बुधवार, 16 नवंबर 2011

दुःख और सुख

एक लंगड़ा आदमी एक औरत से भीख मांग रहा था उसके द्वार पर। उस औरत ने कहा, ‘देखो, तुम तो भले-चंगे हो, जरा सा पैर में मालूम होता है मोच लग गई। आंखें तुम्हारी ठीक हैं, हाथ ठीक है। अंधे होते, तो मैं तुम्हें देती भी कुछ। यह लंगड़ा होने से क्या होता है ? हजार काम कर सकते हो। आँखे तो साबुत हैं। आँख है तो जहान है।’ तो उसने कहा, ‘देवी जी, पहले मैं अंधा भी हुआ करता था। तब लोग यह कहते थे, अंधे हो, इससे क्या होता है ? अरे, हजार काम कर सकते हो। अंधे कई काम करते हैं। तब से मैं लंगड़ा हो गया। अब देखो तो, लोग दूसरी बात समझाने लगे फिर।’ 

तुम अगर चाहते हो कि दुनिया से दुःख मिटे, दुःख घटे, तो लोगों की ऐसी स्थिति मत बनाओ कि जिसमें उनको दुःख में हित मालूम होने लगे। श्रेष्ठ को सत्कारो। सुन्दर को स्वीकारों। सुख को स्वीकारों। सुख का गुणगान करो। दुःख है, उसका इलाज करो, मगर स्वागत नहीं। दुःख है, उसे सहानुभूति दो, लेकिन इतनी नहीं, कि लगे कि तुम प्रेम में पड़ गए हो। दुःखी को यह पता होना चाहिए कि लोग शिष्टाचार, संस्कार, सभ्यता के कारण सेवा कर रहे हैं। उन्हें सेवा में कोई रस नहीं आ रहा है। मजबूरी में सेवा कर रहे है। करनी पड़ रही है, इसलिए सेवा कर रहे हैं।

दुःखवादियों ने बड़ा प्रचार किया है कि दुनिया में दुःखी पर दया करो। मैं कहता हूं, सुखी पर दया करो, तो दुनिया में दुःख कम होगें। इस तरह की शिक्षाओं की वजह से संसार में दुःख बढ़े हैं।

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