बुधवार, 13 जुलाई 2011

निरन्तर गरिमापूर्ण चिन्तन ही हमारी परिभाषा है।

1) निराशा एक प्रकार की नास्तिकता ही है।
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2) निराशा वह मानवीय दुर्गुण हैं, जो बुद्धि को भ्रमित कर देती है।
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3) निराशा आम तौर पर हमारे अपने एजेण्डा की असफलता के कारण होती हैं न कि ईश्वर द्वारा हमारे लिये सोचे गये उद्धेश्यों से। निराशा से उपजे तनाव और संर्घष हमारी आध्यात्मिक माँस-पेशीयों को बलिष्ठ बनाते है।-लूसी शा 
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4) हम वह करे, जो करने योग्य हो। वह सोचे जो सोचने योग्य हो।
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5) निरन्तर गरिमापूर्ण चिन्तन ही हमारी परिभाषा है।
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6) निस्वार्थ सेवा करने में जिसे स्वयं की भी सुध न रहे उसके हितो की रक्षा स्वयं भगवान को करनी पडती है।
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7) निस्वार्थ सेवा से उपजा सुख जीवन की भीषणतम कठिनाईयों के समय भी आनन्द की अनुभूति प्रदान करता है।
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8) निर्दोषता जीवन का आहार हैं और दोष जीवन का विकार हैं आहार लो, विकार त्याग दो। निर्दोषता ही पोषण हैं, वही जीवन है।
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9) निर्दोष के पास डर नही रहता।
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10) निद्रा भी कैसी प्यारी वस्तु है घोर दुःख के समय भी मनुष्य को यही सुख देती है।
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11) नित्य प्रति पीपल के नीचे ध्यान करने पर चिन्ता, निराशा, घबराहट, थकान आदि मानसिक रोगो का शमन होता है।
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12) निज सुख ओरो तक पहुचाओ, सदा परायी पीर घटाओ।
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13) निन्दक नियरे राखिये, निन्दक सन्त समान। आप पडे नरक में, हमको देवे निर्वाण।
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14) हम ऐसा कुछ न करे , जिस पर पीछे पश्चाताप करना पडे।
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15) हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को जीवन में उतारे।
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16) हम कोई ऐसा काम न करे, जिसमें अन्तरात्मा ही अपने को धिक्कारे।
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17) हम मानसिक रुप से ईमानदार बने।
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18) हम प्यार करना सीखें, हममें, अपने आप में, अपनी आत्मा और जीवन में, परिवार में, समाज में और ईश्वर में, दसों-दिशाओं में प्रेम बिखेरना और उसकी लौटती प्रतिध्वनि का भाव-भरा अमृत पीकर धन्य हो जाना,यही जीवन की सफलता हैं।
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19) हम सबके मस्तिष्क से चेतना की तरंगे सतत स्पंदित होती रहती हे। अज्ञानता और निर्दिष्ट लक्ष्य के अभाव में मस्तिष्क पर नियन्त्रण नहीं रह पाता और ये बहुमूल्य तरंगे बिखरती रहती है। ध्यान इन ऊर्जा तरंगो के बिखराव को रोककर एक सुनिश्चित केन्द्र बिन्दु पर केन्द्रित करने की कला है। ध्यान द्वारा अपनी इन प्रसुप्त शक्तियों को जाग्रत एवं केन्द्रित करके भौतिक और आध्यात्मिक सफलताओं को अर्जित किया जा सकता है।
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20) हम स्वयं को जितनी अच्छी तरह समझेंगे, शांत व सुखी रहना उतना ही सहज हो जाएगा।
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21) हम उपदेश देते हैं टन भर, सुनते हैं मन भर और ग्रहण करते हैं कण भर।
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22)  हम जैसे हैं, वैसों से ही मिलते है।
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23) हम दूसरों को जितनी ज्यादा सद्भावना अर्पित करते हैं, उतना ही हमारा आंतरिक बल बढता है।
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24) हम दूसरों से जैसा व्यवहार अपने लिये चाहते है, वैसा ही आचरण स्वयं भी दूसरों के साथ करे।

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