रविवार, 6 फ़रवरी 2011

माँ

सहनशीलता में धरती हैं, मन विस्तृत आकाश हैं, 
अविश्वास की झंझा में माँ ममतामय विश्वास हैं। 

माँ से अधिक न प्रेरक होते नए-नए प्रतिमान भी,
मूल्यहीन हैं उसके सम्मुख बड़े-बड़े अनुदान भी, 
माँ के निकट पहुँचकर देखो, जब भी मन असहाय हो,
उस आँचल में थम जाएँगे भीषणतम तूफान भी,

इसके आशीषों में होता ईश्वर का आभास हैं। 
अविश्वास की झंझा में माँ ममतामय विश्वास हैं।

स्नेह उसी ने भरा दीप में, फिर जलने की सीख दी, 
हर विपरीत हवा में निर्भय हो चलने की सीख दी,
वाणी से ही नहीं, आचरण से, अविरल अभ्यास से,
हमें फसल पाने को बीजों-सा गलने की सीख दी,

अपना सब-कुछ उसे त्यागने, देने में उल्लास हैं।
अविश्वास की झंझा में माँ ममतामय विश्वास हैं। 

ऐसा हैं माहौल कि घर भी लगता अब बाजार हैं, 
कीमत से आँका जाता अब हर नाता, हर प्यार हैं,
मन मरूथल हो गए, सूखता हैं नयनों का नीर भी,
कहीं न मिलती दूर-दूर तक कोई सजल बयार हैं,

इस मौसम में केवल माँ ही सहज-विमल वातास हैं।
अविश्वास की झंझा में माँ ममतामय विश्वास हैं। 

ऐसी माँ का मन न दुखाना जाने या अनजान में, 
उसे न हीन समझना धन-पद-शिक्षा के अभिमान में,
माँ के मन का एक शब्द भी सरल-सहज आशीष का,
स्वयं परावर्तित हो जाता हैं दैवी वरदान में,

प्राण प्रवाहित करता सबमें माता का हर श्वास हैं। 
अविश्वास की झंझा में माँ ममतामय विश्वास हैं। 

-शचीन्द्र भटनागर
अखण्ड ज्योति सितम्बर 2010

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