शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

जाति भेद से परे

राजस्थान के खेतड़ी में घटी एक घटना स्वयं विवेकानंद ने सुनाई थी। उन्हीं के शब्दों में, ‘खेतड़ी में मेरा उपदेश सुनने के लिए काफी संख्या में लोग आया करते थे। एक बार तीन दिन और तीन रात तक बिना एक क्षण का मौका दिए लोग मुझे बात करने के लिए बाध्य करते रहे। इन तीन दिनों में लोगों ने मुझसे यह भी नहीं पूछा कि आपने कुछ खाया-पिया हैं भी या नहीं। तीसरे दिन निम्न वर्ग के एक गरीब आदमी ने कहा कि आपने तीन दिनों से एक गिलास पानी भी नहीं पिया हैं। थक भी गए होंगे।’

मैने सोचा कि परमेश्वर ने मेरा परीक्षण करने के लिए इसे भेजा हैं। मैने उससे कहा, ‘क्या आप खाने के लिए मुझे कुछ दे सकते हैं।’ वह बोला, मेरा मन आपको भोजन कराने के लिए लालायित हैं। आप मुझे आटा, बर्तन आदि लाने की अनुमति दे दें।’ ताकि आप खुद भोजन बना सके।’ उस समय सन्यासी द्वारा अग्नि का स्पर्श करना वर्जित था। अतः मैने उससे कहा कि वह खाना बना कर मुझे दे दे। वह डर गया कि यदि महाराज को यह पता चल गया कि एक हरिजन ने मुझे खाना दिया हैं तो उसके साथ बुरा हो सकता हैं। मेरे द्वारा महाराज की ओर से दंड न दिए जाने का बार-बार भरोसा दिए जाने पर वह मेरे लिए पका हुआ भोजन लाया। मैने भोजन ग्रहण किया। सोचा कि विशाल हृदय के लोग झोपडि़यों में रहते हैं और हम उन्हे नीच जाति का समझकर उनसे घृणा करते हैं। यह बात मैने महाराज को बताई। तद्नुसार, वह व्यक्ति कांपता हुआ आया कि कहीं दंड न मिल जाए। लेकिन महाराज ने उसकी प्रशंसा की और उसे उचित जागीर का उपहार दिया। 

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