शनिवार, 16 अप्रैल 2011

स्वर्ग-नरक

किसी ने पूछा, ‘स्वर्ग और नरक क्या हैं ? मैंने कहा, ‘हम स्वयं’। एक बार किसी शिष्य ने अपने गुरू से पूछा, ‘मैं जानना चाहता हूं कि स्वर्ग और नरक कैसे है ?’ गुरू ने कहा, ‘आंखे बंद करों और देखों।’ उसने आंाखे बंद की और शांत शून्यता में चला गया। फिर, उसके गुरू ने कहा, ‘अब स्वर्ग देखो।’ और थोड़ी ही देर बाद कहा ‘अब नरक’ जब उस शिष्य ने आंखे खोली थी, तो वे आश्चर्य से भरी हुई थी। उसके गुरू ने पूछा, ‘क्या देखा ?’ वह बोला, ‘स्वर्ग में मैंने वह कुछ भी नहीं देखा, जिसकी लोग चर्चा करते हैं। न ही अमृत की नदियां थी और न ही स्वर्ण के भवन थे, वहां तो कुछ भी नहीं था और नरक में भी कुछ नहीं था। न ही अग्नि की ज्वालाएं थी और न ही पीडि़तों का रूदन। इसका कारण क्या हैं ? क्या मैने स्वर्ग नरक देखे या नही देखेे ?

यह सुनकर उसका गुरू हँसने लगा और बोला, ‘निश्चय ही तुमने स्वर्ग और नरक देखे हैं, लेकिन अमृत की नदियां और स्वर्ण के भवन या कि अग्नि की ज्वाला और पीड़ा का रूदन तुम्हे स्वयं ही वहां ले जाने होते हैं। वे वहां नहीं मिलते। जो चीज या वस्तु हम अपने साथ ले जाते हैं, वहीं वहां हमें उपलब्ध हो जाती है। हम ही स्वर्ग हैं, हम ही नरक हैं।’

व्यक्ति जो अपने अंतस में होता हैं, उसे ही अपने बाहर भी पाता हैं। जो बाह्य हैं, वह आंतरिक का ही प्रक्षेपण हैं। भीतर स्वर्ग हो, तो बाहर स्वर्ग हैं और भीतर नरक हो, तो बाहर नरक। स्वयं में ही सब कुछ छिपा हैं। जो उसे जान लेता हैं, वह मृत्यु में भी जीवन को पा जाता हैं। उसका न आदि हैं और न अन्त।

-ओशो

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