सोमवार, 20 दिसंबर 2010

संगठन की शक्ति

बीज को पौधा बनाने में और पौधे को पेड़ में बदलने के पीछे अनेक शक्तियों का दृश्य-अदृश्य हाथ होता हैं। सूरज की किरणे हो या उपजाऊ मिट्टी, प्रचुर मात्रा में खाद हो अथवा सींचा गया पानी, सभी अपनी सामथ्र्य के अनुसार शक्ति लगाकर एक नन्हे से बीज को विशालकाय वृक्ष में रूपांतरित कर देते हैं। जब सृष्टि का एक छोटा-सा कार्य किसी एक व्यक्ति या शक्ति पर निर्भर नहीं करता, तब यह जान लेना चाहिए कि युग-परिवर्तन जैसा अभूतपूर्व कार्य भी संगठन की शक्ति के बिना असंभव सिद्ध होगा। इस संकल्प की पूर्ति के लिए आज उन सभी प्रतिभाओ का आवाहन हैं, जो पूज्य गुरूदेव द्वारा रोपे गए विचार-क्रांति के बीज को युग निर्माण के वृक्ष में बदलने में आनी शक्ति व ऊर्जा निछावर कर दे।

अक्का महादेवी

कर्नाटक के एक छोटे से गाव में एक साधारण गृहस्थ के घर एक कन्या जन्मी, जो बड़ी सुंदर युवती बनी। उन दिनो मुसलिम संस्कृति और सभ्यता की आंधी दक्षिण में प्रवेश कर रही थी। अक्का महादेवी नाम की इस साधारण ग्रामबाला ने प्रतिज्ञा की कि वह आजीवन ब्रह्मचारिणी रहकर ईश्वर-उपासना और राष्ट्रसेवा करेगी, कभी भी विधर्मियों को अपने देश में घुसने नहीं देगी। संयम की तेजस्विता ने उसकी कांति में और वृद्धि कर दी। तत्कालीन मैसूर के राजा कौशिक ने अद्वितीय सौंदर्य की धनी महादेवी से विवाह का प्रस्ताव रखा। वे अपनी आति कामुकता एवं ढेरों उपपत्नियों के लिए प्रसिद्ध थे। अक्का महादेवी ने मना कर दिया। कौशिक ने उसे अपमान मानकर अक्का के माता-पिता को बंदी बनाकर पुनः प्रस्ताव भेजा। अक्का ने माता-पिता की खतिर राजा का प्रस्ताव मान लिया, पर एक शर्त पर कि वे समाजसेवा, संयम साधना का परित्याग नहीं करेंगी। कौशिक ने यह बात मान ली। विवाह के बाद अपनी निष्ठा से उन्होंने कामुक पति को भी संत बनाकर सहचर बना लिया। अक्का और कौशिक दोनों ने कन्नड़ संस्कृति की रक्षा के ढेरों प्रयास किए, जिनकी विरूदावली आज भी गाई जाती हैं। 

करूणा मेरा धर्म

एक साधु नदी के किनारे बैठे भजन कर रहे थे। थोड़ी देर बाद उनकी नजर एक बिच्छू पर पड़ी, जो पानी की बीच आकर फंस गया था। वह जितना बाहर निकलने की कोशिश करता, लहरें उसे उतना ही अंदर धकेल देती थीं । साधु ने धीरे से उगली आगे बढ़ाई और बिच्छू को अपनी हथेली के ऊपर लिया। इससे पहले कि वे उसे सुरक्षित किनारे पर रखते, बिच्छू ने उनको डंक मार दिया। 
दूर खड़ा एक व्यक्ति यह दृश्य ध्यान से देख रहा था। वह कहने लगा-‘‘महाराज ! ऐसे नीच प्राणी पर दया करने से क्या लाभ ! आपने तो उसे बचाया और उसने आपको ही डंक मार दिया।
’’ साधु बोले-‘‘मित्र ! यदि बिच्छू का स्वभाव डंक मारना हैं, तो करूणा मेरा धर्म। जब वह अपनी प्रकृति नहीं बदल सकता हैं तो मैं अपना स्वभाव कैसे बदल दू।’’

विवेक के चक्षु

युवराज भद्रबाहु अति सुंदर-सुगठित काया के स्वामी थे। एक दिन सरिता-विहार करते हुए श्मशान के सामने से गुजरे, जहा किसी मृतक का दाह-संस्कार हो रहा था। युवराज ने सहज ही कहा कि कोई कुरूप रहा होगा, जिसे जलाया जा रहा हैं। साथ चल रहे महामंत्री पुत्र सुकेशी ने कहा-‘‘नहीं युवराज ! यह हश्र तो सभी का होता हैं, नहीं तो सभी मृत शरीर सड़-गल जायेंगे।’’ न जाने कहा युवराज को गहरे में यह बात लग गई। किसी ने कभी यह बात उनसे नहीं कही थी। उन्हें अपना सौंदर्य अपना यौवन निरर्थक लगने लगा एवं वे उदास रहने लगे। राजा भी चिंतित व महारानी भी चिंतित। 
राजगुरू ने सब मामला समझ लिया। बुलाया, बैठाया और पूछा-‘‘युवराज ! आज तुम उस महल में रहते हो, कल वह रहने योग्य न रहे, तो दूसरे भवन में, प्रासाद में जाओगे या नहीं ?’’ भद्रबाहु ने कहा-‘‘जाना ही होगा गुरूवर !’’ ‘‘इसके बाद वह भवन गिर जाये-आग लग जाये तो तुम्हार कुछ बिगड़ा ?’’ युवराज बोले-‘‘कुछ भी नहीं गुरूदेव !’’ ‘‘तो फिर तुम आत्मा के भवन इस शरीर के जरा-जीर्ण होने की चिंता क्यों करते हो ? आत्मा द्वारा इसका त्याग और नाश तो स्वाभाविक हैं।’’ भद्रबाहु के विवेक के चक्षु खुल गए और वे आत्मा के महत्व को समझकर जीवन सार्थक करने हुत प्रयत्नशील हो गए।

ईरान का बादशाह नौशेरवा

ईरान का बादशाह नौशेरवा अपनी न्यायप्रियता के लिए प्रसिद्ध था। एक दिन शिकार खेलते हुए वह काफी दूर निकल गया। देर शाम एक गाव के किनारे डेरा लगा। भोजन के साथ नमक न मिलने पर उनका एक सेवक गाव के एक घर से नमक ले आया और भोजन बनाने लगा। 
नौशेरवा ने पूछा-‘‘नमक के दाम देकर आये हो ना ?’’ उसने उत्तर दिया-‘‘इतने से नमक का क्या दाम दिया जाये ?’’ 
नौशेरवा ने कहा-‘‘अब आगे से ऐसा काम कभी न करना। उस नमक की कीमत जो भी हो, तुरंत देकर आओ। तुम नहीं समझते कि अगर बादशाह किसी के बाग से बिना दाम दिए एक फल भी ले ले, तो उसके कर्मचारी तो पूरा बाग ही उजाड़ कर खा जायेंगे।’’ नमूना स्वयं पेश किया जाता हैं, जाओ ! नौशेरवा की न्यायप्रियता नें ही उसे एक आदर्श आचरण वाले राजा के रूप में स्थापित किया।

विज्ञान और अध्यात्म

मनुष्य को एक पंख उग आया। वह था विज्ञान का, आधुनिकता का पंख। उसने जोर लगाया और आकाश में उड़ान भरने लगा, पर अब उसे शांति नहीं थी। मन उद्विग्न था। तरह-तरह की प्रतिकूलताए उसे विक्षुब्ध करने लगी। उपलब्ध्यि कम थी, खोया कुछ अधिक जा रहा था। घबरा कर उसने प्रभु से प्रार्थना की-
‘‘हे प्रभो ! यह किस संकट में मैं आ फंसा ! अच्छा होता, हमें जन्म ही नहीं देते।’’ 
आकाश को चीरती भगवान की वाणी गुंजायमान हुई-
‘‘वत्स ! आत्मज्ञान का, अध्यात्म का एक और पंख उगा। अंतश्चेतना का विकास कर। तब ही संतुलन बनेगा।’’ ऐसा ही हुआ। विज्ञान और अध्यात्म दोनों साथ चलेंगे, तो ही सर्वांगीण प्रगति होगी।

बुद्ध भगवान

बुद्ध भगवान वेद एवं ब्राह्मणों के खिलाफ बोलते थे। उनकी टीका कर्मकांडो से जुड़े उस भ्रष्ट आचरण के प्रति थी, जिसमें हिंसा, बलि का जोर था। एक बार परिव्रज्या करते हुए योगवश वे एक ब्राह्मण के घर ही ठहरे। जब ब्राह्मण को मालूम हुआ कि यही वह बुद्ध हैं, तो उसने जी भरकर गालिया दीं और तुरंत निकल जाने को कहा। 
धैर्यपूर्वक सुन रहे बुद्ध ने कहा-‘‘द्विजवर ! कोई आपके यहा आए और आप पकवान मिष्टान्नों से स्वागत करें और यदि वह स्वीकार न करे तो क्या आप उसे फेंक देते हैं ?’’ 
ब्राह्मण बोले-‘‘नहीं। फेकेंगे क्यों ? हम स्वयं ग्रहण करेंगे।’’ 
बुद्ध ने कहा-‘‘ तो फिर गालियों की यह भेंट आप स्वयं स्वीकार करें। आपकी, अपनी वस्तु आप ही ग्रहण करें।’’ 
यह कहकर बुद्ध मुस्करा कर अगले स्थान के लिए रवाना हो गये।

ईसा

ईसा निम्न जाति के गरीबों तथा पतित-पापियों के बीच बैठे भोजन कर रहे थे। एक विरोधी ने ईसा के शिष्य से कहा-‘‘तुम अपने गुरू को भगवान का बेटा और पवित्र आत्मा बतलाते हो। जो नीचों के साथ बैठा हैं, वह पवित्र कैसे हो सकता हैं ! हम उसका आदर क्यों करें ? ईसा ने विरोधी की बात सुन ली थी-वे विनम्र भाव से बोले-
‘‘भाई ! वैद्य की आवश्यकता रोगी को होती हैं, नीरोगी-स्वस्थ को नहीं। धार्मिक उपदेश की, प्यार की आवश्यकता इन सबको हैं। मैं धर्मात्माओं का नहीं, पापियों का हित करने आया हूं, उन्हें मेरी सबसे ज्यादा जरूरत हैं। ’’ ईसा ने जीवन भर यही किया। 

विरासत

परिवार व साम्राज्य का त्याग करने के सात वर्ष पश्चात् पिता शुद्धोधन के अनुरोध पर भगवान बुद्ध ने पुनः कपिलवस्तु भ्रमण करने का निश्चय किया। कल के राजकुमार और आज के तथागत को देखने लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। मिलने वालों की कतार में उनकी पत्नी यशोधरा व पुत्र राहुल भी थे। बुद्ध तो चित्त के बंधनों से परे हो चुके थे, पर ये स्वाभाविक था कि पति को देख यशोधरा के मन में मोह जागता। उन्हें इच्छा हुई कि किसी तरह बुद्ध राजमहल लौट चलें, इसलिए उन्होंनें राहुल से कहा कि वे बुद्ध से उनका पुत्र होने के नाते, अपनी विरासत की मांग करें। राहुल के उनसे प्रश्न करते ही, बुद्ध ने राहुल के मस्तक पर हाथ रखा और बोले-’’पुत्र ! मेरा धर्म ही मेरी धरोहर हैं और मेरी शिक्षाए मेरी विरासत। इन पर तुम्हारा भी उतना ही अधिकार हैं, जिना शेष शिष्यों का।’’ 
बुद्ध के वचनों ने राहुल के बाल मन को अंदर तक से झकझोर डाला और वे भी दीक्षा लेकर प्रव्रज्या पर निकल पड़े। आगे चलकर उनकी गणना भगवान के दस प्रमुख शिष्यों में हुई।

अमृता शेरगिल

मात्र 29 वर्ष की उम्र में काल-कवलित हो गई एक साधिका के बारे में बहुत कम लोग जानते होंगे। नाम तो उनका सुना गया होगा, पर उनका जीवनक्रम कैसा रहा, यह शायद बहुत लोग नहीं जानते। अमृता शेरगिल कला की साधिका थी एवं उनकी कलाकृतिया विश्वस्तरीय मानी जाती हैं। चूकि उनके माता-पिता उन दिनों हंगरी (बुडापेस्ट) में थे, अतः उनका जन्म भी वहीं हुआ। माता-पिता चाहते थे कि वह डाक्टर बने, पर वे जन्म से ही कला में रूचि रखती थी, पोर्टेट्स बनाती थीं। धीरे-धीरे उनके लिए एक कला शिक्षक की नियुक्ति हो गई। पेरिस के प्रख्यात कलाकारों का भी उनको मार्गदर्शन मिला। विशिष्ट कला प्रदर्शनियों में उनके चित्र प्रदर्शित किए गए। उनकी चित्रकला में पाश्चात्य एवं पूर्वीय दोनों ही चित्रकलाओं का समन्वय था। 
भारत आकर वे यहा के रंग में रंग गई और भारतीय जनजीवन को कैनवास पर उतारने लगी। उनके पढ़ाए अनगिनत कलाकार आगे बढ़े, पर वे अधिक नहीं जी सकीं। 
अत्यल्प आयु में लाहौर में उन्होंनें शरीर छोड़ दिया।

मील का पत्थर

राहगीर चला जा रहा था। उसने देखा, मील का पत्थर गड़ा हुआ उसे दूरी बता रहा था। राहगीर बोल उठा-‘‘तुम भी कैसे हो-जहा गड़ गए, वहा से हिलते भी नहीं। देखो, मेरी तरफ देखो। सारे संसार का भ्रमण करता हू, जहा मरजी हो, वहा जाता हू। आनंद ही आनंद हैं। मौज ही मौज हैं। 
‘‘पत्थर ने धीमी आवाज में, लेकिन शिष्ट स्वर में उत्तर दिया-‘‘बंधु ! मुझे देखकर लोग दूरी का अनुमान लगाकर संतुष्ट हो जाते हैं। उन्हं लगता हैं कि अब उनका गंतव्य पास हैं। यह संतोष क्या कम हैं, जो मै सेवा-धर्म के नाते उन्हे दे पाता हू। फिर मैं क्यों निरूद्देश्य तुम्हारी तरह भटकता फिरू। वह तुम्ही को मुबारक ! मुझे तो मेरी यही सेवा ठीक लगती हैं। 
’’ राहगीर निरूत्तर हो एक सीखलेकर आगे बढ़ गया।

भक्ति का अर्थ

भक्ति का अर्थ हैं-
भावनाओं की पराकाष्ठा और परमात्मा एवं उसके असंख्य रूपों के प्रति प्रेम। यदि पीड़ित को देख अंतर में 
करूणा जाग उठे, 
भूखे को देख अपना भोजन उसे देने की चाह मन में आए 
और भूले-बिसरों को देख उन्हें सन्मार्ग पर ले चलने की इच्छा हो, 
तो ऐसे हृदय में भक्ति का संगीत बजते देर नहीं लगती। सच्चे भक्त की पहचान भगवान के चित्र के आगे ढोल-मॅंजीरा बजाने से नहीं, बल्कि गए-गुजरों और दीन-दुखियों को उसी परमसत्ता का अंश मान उनकी सेवा करने से होती हैं।

महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप को सब जानते हैं, पर उनकी जननी कौन थी, कहा से आई थी, यह जानकारी विरलों को ही हैं। पिता महाराणा उदयसिंह अरावली की दुर्गम घाटियों में भटक रहे थे। उन्होने देखा कि एस किसान कन्या सिर पर बड़ी टोकरी लिए आ रही हैं। उसमें रोटी, दाल, खेती के औजार आदि थे। दूसरी हाथ से सात-आठ बछड़े एक ही रस्सी से पकड़े थी। चेहरे पर अनूठा तेज था। उसने पास आकर महाराणा को इस स्थिति में देखा तो साथ चलने को कहा। पहाड़ियों की बीच उसका घर था। किसान ने अपनी पुत्री के साथ आए राजा को पहचान लिया। पानी पिलाया, रोटी खिलाई। तब तक महाराणा, जो अविवाहित थे, किसान से उनकी पुत्री मांग चुके थे। देख चुके थे कि वह सिंहनी के समान है। उसकी कोख से सिंह ही पैदा होगा। किसान को जब बताया गया तो उसने कहा-‘‘मेरी क्या हेसियत-आप कहा, हम कहा !’’ पर महाराणा ने उसे समझा कर विवाह कर लिया। रानी जैसी सुयोग्य सहायक व ऊर्जा की स्त्रोत पाकर दूने उत्साह से उन्होंने अरावली पर्वत श्रेणियों के बीच उदयपुर नगर की नीवं डाली और राज्य को सुव्यवस्थित किया। इस रानी की कोख से ही नररत्न महाराणा प्रताप जन्में थें। रानी ने बड़े मन से उन्हे गढ़ा व वे वैसे ही बने, जैसी कि उन दिनों राष्ट्र को जरूरत थी। ऐसी मा ही राष्ट्र निर्माता को जन्म दे सकती हैं। 

शरीर, बुद्धि व भावना

शरीर, बुद्धि व भावना में बहस छिड़ गई कि कौन ज्यादा महत्वपूर्ण है ? शरीर बोला-‘‘मै। मनुष्य के अस्तित्व का प्रतीक हू। यदि मैं न रहू तो मनुष्य अपनी बुद्धि व भावना को प्रकट किस माध्यम से करे ?’’

बुद्धि बोली-‘‘मेरे न होने से मनुष्य का जीवन जंतु-जानवरों से जरा भी भिन्न न होगा और जो प्रगति-विकास के सरंजाम उसने जुटाए हैं, वे मूल्यहीन जान पड़ेंगे।’’

भावना बोली-‘‘मनुष्य के जीवन में समृद्धि और सुंदरता भावनाओं से हैं। उनके अभाव में उसमें व जड़ पदार्थ में क्या अंतर रह जाएगा ?’’

भगवान ने उनका वार्तालाप सुना और मुस्करा कर बोले-‘‘मनुष्य का जीवन तुम तीनों ही के कारण बहुमूल्य हैं। मैने उसे अतुल्य शरीर, असीम बुद्धि और अनंत भावनाए दी हैं, यदि वह तुम तीनों का समग्र व समुचित उपयोग कर सके तो उसका जीवन किसी वररदान से कम सिद्ध न होगा।’’

दत्तो वामन पोतदार

5 अगस्त 1890 को महाराष्ट्र के बीरबंडी नामक कसबे में जन्मे साहित्यकार-समाजसेवी दत्तो वामन पोतदार को श्रेय जाता हैं हिंदी को महाराष्ट्र की दूसरी सबसे बड़ी भाषा बनाने में। उन्हें महाराष्ट्र का साहित्यिक भीष्म कहा जाता हैं। इस कार्य के लिए उन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर सेवा करने का दृढ़ निर्णय लिया। उन्होंने ‘भारतीय इतिहास संशोधक मंडल’ की स्थापना भी की, जो कि आज एक महत्वपूर्ण स्थापना के रूप में इतिहास के शोध पर उपलब्धिया लेकर एक शीर्ष स्थापना मानी जाती हैं। मराठी भाषा में उन्होनें सैकड़ों लेख, किताबें लिखीं, जिन्हें मान्यता प्राप्त है। उन्होनें पूना विश्वविद्यालय के कुलपति के नाते भी बड़ी जिम्मेदारी निभाई, पर उनकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं- राष्ट्रभाषा हिंदी की सेवा। पूरे महाराष्ट्र में अनेक शिक्षण संस्थाए उन्होंने स्थापित की। पूना शहर में आप पुस्तकालय तथा वाचनालयों का जो जाल फेला दिखाई देता हैं, उसमें प्रत्येक में पोतदार जी को श्रेय जाता हैं। आज मराठी, मुंबई या महाराष्ट्र की जब बात चल रही हैं, विघटन का स्वरूप दिखाई देता हैं, जो दत्तो वामन पोतदार जैसे महामानव याद आते हैं।

एकनिष्ठ भाव

एक युवा हो रहे किशोर ने एक धनी व्यक्ति का ठाठ-बाट देखा। उसने सोचा धनवान बनना चाहिए। कई दिन तक उसी की तरह कमाई में लगने का प्रयास किया भी और कुछ पैसे कमा भी लिए। इसी बीच उसकी भेंट एक विद्वान से हुई । उसने विद्वान की वाक्पटुता से प्रभावित होकर कमाई करना छोड़ दिया और पढ़ने में लग गया। अभी थोड़ा-बहुत सीख ही पाया था कि उसकी भेंट एक संगीतज्ञ से हो गई। उसे संगीत के अधिक आकर्षण लगा। उस दिन से पढ़ाई बंद कर उसने संगीत सीखना आरंभ कर दिया। काफी उम्र बीतने पर भी न वह पैसे वाला बना, न विद्वान, न संगीतज्ञ, न समाजसेवी या नेता। 
एक दिन अपने दुःख का कारण उसने एक महात्मा को बताया। उनने कहा-
‘बेटा ! सारी दुनिया में आकर्षण भरा पड़ा हैं। एक निश्चय करो और फिर जीते जी उसी पर अमल करो, तुम्हारी उन्नति अवश्य होगी। कई जगह गड्ढे खोदोगे तो न पानी मिलेगा, न कुआ खोद पाओगे।’’ युवक संकेत समझ गया और एकनिष्ठ भाव से लग गया।

स्वस्थ व्यक्ति

स्वस्थ व्यक्ति की परिभाषा सुश्रुत ने बड़ी सुन्दर एवं व्यवस्थित की हैं। वे कहते हैं-
‘‘स्वस्थ व्यक्ति वह हैं, जिसमें वात-कफ-पित्तादि दोष, त्रयोदश अग्निया (7 धात्वाग्निया, 5 महाभूताग्निया तथा जठराग्नि ), सप्त धातुए सम अवस्था में हो, मल-मूत्रादि का विसर्जन निर्बाध रूप से हो रहा हो, आत्मा, इंद्रिय एवं मन प्रसन्न हो।’’ (सु.सू. 15/41)

अब हम देंखे कि इस परिभाषा के अनुसार हम कहा हैं ? 
कितनी कुछ विकृतिया हमारे जीवन मं आ गई हैं ,? वस्तुतः इस आधार पर बिरले ही स्वस्थ होंगे। ‘मानसिक स्वास्थ्य’ को भी परिभाषित करते हुए कहा गया हैं कि जो सुख-दुख में सम हैं, लौह और स्वर्ण में समान दृष्टि वाला हैं, प्रिय और अप्रिय में धीर हैं, निंदा-स्तुति में बराबर हैं, वही पूर्णतः स्वस्थ है।

आदर्श शिष्य

स्वामी विवेकानन्द की दो शिष्याए थी- एक भगिनि निवेदिता (मार्गरेट नोबुल) तथा दूसरी क्रिस्टीना, जिन्हें स्वामी जी कृष्णप्रिया नाम से संबोधित करते थं। निवेदिता स्वामी जी से ढेर सारे प्रश्न पूछती, समाधान भी मिलते, पर क्रिस्टीना थी कि वह मौन बैठी रहती। स्वामी जी ने उनसे पूछा-‘‘तुम कभी प्रश्न नहीं पूछती। क्या तुम्हारे मन में जिज्ञासाए नहीं उठती ? 
क्रिस्टीना बोली- ‘‘ माय मास्टर ! क्वेश्चन्स अराइज इन माय हार्ट बट दे मेल्ट बिफोर युअर रेडिएन्स ( हे मेरे गुरूदेव ! प्रश्न मेरे हृदय में उठते है ? पर वे आपकी तेजस्विता के सामने मिट जाते हैं।)’’ मुझे सभी का जवाब मौन रहकर ही मिल जाता हैं। यह हैं आदर्श शिष्य का लक्षण।

अद्वेत की मिठास की अनुभूति

अद्वैत का ज्ञान दरअसल अपनी आत्मा और आत्मीयता के अनंत, असीमित विस्तार का अनुभव हैं। ऐसा अनुभव, जिसमें जड़-चेतन सभी स्वयं की आत्मचेतना में समाए नजर आते हैं। पर्वत-नदी-झरने, वृक्ष-वनस्पति, देव-दानव-मानव, पशु-पक्षी, यहा तक कि कीट-पतंगो में अपनी ही आत्मा प्रकाशित नजर आती है। छोट-बड़े, ऊच-नीच, कुल-जाति, यहा तक कि जड़-चेतन का कोई भेद यहा मिथ्या और मायिक अनुभव होता है। आत्मा का यह अनंत विस्तीर्ण अनुभव ही ब्रम्ह हैं। जिन्हे कठिन तप से यह अनुभूति मिली, उन्होने इसे अभिव्यक्त करते हुए कहा- 

अहं ब्रह्मास्मि’।

परन्तु जिन्होने तप और साधना को दरकिनार कर केवल पोथियों के पन्ने उलटे, उन्होने इस महान् अनुभव को अपने तर्को से विकृत और भौंडा बना दिया। वे सब ब्रह्मास्मि को भूल अहं में अटक गये। अपनी इस भटकन को उन्होने सही साबित करने के लिए शास्त्र रचे, तर्कजाल फैलाया। इसका प्रभाव जहा और जिन पर भी पड़ा, उन सभी के हृदय संवेदना रस से शून्य होते गये। इससे कुछ ऐसा हो गया, जैसे कि उतप्त गरमी के दिन आते हैं और सूरज की तपन से घरती सूख जाती हैं और दरारें पड़ जाती हैं।


इस शुष्कता से, कंठ सुखाने वाली तृषा से उबरने के लिए भक्ति की वर्षा चाहिये। अद्वैत ज्ञान के अनुभव को विकृत बनाने वाले सभी प्रयासों को समाप्त करने के लिए अनन्य भक्ति चाहिये। अनन्य का अर्थ हैं - अन्य अन्य न रहा, अब अनन्य हो गया। कहीं कोई अब दूसरा न रहा, सभी एक हो गये। 

इस पथ पर चलने वाला भक्त पहले भक्ति में भीगकर स्वयं प्रभु के साथ अनन्य अनुभव करता हैं, फिर वह अपने प्रियतम परमात्मा में अनंत-अनंत ब्रम्हांडो की एकात्मता को अनुभव करता हैं। वह यह अनुभव कर लेता हैं कि अहंता के विसर्जित होते ही परमात्चेतनपा का अद्वैत स्वतः प्रकट हो जाता हैं। अद्वैत की इस मिठास में उसे केवल ‘ब्रह्मास्मि ’ का अनुभव होता हैं, ‘अहं’ तो यहा ढूढ़ने पर भी नहीं मिलता।

अखण्ड ज्योति जनवरी 2010

शांतिकुंज ही हमको आस बॅंधाए

साधो ! हमको शांतिकुज मन भाए,
जिसका हर कण गुरू-गरिमा के गौरव गीत सुनाए।
जहा कर्मरत हर साधक हैं,
जहा नहीं आलस बाधक हैं,
जहा सभी अपने हैं, दिखते कोई नहीं पराए
साधो ! हमको शांतिकुज मन भाए,

जहा साधना की माया हैं, 
जहा हिमालय की छाया हैं,
पतितपावनी गंगा जिसके निकट सदा लहराए।
साधो ! हमको शांतिकुज मन भाए,

जहा कलुष कल्मष गल जाते,
साचे में साधक ढल जाते,
दिव्य फुहारों में हो जाते साधक स्वयं नहाए
साधो ! हमको शांतिकुज मन भाए,

निष्प्राणो पर प्राण बरसते,
अनसोचे अनुदान बरसते,
हॅंसते-हॅंसते गए यहा से, जो उदास मुख आए।
साधो ! हमको शांतिकुज मन भाए,

पंथ हुए धुधले-मटमैले,
दिखते हैं संबंध कसैले,
ऐसे में बस शांतिकुंज ही मन को आस बॅंधाए।
साधो ! हमको शांतिकुज मन भाए,

शचीन्द्र भटनागर

पूर्वजन्मकृतं पापं नरकस्य परिक्षये।

भारतीय अध्यात्म बड़ी गहरी दृष्टि रखता हैं। विभिन्न धर्मशास्त्र (स्मृतिया) रोगों की उत्पति के विषय में जन्मांतरीय किस निंदित कर्म से वर्तमान में कौन सा रोग हुआ हैं, इस पर प्रकाश डालते हैं। 
कहा गया हैं -

पूर्वजन्मकृतं पापं नरकस्य परिक्षये।
बाधते व्याधिरूपेण तस्य जप्यादिभिः शमः।। (शातातप स्मृति 1/5)

इसके अनुसार क्षयरोग, मृगी, जन्मांधता, खल्वाट (एलोपेशिया या गंजापन), मधुमेह, अजीर्ण, श्वास रोग, शूलरोग, रक्तातिसार, भगंदर आदि रोग पूर्वजन्म के कृत्यों के कारण होते हैं। 
गायत्री जप आदि, प्रायश्चित, ज्ञानदान, दान-पुण्य आदि कृत्य, सप्ताह में एक दिन उपवास आदि उपायों से इन्हे ठीक किया जा सकता हैं। औषधियों आदि के साथ दैवी चिकित्सा निश्चित ही लाभ देती है। 



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