिसे माता-पिता क्या, कोई न जाने। सब छात्र चोरी से कुछ-न-कुछ आभूषण लेकर लौटे। आचार्य ने वे आभूषण सॅंभालकर रख लिए। अंत में वाराणसी के राजकुमार ब्रह्मदत खाली हाथ लौटे। आचार्य ने उनसे पूछा-क्या तुम्हें एकांत नहीं मिला ? ब्रह्मदत ने उत्तर दिया-निर्जनता तो उपलब्ध हुई, पर मेरी आत्मा और परमात्मा तो देखते ही थे चोरी को। बस, आचार्य को वह सत्पात्र मिल गया, जिसकी उन्हें खोज थी।

ईश्वर को सर्वत्र विद्यमान देखने वाला कभी अनुचित कार्य नहीं कर सकता।

माँ की शिक्षा

माँ कहा-बच्चे ? अब तुम समझदार हो गए हो। स्नान कर लिया करो और प्रतिदिन तुलसी के इस पौधे में जल भी चढ़ाया करो। तुलसी उपासना की हमारी परम्परा पुरखों से चली आ रही है।“


बच्चे ने तर्क किया-माँ ? तुम कितनी भोली हो, इतना भी नहीं जानतीं कि यह तो पेड़ है। पेड़ों की भी कहीं पूजा की जाती हैं ? इसमें समय व्यर्थ खोने से क्या लाभ ?

लाभ है मुन्ने ? श्रद्धा ही है। श्रद्धा छोटी उपासना से विकसित होती है और अंत में जीवन को महान बना देती है, इसलिए यह भाव भी निर्मूल नहीं।

तब से विनोबा भावे जी (बच्चे) ने प्रतिदिन तुलसी को जल देना शुरू कर दिया। माँ की शिक्षा कितनी सत्य निकली, इसका प्रमाण अब सबके सामने है।

आत्मनिरीक्षण व आत्मसुधार

पुजारी नियत समय पूजा करने आता और आरती करते-करते वह भाव विहल हो जाता, पर घर जाते ही वह अपने पत्नी-बच्चों के प्रति कर्कश व्यवहार करने लगता।

एक दिन उसका नन्हा बच्चा भी साथ लगा चला आया। पुजारी स्तुति कर रहा था-हे प्रभु ? तुम सबसे प्यार करने वाले, सब पर करूणा लुटाने वाले हो।

अभी वह इतना ही कह पाया था कि बच्चा बोल उठा-पिताजी ? जिस भगवान के पास इतने दिन रहने पर भी आप करूणा और प्यार करना न सीख सके, उस भगवान के पास रहने से क्या लाभ ? पुजारी को अपनी भूल मालूम पड़ गई, वह उस दिन से आत्मनिरीक्षण व आत्मसुधार में लग गया।

भगवान के गुणों का कीर्तन ही नहीं, उन्हों जीवन में उतारने का प्रयास भी करना चाहिए।

अपने दोष...

बिच्छू बोला-तुम मुझे पार पर पहुँचा दो, डंक नहीं मारूँगा। कछुए ने कहा-अच्छा ! और बिच्छू को पीठ पर बैठाकर पानी में तैर चला। अभी कुछ ही दूर चला था कि बिच्छू ने डंक मार दिया। कछुए ने पूछा-यह क्या किया ?

बिच्छू बोला- यह तो मेरा स्वभाव हैं। कछुए ने कहा- अच्छा हुआ मैंने अपने को सुरक्षित किया हुआ है, पर तेरे आततायीपन का दंड़ तो तुझे मिलना ही चाहिए।

यह कहकर उसने डुबकी मार ली और बिच्छू पानी में डूबकर मर गया।

अपने दोष ही अंततः विनाशकारी सिद्व होते हैं।

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

Guruji-Mataji...

Revered Gurudev, Pandit Shriram Sharma Acharya 
(A seer-sage and a visionary of the New Golden Era)

Gurudev, Pandit Shriram Sharma Acharyas personality was a harmonious blend of a saint, spiritual scientist, yogi, philosopher, psychologist, writer, reformer, freedom fighter, researcher, eminent scholar and visionary. His life and work represent a marvelous synthesis of the noble thoughts and deeds of great personalities like Swami Vivekanand, Sri Aurobindo, Mahatma Gandhi, Socrates and Confucius.

He pioneered the revival of spirituality and creative integration of the modern and ancient sciences and religion, relevant in the challenging circumstances of the present times.

He successfully practiced and mastered the highest kinds of sadhanas of Gayatri and Savitri. He also practiced higher-level sadhanas on the arduous heights of Himalayas several times and had established enliven contact with Rishis (Sages) of Himalayas.

His volumes on Gayatri Mahavigyan (Super Science of Gayatri) stand as most authentic and comprehensive treatise on the philosophy and science of the great Gayatri Mantra.

He initiated programs of spiritual and intellectual refinement of millions of people without any discrimination of religion, caste, creed, sex, or social status.

Revered Mata Bhagwati Devi Sharma (Mataji)

Born on September 1926, in a famous priestly family, Mata Bhagwati Devi (Vandaniya Mataji), was extraordinary in her own way and unlike other children, was not interested in regular childhood activities such as playing, etc. Instead, she was more interested in worshiping God. She spent most of her time in singing devotional songs. Her favorite pastime was to make the offering of the Bilva tree leaves at the idol of Lord Shiva, and write OM NAMAH SHIVAYA.

During the early stages of her education, she studied Bhagwad Gita, and Ram Charit Manas. After her marriage to Pandit Shriram Sharma Acharya (Gurudev), Mataji took over the responsibility of looking after visitors and guests. She willingly donated all her personal jewelry, which she received at her wedding, to Gurudevs Yug Nirmaan Yojanaa (Movement for the Recreation of the Era) for establishment of Gayatri Tapobhoomi at Mathura.

In 1975, under the leadership of Mataji, Mahilaa Jaagaran Abhiyaan (Movement for Emancipation of Women) was initiated. Soon, about 4000 branches of Mahilaa Jaagaran Abhiyaan were established with more than one million active participants. Its work was not limited to mere slogan-raising, but also womens education, economic self-support, sacramental rites, acquiring self-respect, abolition of dowry and fight against the discrimination of women.

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