सोमवार, 25 जुलाई 2011

प्रशंसा अज्ञान की बेटी हैं।

1) प्रबल इच्छा शक्ति से ही व्यसन मुक्ति सम्भव है।
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2) प्रकृति की अपेक्षा अध्ययन से अधिक मनुष्य श्रेष्ठ बने है।
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3) प्रकृति का नियम स्वास्थ्य हैं, बीमारी नही।
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4) प्रकृति का अनुसरण करो - धैर्य उसका रहस्य है।
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5) प्रकृति कोई कार्य व्यर्थ नही करती है।
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6) प्रकृति के नियमों का पालन कीजिये।
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7) प्रमादपूर्ण जीवन संसार की सारी बुराइयों और व्यसनों का जन्मदाता है।
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8) प्रसिद्ध विचारक टेलहार्ड द कारडियन ने मनुष्य के अस्तित्व और अनुभूति के सम्बन्ध में लिखा हैं, हम कोई मनुष्य नहीं है।, जिसे आध्यात्मिक अनुभव हो रहे हों, बल्कि हमारा स्वरुप ही अध्यात्म है, अध्यात्म चेतना जो मनुष्य होने के अनुभव से गुजर रही है।
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9) प्रतिकूलता, शत्रुता, अभाव, भय, आशंका, उपेक्षा आदि का अनुभव होते ही सब कुछ नीरस हो जाता हैं। इतना ही नही भयानक दीखने लगता है। यही हैं - अपने मन का चोर, जो चारों ओर प्रेत पिशाच बन कर नाचता हैं और जीवन का सुख-शान्ति को निगल जाता हैं। भीतर विक्षोभ पडे हो तो बाहर विदु्रपता रहेगी ही। भीतर शान्ति और सन्तोष हो तो बाहर स्नेह, सौजन्य भरा वातावरण दीखेगा ही।
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10) प्रतिदिन सुबह और शाम मन लगाकर भगवान का स्मरण अवश्य किया करो, इससे चैबीसो घन्टे शान्ति रहेगी और मन बुरे संस्कारों से बचेगा।
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11) प्रतिभा के मायने हैं बुद्धि में नई-नई कोंपले फूटते रहना। नई कल्पना, नया उत्साह, नई खोज, नई स्फूर्ति ये सब प्रतिभा के लक्षण है।
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12) प्रतिभा में जो सबसे अच्छी बात होती हैं, उसे वह सबसे पहले दे देती हैं और दूरदर्शिता सबसे बाद में देती है।
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13) प्रतिभावान वह हैं जिसमें समझदारी और कार्य शक्ति विशेष हो।
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14) प्रभु को पाने का प्रयास करेंगे तो प्रभुता अपने आप ही दासी हो जाएगी।
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15) प्रभु ने दो-दो कर दिये करो कमाई आप, पराधीनता सम नहीं और दूसरा पाप।
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16) प्राणी नित्य जैसा अन्न खाता हैं, उसकी वैसी ही सन्तति होती है।
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17) प्राणीमात्र के प्रति दयाभाव रखना तथा सदैव ईमानदार बने रहना परम धर्म है।
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18) प्राणीमात्र में आत्मीयता व दया ही धर्म है।
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19) प्राणवान संकल्प साधनहीन परिस्थितियों में भी उगते-बढतें और फलते-फूलते है।
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20) प्रशंसको पर ही प्रसन्न न हो। महत्व उन्हे भी दो जो सही आलोचना कर सकते है।
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21) प्रशंसा कर्तव्य परायणता के लिये बाध्य करती हैं, और चापलूसी कर्तव्य विमुखता की ओर ले जाती है।
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22) प्रशंसा वहा आरम्भ होती हैं, जहा परिचय समाप्त होता है।
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23) प्रशंसा अज्ञान की बेटी हैं।
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24) प्रशंसा और चापलूसी में वही अन्तर है जो अमृत और विष में। प्रशंसा से व्यक्ति को प्रोत्साहन मिलता हैं और वह अपना उत्कर्ष करने की ओर बढ़ने लगता हैं जबकि चापलूसी व्यक्ति में मिथ्याभिमान जगा देती हैं और उसे पतन के गर्त में धकेल देती हैं और दिग्भ्रमित कर देती है।

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