बुधवार, 16 नवंबर 2011

बापू की भावना

बापू का जन्मदिन था। नित्य की भांति संध्या समय प्रार्थना सभा हुई। खासतोर से तैयार की गई जगह पर गांधीजी प्रार्थना के लिए बैठे। प्रार्थना सम्पन्न हुई। प्रार्थना के पश्चात बापू का प्रवचन हुआ। अंत में बापू ने पूछा आज यह घी का दीपक किसने जलाया हैं। 

सारी सभा एकदम शान्त हो गई। सब एक दूसरे का मुँह देख रहे थे। बोले तो कौन बौले ? यह देखकर बापू ने कोमल वाणी में कहा, ‘आज यदि कोई बुरी बात हुई हैं, तो वह यह कि आपने यह घी का दीपक जलाया हैं।’ सुनते ही सब स्तब्ध रह गए। सोचने लगे सब भला इसमें ऐसी क्या बुरी बात हो गई हैं। कुछ देर रूक कर बापू बोले, ‘कस्तूरबा ! इतने दिनों से तुम मेरी जीवन संगिनी हो, फिर तुम भी कुछ नहीं सीख पाई। अरे, हमारे गांवो में लोग कितने निर्धन हैं, कैसे बुरे दिन काट रहै हैं? उन्हें नमक व तेल तक नहीं मिलता और हम बिना वजह ही घी जला रहे हैं।’ बीच-बचाव करते जमनालाल बजाज बोले, ‘आज आपका जन्मदिन हैं, इसलिए।’ बात काटते हुए बापू ने कहा,‘ इसका मतलब तो यह हुआ कि जन्मदिन को मितव्ययिता त्याग दी जाए और दुरूपयोग करना प्रारम्भ कर दिया जाए।’ सभी जैसे पत्थर हो गए। नम आंखों से पुनः बापू बोले,‘ जो हुआ सो हुआ पर आगे ध्यान रखना। जो वस्तु आम आदमी को उपलब्ध नहीं हो रही हो, उसे हमें भी उपयोग में लेने का कोई अधिकार नहीं हैं। जब तक हर आदमी में यह भावना नहीं आएगी, देश में खुशहाली कैसे आ पाएगी ?’ देश के वर्तमान अर्थ संकट एवं ऊर्जा मितव्ययिता के दौर में बापू का यह दृष्टान्त अत्यन्त ही प्रेरणास्पद एवं अनुकरणीय हैं।

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