बुधवार, 11 अगस्त 2010

ज्योतिषी का अनुमान

यूनान के प्रसिध्द दार्शनिक सुकरात एक बार अपने शिष्यों के साथ चर्चा में मग्न थे। उसी समय एक ज्योतिष घूमता-घामता पहुंचा, जो कि चेहरा देख कर व्यक्ति के चरित्र के बारे में बताने का दावा करता था। सुकरात व उनके शिष्यों के समक्ष यही दावा करने लगा। 

चूंकि सुकरात जितने अच्छे दार्शनिक थे उतने सुदर्शन नहीं थे, बल्कि वे बदसूरत ही थे। पर लोग उन्हें उनके सुन्दर विचारों की वजह से अधिक चाहते थे।ज्योतिषी सुकरात का चेहरा देखकर कहने लगा, इसके नथुनों की बनावट बता रही है कि इस व्यक्ति में क्रोध की भावना प्रबल है।यह सुन कर सुकरात के शिष्य नाराज होने लगे परन्तु सुकरात ने उन्हें रोक कर ज्योतिष को अपनी बात कहने का पूरा मौका दिया।''इसके माथे और सिर की आकृति के कारण यह निश्चित रूप से लालची होगा। इसकी ठोडी क़ी रचना कहती है कि यह बिलकुल सनकी है, इसके होंठों और दांतों की बनावट के अनुसार यह व्यक्ति सदैव देशद्रोह करने के लिये प्रेरित रहता है।

यह सब सुन कर सुकरात ने ज्योतिषी को इनाम देकर भेज दिया, इस पर सुकरात के शिष्य भौंचक्के रह गये।

सुकरात ने उनकी जिज्ञासा शांत करने के लिये कहा कि, सत्य को दबाना ठीक नहीं। ज्योतिषी ने जो कुछ बताया वे सब दुर्गुण मुझमें हैं, मैं उन्हें स्वीकारता हूँ। पर उस ज्योतिषी से एक भूल अवश्य हुई है, वह यह कि उसने मेरे विवेक की शक्ति पर जरा भी गौर नहीं किया। मैं अपने विवेक से इन सब दुर्गुणों पर अंकुश लगाये रखता हूँ। यह बात ज्योतिषी बताना भूल गया। शिष्य सुकरात की विलक्षणता से और प्रभावित हो गये। 

एक महान बालक

एक बालक नित्य विद्यालय पढ़ने जाता था। घर में उसकी माता थी। माँ अपने बेटे पर प्राण न्योछावर किए रहती थी, उसकी हर माँग पूरी करने में आनंद का अनुभव करती। पुत्र भी पढ़ने-लिखने में बड़ा तेज़ और परिश्रमी था। खेल के समय खेलता, लेकिन पढ़ने के समय का ध्यान रखता। एक दिन दरवाज़े पर किसी ने - 'माई! ओ माई!' पुकारते हुए आवाज़ लगाई तो बालक हाथ में पुस्तक पकड़े हुए द्वार पर गया, देखा कि एक फटेहाल बुढ़िया काँपते हाथ फैलाए खड़ी थी। उसने कहा, 'बेटा! कुछ भीख दे दे।'

बुढ़िया के मुँह से बेटा सुनकर वह भावुक हो गया और माँ से आकर कहने लगा, 'माँ! एक बेचारी गरीब माँ मुझे बेटा कहकर कुछ माँग रही है।' उस समय घर में कुछ खाने की चीज़ थी नहीं, इसलिए माँ ने कहा, 'बेटा! रोटी-भात तो कुछ बचा नहीं है, चाहे तो चावल दे दो।' पर बालक ने हठ करते हुए कहा - 'माँ! चावल से क्या होगा? तुम जो अपने हाथ में सोने का कंगन पहने हो, वही दे दो न उस बेचारी को। मैं जब बड़ा होकर कमाऊँगा तो तुम्हें दो कंगन बनवा दूँगा।' माँ ने बालक का मन रखने के लिए सच में ही सोने का अपना वह कंगन कलाई से उतारा और कहा, 'लो, दे दो।'

बालक खुशी-खुशी वह कंगन उस भिखारिन को दे आया। भिखारिन को तो मानो एक ख़ज़ाना ही मिल गया। कंगन बेचकर उसने परिवार के बच्चों के लिए अनाज, कपड़े आदि जुटा लिए। उसका पति अंधा था। उधर वह बालक पढ़-लिखकर बड़ा विद्वान हुआ, काफ़ी नाम कमाया। एक दिन वह माँ से बोला, 'माँ! तुम अपने हाथ का नाप दे दो, मैं कंगन बनवा दूँ।' उसे बचपन का अपना वचन याद था। पर माता ने कहा, 'उसकी चिंता छोड़। मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूँ कि अब मुझे कंगन शोभा नहीं देंगे। हाँ, कलकत्ते के तमाम ग़रीब बालक विद्यालय और चिकित्सा के लिए मारे-मारे फिरते हैं, उनके लिए तू एक विद्यालय और एक चिकित्सालय खुलवा दे जहाँ निशुल्क पढ़ाई और चिकित्सा की व्यवस्था हो।'

माँ 
के
उस
पुत्र 
का 
नाम
ईश्वरचंद्र
विद्यासागर 
था ।

सिकंदर और नाला

विश्वविजेता होने का स्वप्न देखने वाले सिकन्दर और उनके गुरु अरस्तू एक बार घने जंगल में कहीं जा रहे थे। रास्ते में उफनता हुआ एक बरसाती नाला पडा। अरस्तू और सिकन्दर इस बात पर एकमत न हो सके कि पहले कौन नाला पार करे। उस पर वह रास्ता अनजान था, नाले की गहराई से दोनों नावाकिफ थे। कुछ देर विचार करने के बाद सिकन्दर इस बात पर ठान बैठे कि नाला तो पहले वह स्वयं ही पार करेंगे। कुछ देर के वाद विवाद के बाद अरस्तू ने सिकन्दर की बात मान ली। पर बाद में वे इस बात पर नाराज हो गये कि तुमने मेरी अवज्ञा की तो क्यों की।

इस पर सिकन्दर ने एक ही बात कही,

मेरे मान्यवर गुरु जी, मेरे कर्तव्य ने ही मुझे ऐसा करने को प्रेरित किया। क्योंकि अरस्तू रहेगा तो हजारों सिकन्दर तैयार कर लेगा। पर सिकन्दर तो एक भी अरस्तू नहीं बना सकता। गुरु शिष्य के इस उत्तर पर मुस्कुरा कर निरुत्तर हो गये।

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