शनिवार, 1 जनवरी 2011

गहन समर्पण

मध्यकाल की बात है। समाज मे भाति - भाति की कुरीतिया पनप रही थीं और मानवता का पतन चरम सीमा पर था। राजतंत्र भ्रष्टाचारियों के हाथ की कठपुतली बन गया था। अपने चरित्र के आधार पर विश्व बदलने वाले व्यक्तियों का अभाव साफ नजर आता था। ऐसे में एक संत ने समाज - सुधार का कार्य आरम्भ किया। कुछ लोग साथ चले, तो कुछ विरोधी भी हो गये। उनके आचरण के संदर्भ मे अनर्गल बातों का प्रचार करने लगे।

संत के शिष्य को यह अच्छा नही लगा। वह उनसे बोला- ‘‘गुरूदेव ! आप भगवान के समीप है, उनसे कहकर दुष्प्रचार बन्द क्यो नही करवा देते।’’ संत मुस्कराये और शिष्य के हाथों मे एक हीरा देकर बोले ‘‘जा बेटा ! सब्जी मंडी मे और जोहरी से इसका दाम पूछकर आ ’’ शिष्य को अजीब लगा, पर गुरू का आदेश कैसे ठुकरा सकता था ? कुछ समय बाद शिष्य लौटा और बोला-‘‘ सब्जी मंडी मे तो इसका ज्यादा से ज्यादा पचास रू. दाम लगा है पर जोहरी इसकी कीमत हजारो मे आंक रहा था।

संत बोले -‘‘बेटा! अच्छे कर्म भी इस हीरे की तरह ही है, जिसकी कीमत केवल परमात्मा रूपी पारखी ही भाप सकता है। कुछ नासमझो के विरोध से यदि हम उद्धेश्य विमुख हो गये तो हममें और उनमे क्या अंतर रह जायेगा।’’ यह बात शिष्य की समझ मे आ गई ओर वह गहन समर्पण से समाज-सुधार के कार्य में जुट गया।

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