शनिवार, 16 जुलाई 2011

सभी धर्मों में उपवास की महत्ता

उपवास द्वारा मनुष्य की नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति होती है, उसकी बुद्धि और विवेक की जाग्रति होती है- यह देखकर ही हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने धर्म के अन्तर्गत उपवास को विशेष स्थान प्रदान किया है। इससे मनुष्य के मानसिक और वासनाजन्य विकार शान्त हो जाते हैं और विवेक तीव्र हो उठता है।

हिन्दू धर्म में प्रत्येक १५ दिन पश्चात् व्रत का विधान रखा गया है, एकादशी के अतिरिक्त प्रदोष और रविवार, भिन्न-भिन्न पुण्य तिथियों तथा पर्वों पर व्रत किया जाता है। हिन्दू धर्म में आन्तरिक शुद्धि के लिए व्रत प्रधान तत्त्व माना गया है। इसी कारण उसमें व्रतों की संख्या संसार के अन्य सब धर्मों से अधिक है। हमारे यहाँ निर्जल और चान्द्रायण आदि अनेक प्रकार के दूसरे उपवास भी हैं, किसी की मृत्यु पर लंघन करना, शोक मनाने का चिह्न है। क्या प्रसन्नता, क्या क्लेश सभी में उपवास को प्रधानता दी गयी है। जैन धर्म में लम्बे उपवासों पर आस्था है। जैन धर्म के ग्रन्थों में केवल नाना प्रकार के उपवासों का ही विधान नहीं, प्रत्युत बहुकाल व्यापी उपवासों का विधान है। जैनियों के उपवास सप्ताहों और महीनों तक चलते हैं। मिस्र में प्राचीनकाल में कई धार्मिक पर्वों पर उपवास किया जाता था, किन्तु वह जन-साधारण के लिए अनिवार्य नहीं था। यहूदी अपने सातवें महीने के दसवें दिन उपवास रखते हैं। उनके धर्म में जो इस उपवास का उल्लंघन करता है, वह दण्डनीय है। इसके अन्तर्गत प्रातः से सायंकाल तक निराहार रहना पड़ता है। ईसाई धर्म में तथा ईसा की पाँचवी शताब्दी से पूर्व, महात्मा सुकरात ने उन दिनों यूनान में प्रचलित कितने ही उपवासों का जिक्र किया है। रोमन जाति के व्यक्ति ईस्टर से पूर्व तीन सप्ताहों में शनिवार और रविवार के अतिरिक्त अन्य दिनों में उपवास किया करते थे। महात्मा ईसा ने स्वयं एक बार चालीस दिन और चालीस रात्रियों का उपवास किया था। योरोप में जब पापों का प्रभाव बढ़ा, तो उपवासों को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया। मुसलमान, रमजान के महीने में अपने धर्म-ग्रन्थों के अनुसार तीस दिन तक रोजे रखते हैं। प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में कुछ खाकर सूर्यास्त के पश्चात् रोजा टूटता है। तात्पर्य यह है कि सभी प्रधान धर्मों में उपवास को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। सभी ने एक स्वर से उसकी उपयोगिता स्वीकार की है। उपवास से शरीर, मन तथा आत्मा पर लाभदायक प्रभाव को देखकर ही उसे धर्म के अन्तर्गत स्थान दिया गया है।

भारत के प्राचीन ऋषियों की तपस्या का, उपवास एक प्रधान अंग था। बड़े-बड़े धर्माचार्य स्वयं बहुत दिनों तक उपवास करके, अपने अनुयायियों और भक्तों को उसका लाभ बतलाते थे और उनका स्वयं आदर्श बनाते थे, पर आजकल जो लोग धार्मिक दृष्टि से उपवास करते हैं, प्रायः सभी देशों में उन्हें धर्मान्ध बतलाया जाता है और उसकी हँसी उड़ाई जाती है। इसका कारण यही है कि आजकल लोग प्राकृतिक नियमों से एकदम अनभिज्ञ हो गये हैं। जो लोग अन्न को ही प्राण समझते हैं, उन्हीं की आँखें खोलने के लिए, उपवास के सिद्धान्तों का फिर से प्रचार होने लगा है।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

यह संकलन हमें श्री अंकित अग्रवाल नैनीताल से प्राप्त हुआ हैं। धन्यवाद। यदि आपके पास भी जनमानस का परिष्कार करने के लिए संकलन हो तो आप भी  हमें मेल द्वारा प्रेषित करें। उसे अपने इस ब्लाग में प्रकाशित किया जायेगा। आपका यह प्रयास ‘‘युग निर्माण योजना’’ के लिए महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
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