शुक्रवार, 4 मार्च 2011

आस्तिकता अर्थात् चरित्रनिष्ठा

इन्हीं मान्यताओं का फल आज हम यह देख रहे हैं कि पूजा-अर्चना में बहुत धन और समय खर्च करने वाले व्यक्ति भी चरित्रिक दृष्टि से बहुत गये-गुजरे देखे जाते हैं । मन्दिर झाँकी, भजन-कीर्तन में बहुत उत्साह दिखाने वाले भी गुप्त-प्रकट रूप से बुरी तरह पाप पंक के डूबे रहते हैं । 'जो कुछ होता है ईश्वर की इच्छा से ही होता है' -ऐसा मानने वाले आलसी और अकर्मण्य बनकर अपनी हीन स्थिति का दोष ईश्वर को लगाते रहते हैं और प्रगति के लिए प्रतीक्षा करते रहते हैं कि जब कभी ईश्वर की इच्छा हो जाएगी तभी अनायास सब कुछ हो जाएगा । ऐसे लोग अनीति और अत्याचारों को भी ईश्वरेच्छा मानकर चुपचाप सहते रहते हैं । वे किसी दीन-दुःखी और निराश्रित की सेवा-सहायता करने से भी इसीलिए विमुख रहते हैं कि इससे ईश्वर की इच्छा को विरोध होगा । इन्हीं मान्यताओं के आधार पर एक हजार वर्ष तक हम विदेशी आक्रमणकारियों के बर्बर अत्याचार सिर झुकाये सहते रहे । सोमनाथ मंदिर की अपार सम्पति लूटते देखकर हमें भगवान की प्रार्थना करने के सिवाय कर्तव्यपालन का कोई अन्य मार्ग न सूझा । 

आस्तिकता का असली स्वरूप भुला कर जो अविवेकपूर्ण धारणा हमने अपनाई, उस के कारण हम वस्तुतः ईश्वर से अधिकाधिक दूर होते गये । आस्तिकता के नाम पर हमने दिखावटी पूजा-पाठ को जो भाव अपनाया उससे हमने पाया कुछ नहीं, केवल खोया ही खोया ।
 
ऐसे विषम समय में तत्वदर्शी लोग भारी पीड़ा अनुभव कर रहे थे कि क्या इन काली घटाओं को चीरकर फिर कभी सच्ची आस्तिकता का सूर्य उदय होगा? यह प्रार्थना ईश्वर ने सुनी और वह दिन फिर सामने आया जिसमें जन साधारण को आस्तिकता का सच्चा स्वरूप समझने का अवसर मिल सके । युग-निर्माण योजना को आस्तिकता के पुनरुद्धार का आन्दोलन ही कहना चाहिए । कहते हैं कि किसी समय नारद जी ने भक्ति का घर-घर प्रचार करने का व्रत लिया था और वे अथक परिश्रम करके सारी पृथ्वी पर अनवरत भ्रमण करते हुए समस्त नर-नारियों को ईश्वर उपासक बनाने में जुट गये । युग-निर्माण-योजना के जन्मदाता ने भी आस्तिकता की प्रेरणा करोड़ों आत्माओं तक पहुँचाई है ओर २४ लाख से अधिक व्यक्ति गायत्री के नैष्ठिक उपासक बनाये हैं । अब प्रयत्न यही है कि घर-घर में आस्तिकता की आस्था फलती-फूलती नजर आवे । युग निर्माण योजना का प्रथम लक्ष्य आस्तिकता का प्रसार करना ही है । समस्त हिन्दू जाति को उसकी संस्कृति के उद्गम केन्द्र से परिचित करने और गायत्री के माध्यम से भावनात्मक एकता उत्पन्न करने के लिए जो प्रयत्न किया जा रहा है, उससे जातीय एकता का एक नवीन अरुणोदय होगा और हम चारों वेदों की जननी महाशक्ति गायत्री के साथ-साथ उसके २४ अक्षरों में सन्निहित अपनी महान् संस्कृति को भी समझ सकेंगे जातीय उत्कर्ष की दृष्टि से निश्चय ही यह एक बहुत बड़ा काम होगा । 

युग निर्माण योजना के अन्तर्गत जिस आस्तिकता का प्रसार किया जा रहा है उसमें जप, तप, हवन, पूजन, भजन, ध्यान, कथा, कीर्तन, तीर्थ, पाठ, व्रत, अनुष्ठान आदि के लिए परिपूर्ण स्थान है पर साथ ही समस्त शक्ति लगा कर हर आस्तिक के मन में यह संस्कार जमाये जा रहे हैं कि ईश्वर को निष्पक्ष, न्यायकारी और घट-घट वासी समझते हुए कुविचारों और दुष्कर्मों से डरें और उनसे बचने का प्रयत्न करें । प्रत्येक प्राणी में ईश्वर को समाया हुआ समझकर उसके साथ सज्जनता-पूर्ण सद्व्यवहार किया जाए । कर्तव्यपालन को ही ईश्वर की प्रसन्नता का सबसे बड़ा उपहार मानें और प्रभु की इस सुरम्य वाटिका-पृथ्वी में अधिकाधिक सुख-शान्ति विकसित करने के लिए एक ईमानदार माली की तरह सचेष्ट बने रहें अपना अन्तःकरण इतना निर्मल और पवित्र बनाया जाए कि उसमें ईश्वर का प्रकाश स्वयमेव झिलमिलाने लगे । प्रार्थना केवल सद्बुद्धि, सद्गुण, सद्भावना, सहनशीलता, पुरुषार्थ, धैर्य, साहस और सहिष्णुता के लिए आवश्यक क्षमता प्राप्त करने की ही की जाए । परिस्थितियों को सुलझाने और अभावो की पूर्ति के लिए जो साधन हमें मिले हुए हैं उन्हे ही प्रयोग में लाया जाए और संघर्ष का जीवन हँसते-खेलते बिताते हुए मन को संतुलित रखा जाए । ये ही सब आस्तिकता के सच्चे लक्षण हैं । युग निर्माण योजना का प्रयत्न यह हैं कि इन लक्षणों से युक्त भक्ति और पूजा की भावना को जन-मानस में स्थान मिले और सच्ची आस्तिकता के अपनाने के लिए मानव मात्र का अन्तःकरण उत्साहित होने लगें । 

मनुष्य का कल्याण परमपिता परमात्मा की शरण में जाने से ही हो सकता हैं । असुरता के चंगुल से छुड़ाकर देवत्व की ओर अग्रसर होने की प्रवृत्ति ही साधना कहलाती हैं । साधना से हमारा जीवन सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत भी बनता जाता हैं, पर यह तभी सम्भव होता हैं,जब हम जड़-विज्ञान तथा स्वार्थपूर्ण दिखावटी आस्तिकता से बचकर सच्चे स्वरूप में ईश्वर की उपासना करेंगे । युग निर्माण योजना मानव मात्र के हृदय में सच्ची आस्तिकता उत्पन्न करके उनका हित साधन करने के लिए ही चलाई गई है । 
-वाङ्मय ६६-२-५७,५८,५९ 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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