गुरुवार, 28 जुलाई 2011

पीड़ा और प्रार्थना

पीड़ा और प्रार्थना में गहरा संबंध है। पीड़ा का अनुभव सकारात्मक हो, दृष्टिकोण रचनात्मक हो तो पीड़ा स्वतः ही प्रार्थना बन जाती है। ऐसा न हो तो हर पीड़ा निषेध व नकारात्मक दृष्टिकोण के जाल में उलझ-फँसकर कभी वैर बनती हैं तो कभी द्वेष बन जाती है। इतना ही नहीं, ज्यादातर दशाओं में यह वैर-द्वेष के साथ मन को संताप देना वाला विषम विषाद बन जाती है। जीवन को अवसन्न करने वाला अवसाद बन जाती हैं।

पीड़ा का अनुभव सकारात्मक होने का मतलब हैं अंतर्मन में प्रभु प्रेम उपस्थित होना, भगवान के मंगलमय विधान में गहरी आस्था होना। ऐसा हो तो जीवन की पीड़ाएँ दरद का उन्माद जगाने के बजाय प्रार्थना को जन्म देती है। ऐसी स्थिति में पीड़ा जितनी गरही होती हैं, प्रार्थना उतनी ही घनीभूत होती जाती है। पीड़ा के क्षणों में मन स्वाभाविक रूप से भगवान के समीप सरकने लगता है। सच तो यह हैं कि यदि पीड़ा दरद हैं तो प्रार्थना उसकी दवा है।

पीड़ा और प्रार्थना का यही मिलन तप है। तपश्चर्या का अर्थ धूप में खड़ा हो जाना नहीं हैं, न भूखे रहकर उपवास करना है। तपश्चर्या का सही अर्थ जीवन के पीड़ादायक क्षणों में भगवान के भावभरे स्मरण, सर्वस्व समर्पण व उनमें ही लीन होना है। यथार्थ तप है- जीवन के खालीपन को पीड़ा को उसकी समग्रता में अनुभव करना, जीवन की अर्थहीनता को उसकी पूरी त्वरा में अनुभव करना। जीवन की यह बेकार भाग-दौड़, जिसको अभी बड़ी उपयोगी समझते हैं, यदि अचानक यह निरर्थक लगने लगे तो बड़ी घबराहट होगी। गहरी पीड़ा पनपेगी। इस पीड़ा को झेलने का नाम, इसे भगवान के प्रेम व स्मरण तथा समर्पण में भीग कर सहने का नाम हैं तपश्चर्या। पीड़ा व प्रार्थना का अद्भुत मिलन जिसके भी जीवन में आता हैं, उसका जीवन स्वाभाविक ही रूपांतरित हो जाता है।

अखण्ड ज्योति जुलाई 2011

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