शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

चरित्र

एक बहुत बड़े योगी संत थे आनन्दघन जी। एक बार एक प्रदेश के राजा-रानी आनन्दघन जी के पास आए। वे बोले, ‘गुरूवर ! और सब कुछ हैं, पर पुत्र नहीं हैं। पुत्र के बिना सम्पदा और वैभव का प्रयोजन ही क्या हो सकता हैं ? आनन्दघन जी बोले, ‘मैं क्या पुत्र दूंगा ? जाओ, और किसी से याचना करो।’ राजा-रानी ने बहुत आग्रह किया। आनन्दघन जी ने एक पन्ने पर कुछ लिखा और कहा, ‘रानी के बाएं हाथ पर बांध देना। मेरी एक शर्त मानना, सदा सदाचार का पालन करना। अहिंसा, सत्य का पालन करना। मनोकामना पूरी होगी। गरीबों का ध्यान रखना, अन्याय मत करना, शोषण और उत्पीड़न से बचना। न्याय करना।’

राजा-रानी ने सभी व्रतों का पालन प्रारम्भ कर दिया। राजा न्याय करने लगा। जनता को शोषण और उत्पीड़न से बचाया। आचरण का पक्ष उज्ज्वल हुआ। क्षमता बढ़ी। भावनाओं में शक्ति आई, संकल्प-शक्ति का विकास हुआ। संयोग की बात पुत्र की प्राप्ति हो गई। वे दोनों आनन्दघन जी के पास आकर बोले, ‘महाराज ! आपका मन्त्र सफल हुआ। हम आपके अत्यन्त आभारी हैं। आनन्दघन जी ने कहा, ‘रानी के हाथ पर बंधा हुआ लाओ। उसे पढ़ो। उसमें लिखा था-रानी को पुत्र हो, तो आनन्दघन जी को क्या ? पुत्र न हो तो आनन्दघन को क्या ? वह न कोई यन्त्र था और न मन्त्र।

जब व्यक्ति का चरित्र शुद्ध होता हैं, तब उसका संकल्प अपने आप फलित होता हैं। चरित्र की शुद्धि के आधार पर संकल्प की क्षमता जागती है। जिसका संकल्प-बल जाग जाता हैं, उसकी कोई भी कामना अधूरी नहीं रहती। 

-आचार्य महाप्रज्ञ

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