शनिवार, 30 अप्रैल 2011

प्रतिशोध

एक आदमी ने बहुत बड़ा भोज दिया। बड़े-बड़े लोगों को आमंत्रित किया। वह स्वयं लोगों को खाना परोस रहा था। पापड़ परोसने के क्रम में ऐसी स्थिति बनी कि सबसे अंतिम आदमी तक पहुंचते-पहुंचते पापड़ खंडित हो गया। वह आदमी बहुत अहंकारी था। उसने सोचा-सबको अखंड पापड़ दिया और जानबूझकर मुझे खंडित पापड देकर मेरा अपमान कर दिया। जैसे भी हो, मैं इस अपमान का बदला लूंगा। मन में एक ग्रंथि बन गई। 

कुछ दिनों बाद उसने भी एक भोज का आयोजन किया। वह आयोजन उसने प्रतिशोध लेने के लिए किया। उस व्यक्ति को विशेष रूप से बुलाया, जिससे प्रतिशोध लेना था। आखिर पापड़ परोसने की बारी आई। सबको समूचा पापड़ दिया। उस व्यक्ति की बारी आने पर पापड़ के कई टुकड़े कर दिए। वह आदमी भद्र था। प्रसन्नता से ले लिया। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य हैं, कोई व्यक्ति किसी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करे और सामने वाले पर उसका कुछ असर न पड़े तो उसे बड़ा कष्ट होता हैं। उसने सोचा, सारा किया कराया व्यर्थ चला गया। जिसके लिए किया, वो वापस नहीं मिला तो प्रतिशोध पूरा कहां हुआ ? उलझन हो गई। एक क्षण तक एकटक देखता रहा। कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। व्यक्ति से रहा नहीं गया। पूछा, ‘आपको पापड़ कैसा मिला ?’ बड़ा अच्छा मिला। तुमने ध्यान नहीं दिया, पापड़ नहीं, पापड़ के टुकड़े मिले हैं।’ कोई बात नहीं तोड़कर ही तो खाने थे, मुझे तोड़ने नहीं पड़े। अर्थात मन का घोड़ा तीव्र गति से दौड़ने पर बदले की भावना तीव्र हो जाती हैं। मन शांत रखना चाहिए।

आचार्य महाप्रज्ञ

1 टिप्पणी:

सुज्ञ ने कहा…

ईगो की यही समस्या है, मान कषाय वाला व्यक्ति अपने अभिमान के प्रति घोर सम्वेदनशील होता है।

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