सोमवार, 28 नवंबर 2011

प्रधानता वातावरण की

प्रतिभाएँ वातावरण विनिर्मित भी करती हैं, पर उनकी संख्या थोड़ी सी ही होती है । हीरे जहाँ-तहाँ कभी-कभी ही निकलते हैं, पर काँच के नगीने ढेरों कारखाने में नित्य ढलते रहते हैं । अधिकांश लोग ऐसे होते हैं जो वातावरण के दबाब से भले या बुरे ढाँचे में ढलते हैं । सत्संग, कुसंग का प्रभाव इसी को कहते हैं । ऐसे लोग अपवाद ही हैं जो बुरे लोगों के सम्पर्क में रह कर भी अपनी गरिमा बनाये रहते हैं, साथ ही अपने प्रभाव से क्षुद्रों को महान बनाने, बिगड़ों को सुधारने में समर्थ होते हैं । प्रधानता वातावरण की है । सामान्यजन प्रवाह के साथ बहते और हवा के रुख पर उड़ते देखे जाते हैं । पारस के उदाहरण कम ही मिलते है । सूरज चाँद जैसी आभा किन्हीं बिरलों में ही होती है, जो अँधेरे में उजाला कर सकें ।

आत्मोत्कर्ष का लक्ष्य लेकर चलने वालों को तो विशेष रूप से इस आवश्यकता को अनुभव करना चाहिए । उसे जुटाने के लिए प्रयत्नशील भी रहना चाहिए । इसके दो उपाय हैं । एक यह कि जहाँ इस प्रकार का वातावरण हो, वहाँ जाकर रहा जाय । दूसरा यह कि जहाँ अपना निवास है, वहीं प्रयत्नपूर्वक वैसी स्थिति उत्पन्न की जाय । कम से कम इतना तो हो ही सकता है कि अपने निज के लिए कुछ समय के लिए वैसी स्थिति उत्पन्न कर ली जाए जिनके आधार पर अच्छे वातावरण का लाभ उठाया जा सके । एकान्त, स्वाघ्याय, मनन, चिन्तन ऐसे ही आधार हैं ।

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