सोमवार, 9 अगस्त 2010

युवा संगठनों के लिए युग निर्माण अभियान के सूत्रों को ध्यान में रखें

युग निर्माण अभियान के अन्तर्गत युवाओं को संगठित एवं सक्रिय बनाने के लिए इन दिनों जगह-जगह प्रयास चल पड़े हैं । जो भी परिजन इस दिशा में कार्य कर रहे हैं, वे सब साधुवाद के पात्र हैं । किसी भी आन्दोलन की सफलता के लिए बुजुर्गों के अनुभव और युवाओं के उत्साह का संयोग होना जरूरी होता है, अस्तु समय की माँग के अनुरूप युवा शक्ति को नवसृजन आन्दोलन के लिए संगठित और नियोजित तो किया ही जाना चाहिए, किन्तु इस संदर्भ में युगऋषि के विचारों को ध्यान में रखते हुए कुछ सावधानियाँ बरतना जरूरी है । 

सामान्य रूप से लोग संगठन की विशालता को सफलता का मुख्य प्रमाण मानकर उसकी गुणवत्ता को भूलने लगते हैं । हमारा नारा है-'युग निर्माण कैसे होगा? व्यक्ति के निर्माण से ।' इसी तरह निर्माण के तीन चरण (व्यक्ति, परिवार एवं समाज) में पहला चरण व्यक्ति निर्माण है । 

युवा-युवतियों में जोश खूब होता है । एक बार लहर चल पड़े, तो वे उस दिशा में बड़ी संख्या में उमंग के साथ चल पड़ते हैं । इसलिए प्रत्यक्ष कार्यक्रमों में उन्हें लगाना आसान होता है । इसी बिन्दु पर सावधानी बरतना भी जरूरी हो जाता है । 

पूज्य गुरुदेव कहते रहे हैं कि युग परिवर्तन की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान उन्हीं का हो सकता है जो पहले स्वयं के चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार में परिवर्तन ला सकते हों । प्रत्यक्ष कार्यक्रम तो हमारे लिए व्यायाम जैसे माध्यम हैं । जैसे व्यायाम का मुख्य उद्देश्य स्वास्थ्य सुधार और शक्ति संवर्धन है, उसी तरह युग निर्माणी कार्यक्रमों का उद्देश्य आत्म परिष्कार तथा आत्मशक्ति का जागरण है । युवा पीढ़ी में स्थूल कार्यक्रमों के प्रति तो आकर्षण होता है, किन्तु आज के विचार प्रदूषण भरे माहौल में आत्म परिष्कार जैसे मूल आधारों की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता । जबकि युग निर्माण आन्दोलन के अन्तर्गत युवा संगठन का उद्देश्य मुख्य रूप से यही है कि युवा शक्ति उत्कृष्ट व्यक्तित्व सम्पन्न और आदर्श निष्ठ, चरित्र निष्ठ युग सृजेताओं के रूप में उभरे और युग परिवर्तन के लिए मजबूत नींव या स्तंभों की भूमिका निभाये । 

इसीलिए अपने युवा-संगठन की रीति-नीति प्रचलित ढर्रे से भिन्न रहनी चाहिए । युवाओं की सहज प्रवृत्ति और मिशन की आवश्यकता को ध्यान में रखकर ही युवाओं के लिए कार्य नीति बनाई गई है । इस दिशा में लगे युवा एवं प्रौढ़ परिजनों को अपने उद्देश्य और रीति-नीति को बड़ी सूझ-बूझ तथा तत्परता पूर्वक लागू करना होगा । 

विवेकपूर्ण दिशा-धारा 
यों तो युग निर्माण आन्दोलन के सर्वमान्य सूत्र काफी प्रचलित हैं-मनुष्य में देवत्व का उदय-धरती पर स्वर्ग का अवतरण । इसके लिए नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रांतियाँ हैं । इस हेतु व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण के चरण हैं । स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन के साथ ही सभ्य समाज की अवधारणा है । व्यक्तित्व विकास के लिए साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा कार्यों का नियमित अभ्यास आदि है । 

किन्तु प्रश्न वहीं आकर टिकता है कि आम युवक-युवतियों के गले इन्हें सीधे उतारा कैसे जाये? युवाओं को तो जोशीले और प्रत्यक्ष कार्यक्रम अच्छे लगते हैं । इसलिए प्रारंभ करने के लिए ऐसे सूत्र निर्धारित किए गये हैं, जिनके आधार पर युवाओं को उत्साहित-आकर्षित भी किया जा सके तथा उनमें युग निर्माण के मूल उद्देश्यों को जोड़ देना संभव हो सके । वे इस प्रकार हैं- 

चार तेजस्वी नारे 
१. स्वस्थ युवा -सबल राष्ट्र 

२. शालीन युवा-श्रेष्ठ राष्ट्र 

३. स्वावलम्बी युवा-सम्पन्न राष्ट्र तथा 

४. सेवाभावी युवा-सुखी राष्ट्र । 

इन नारों में उत्साह के साथ ऐसा दिशा-बोध भी है, जिसके आधार पर नई पीढ़ी को वांछित व्यक्तित्व-सम्पन्न बनाया जा सकता है । अभीष्ट है कि युवक-युवतियाँ स्वस्थ, शालीन, स्वावलम्बी तथा सेवाभावी बनें तथा अपने विकास को ईश्वरोन्मुख न बना पाएँ, तो राष्ट्रोन्मुख तो बना ही लें । चारों सूत्रों की विभिन्न संभावनाओं को यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है । 

१. स्वस्थ युवा- "कहा जाता है पहला सुख निरोगी काया ।" काया को धर्म साधना का आधार (शरीरमाद्यम् खलु धर्मसाधनम्) कहा गया है । युग निर्माण के सूत्रों में भी पहला चरण स्वस्थ शरीर है । इसलिए अपने संगठन में युवाओं को स्वास्थ्य साधना से जुड़ने की प्रेरणा दी जाती है । निश्चित रूप से जिस देश के युवा शरीर-मन से स्वस्थ होंगे, वह राष्ट्र सबल-मजबूत राष्ट्र बनकर उभरेगा । 

स्वास्थ्य के लिए पहले हलका योग-व्यायाम करने-कराने की प्रेरणा दी जाय । यह प्रत्यक्ष आकर्षक कार्यक्रम बन जायेगा । फिर व्यायाम के क्रम को डि्रल-कवायद जैसी बनाकर उन्हें अनुशासन में कार्य करने का संस्कार दिया जा सकता है । इसी के साथ आहार-विहार के संयमों को जोड़ने तथा हानिकारक आदतों को छोड़ने का क्रम भी चल पड़ता है । क्रमशः युवकों-युवतियों को सधे हुए स्काउट जैसा संस्कार दिया जा सकता है । 

२. शालीन युवा-युवा पीढ़ी शरीर से स्वस्थ-बलिष्ठ बने यह अच्छा है, किन्तु शरीर से बलिष्ठ तो गुण्डे और आतंकवादी भी होते हैं । इसलिए स्वस्थ होने के साथ उन्हें शालीन बनाने की भी साधना करानी होगी । पूज्य गुरुदेव का प्रसिद्ध वाक्य है- 'शालीनता बिना मोल मिलती है, किन्तु उससे सब कुछ खरीदा जा सकता है ।' शालीन व्यक्ति के प्रति समाज में विश्वास और सम्मान का भाव उभरता है । जिसके प्रति यह दो भाव होते हैं, उन्हें स्वाभाविक रूप से हर प्रकार का जन सहयोग मिलने लगता है । इसीलिए शालीनता के द्वारा सब कुछ खरीदे जाने की बात कही गई है । 

शालीनता के अन्तर्गत पहले वाणी- व्यवहार का शिष्टाचार तथा उसके बाद स्वच्छ मन के तमाम सूत्रों का अभ्यास कराया जा सकता है । निश्चित रूप से जिस देश के युवा स्वस्थ और शालीन बनेंगे, वह राष्ट्र, श्रेष्ठ राष्ट्र कहलायेगा । इसीलिए युग निर्माणी नारा है-युवा बनें सज्जन-शालीन, दें समाज को दिशा नवीन । 

३. स्वावलम्बी युवा- सच कहा जाय, तो युवाओं को सहज ही स्वावलम्बी होना चाहिए, बच्चे और बूढ़े परावलम्बी भी रहें, तो क्षम्य है । यहाँ स्वालम्बन को केवल आर्थिक स्वालम्बन तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता । वह तो एक श्रेष्ठ प्रवृत्ति है, आर्थिक स्वावलम्बन भी उसका अंग है । 

लम्बे समय तक गुलामी झेलने के कारण देखा जाता है कि आज भी युवाओं में स्वावलम्बी प्रवृत्ति की बहुत कमी है । वे अपने बूते अपना भविष्य बनाने के युवोचित पुरुषार्थ के स्थान पर समाज की अनगढ़ धारा में निरीह की तरह बहते देखे जाते हैं । 

आत्म गौरव के बोध का उनमें भारी अभाव है । वे अपने अन्दर मनुष्य होने, युवा होने, विश्व की सर्वश्रेष्ठ और सबसे पुरातन संस्कृति के वारिस होने, विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र के नागरिक होने का गौरव कहाँ अनुभव कर पाते हैं? उन्हें अपने अन्दर भरी अद्भुत दिव्य सम्पदा तथा उसके उपयोग का बोध कहाँ है? इसीलिए पश्चिम की अनगढ़ नकल करके जीवन में तमाम समस्याएँ मोल लेते रहते हैं । 

विवेक बुद्धि-हमारे लिए क्या उपयोगी और क्या अनुपयोगी है, इसका निर्णय करने की क्षमता आज कितने युवाओं में है? वे तो अनगढ़ समाज की वाहवाही के आधार पर या प्रचलित ढर्रे के आधार पर अपने लिए मार्ग बनाना चाहते हैं । स्वयं अपना हित न समझ पाते हैं, न साध पाते हैं । 

अर्थ व्यवस्था-धन के उपार्जन एवं उपयोग की दिशा में अधिकांश नई पीढ़ी परावलम्बी है । मैनेजमैन्ट के उच्च स्तरीय कोर्स कर लेने पर भी वे नौकरी ही ढूँढ़ना चाहते हैं । अपनी व्यवस्था बुद्धि और मेहनत से बड़ी कम्पनियों को भारी लाभ कराते हैं और उसका एक छोटा अंश ही वेतन के रूप में पाते हैं । पूर्व राष्ट्रपति, देशरत्न डॉ. कलाम साहब कहते रहे हैं कि हमारे युवा नौकरी खोजने वाले नहीं, नौकरी देने वाले होने चाहिए । 

इसके साथ ही जो धन कमाते हैं, उसे भी विचार पूर्वक खर्च कहाँ कर पाते हैं । अधिकांश धन परम्परागत अनगढ़ प्रदर्शन में खर्च हो जाता है । अर्थात् धन की कमाई और खर्च दोनों ही मामलों में स्वावम्बन की प्रवृत्ति दिखाई नहीं देती । यदि यह प्रवृत्ति उभारी जा सके, तो हमारी युवा प्रतिभा सारे विश्व को नया प्रकाश देने में समर्थ है ।

इसी प्रकार मनोरंजन में स्वावलम्बी हों, तो मन को खराब करने वाले मनोरंजनों के स्थान पर साहित्य, संगीत, कला परक ऐसे मनोरंजन किए जा सकते हैं, जो मनुष्य की गरिमा भी बढ़ाएँ और सुख भी । 

कहने का तात्पर्य यही है कि स्वावलम्बन एक श्रेष्ठ प्रवृत्ति है, जो युवा चेतना के लिए सहज पाने योग्य है । यह सुनिश्चित है कि जहाँ ऐसे स्वावलम्बी युवा होंगे, वह राष्ट्र हर दृष्टि से सम्पन्न बनेगा । 

४. सेवाभावी युवा- युवावस्था ऊर्जा का भंडार लेकर आती है । प्रत्येक युवक-युवती में अपनी व्यक्तिगत जरूरतें पूरी करने की तुलना में कई गुनी कार्य क्षमता-ऊर्जा होती है । यदि ऊर्जा को दिशा न दी जाय, तो वह अवांछनीय दिशा में बह जाती है । युवाओं की अतिरिक्त ऊर्जा को यदि राष्ट्रहित, समाजहित जैसे सेवाकार्यों में न लगाया जायेगा, तो वह समस्याएँ पैदा करने में ही लग जायेगी । समस्याएँ पैदा होती हैं, तो उससे न समाज अछूता रहता है, न व्यक्ति । 

इसलिए हर युवा को जहाँ शालीनता, स्वालम्बन के नाते अपनी ऊर्जा, क्षमता, साधनों को बढ़ाने-बचाने का अभ्यास कराया जाना चाहिए, वहीं अतिरिक्त क्षमता को सेवाकार्यों में लगा देने का संस्कार भी दिया जाना चाहिए । जहाँ ऐसा नहीं होगा, वहाँ की युवा शक्ति नई-नई समस्याएँ पैदा करके समाज एवं राष्ट्र को दुःखी करती रहेगी । जहाँ सेवाभावी युवापीढ़ी होगी, वहीं 'सुख बाँटो, दुःख बँटाओ' का क्रम चलेगा । राष्ट्र सुखी बनेगा । अस्तु अपने युवा आन्दोलन को इन नारों के अनुरूप विकसित करने-कराने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए । 

दो आन्दोलन 
जब युवा सेवाभावी बनेंगे, तो वे समाज हित के तमाम आन्दोलनों में भागीदारी कर सकेंगे; लेकिन युवा मानसिकता को देखते हुए उनके लिए दो आन्दोलन जरूरी हैं? 

१. व्यसन-कुरीतियों से मुक्ति-इस दिशा में अपना नारा है-'व्यसन से बचाओ-सृजन में लगाओ ।' कहने की जरूरत नहीं कि नशा, व्यसन तथा सामाजिक कुरीतियों में लगने वाले समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन को बचाकर उसका कुछ अंश भी सृजन में लगाया जा सके, तो सृजन के लिए संसाधनों की कमी न पड़े । 

२. आदर्श परिवार-आज परिवार टूट रहे हैं । उसका सबसे बड़ा खामियाजा नई पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है । पूज्य गुरुदेव ने कहा है-'बच्चों का पालन ही नहीं निर्माण भी करें' पर जहाँ परिवार भाव ही टूट रहा हो, वहाँ निर्माण की जहमत कौन उठाए? अस्तु युवकों को पारिवारिक सम्बन्धों-आदर्शों के प्रति भी जागरूक बनाया जाना है । परिवार संगठन की शुरुआत विवाह से ही होती है । इसलिए आदर्श विवाह भी इसी आन्दोलन के अंग बनेंगे । इसी आधार पर बेटे-बेटी तथा बेटी-बहू के बीच का भेद मिटेगा और नारी के प्रति होने वाले अत्याचार समाप्त हो जायेंगे । इसी आधार पर भाव-संवेदनाओं को पोषण मिलेगा तथा तमाम टेंशन-डिप्रेशनों से मुक्ति मिलेगी । 

अस्तु, हर क्षेत्र में युवाओं के प्रौढ़ मित्र-बुजुर्ग दोस्त उभरें तथा उक्त सूत्रों के आधार पर सृजनशील युवा संगठन खड़े करें ।

जन्म शताब्दी वर्ष २०११ के कार्यक्रमों का स्वरूप समझें-तैयारी करें


पूर्व समीक्षा 
युगऋषि से युगशिल्पियों का स्नेह सामयिक नहीं, जन्म-जन्मान्तरों से पल रहा है । इसलिए उनके लिए कुछ कर गुजरने की व्याकुलता मन-मस्तिष्क में सहज ही उभरती रहती है । उनकी जन्म शताब्दी को लेकर एक अनुपम उत्साह सभी के हृदयों में हिलोरें ले रहा है । इन कथनों में न कोई बनावट है और न कोई अतिशयोक्ति । 

उक्त सच्चाइयों के साथ ही हमें यह सच्चाई भी ध्यान में रखनी चाहिए कि उक्त सम्बन्धों के नाते युगऋषि-युगचेतना कुछ विशेष आशाएँ-उम्मीदें लगाये हुए हैं । समय सीमा में कुछ अनिवार्य कार्य करने, युग निर्माण के लिए अनुकूल एवं प्रभावपूर्ण वातावरण बनाने की चुनौतियाँ भी हमारे सामने खड़ी हैं । हम उन्हें नकार नहीं सकते । अपने जन्म-जन्मांतरों की प्रतिष्ठा की रक्षा और अपने नैतिक दायित्वों की पूर्ति करना हमारे अस्तित्वों को बनाये रखने के लिए जरूरी है ।

हमारे लिए यही उचित है कि हम अपनी-अपनी भूमिकाओं को समझदारी के साथ निर्धारित कर लें, ईमानदारी से उनकी पूर्ति के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का उपयुक्त अंश लगाते रहें, जिम्मेदारी के साथ परस्पर सहयोगपूर्वक आगे बढ़ें तथा बहादुरी के साथ मार्ग की बाधाओं-विषमताओं को चीरते हुए निर्धारित लक्ष्य तक आंदोलन को पहुँचायें । इन्हीं सब चरणों को पूरा करने के लिए 'उल्टी गिनती' के मुहावरे का प्रयोग पत्रिकाओं के पृष्ठों पर किया जाता रहा है । 

प्रसन्नता की बात है कि लगभग सभी क्षेत्रों के परिजनों ने प्रयाज वर्ष (२०१०-११) में जन्मशती तक के लिए कुछ सुनिश्चित लक्ष्य बना लिए हैं । कुछ बना रहे हैं अथवा लक्ष्यों का पुनर्निधारण कर रहे हैं । कार्यक्रम की तिथियाँ और उनका स्वरूप स्पष्ट हो जाने पर श्रेष्ठतर लक्ष्य निर्धारित करने और उन तक पहुँचने के उनके उत्साह में निश्चित रूप से बढ़ोत्तरी होगी । 

निर्धारित चार कार्यक्रम 
पूज्य गुरुदेव की जन्मशती के लिए वसंत पर्व २०११ से वसंत पर्व २०१२ तक का समय निश्चित किया गया है । इस अवधि में ४ कार्यक्रमों को प्राणवान ढंग से करने का निर्णय किया गया है । उनमें से दो कार्यक्रम केन्द्रीय स्तर पर होंगे तथा दो कार्यक्रम क्षेत्रीय स्तर पर विकेन्द्रित सुनियोजित रूप से किये जाएँगे । 

केन्द्रीय कार्यक्रमों के अंतर्गत पहला कार्यक्रम २० फरवरी को दिल्ली के किसी स्टेडियम में किया जायेगा । इस कार्यक्रम का प्रारूप महापूर्णाहुति के क्रम में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में हुए कार्यक्रम के ढंग का होगा । 

दूसरा कार्यक्रम ७ से ११ नवम्बर की तिथियों में हरिद्वार में किया जायेगा । इसका प्रारूप सन् २००० में युगसंधि महापुरश्चरण की पूर्णाहुति के ढंग का होगा । 

उक्त दोनों कार्यक्रमों की तिथियाँ तो निश्चित कर ली गई हैं, उनके सुनिश्चित प्रारूप तथा उनमें क्षेत्रीय परिजनों की भागीदारी के विविध अनुशासन-आयाम समय रहते निश्चित करके प्रसारित कर दिये जायेंगे । इनसे संबंधित विविध व्यवस्थाओं की जिम्मेदारियाँ भी पहले की तरह क्षेत्र की प्रामाणिक-अनुशासित संगठित इकाइयों को समय रहते सौंप दी जायेगी । 

क्षेत्रीय कार्यक्रमों के प्रारूप गुरुवर की आकांक्षा के अनुरूप श्रद्धा साधनापरक बनाये गये हैं । गुरुदेव की हीरक जयंती के समय वे सूक्ष्मीकरण साधना में थे । वन्दनीया माताजी ने उनकी इच्छानुसार हीरक जयंती कार्यक्रम की रूपरेखा एक पुस्तिका के रूप में प्रसारित की थी । उसमें उसे सृजनशील साधनामय बनाने का आग्रह था । 

क्षेत्रीय दोनों कार्यक्रमों के प्रारूप इस प्रकार हैं- 
१- जन्मशती उत्सव- पूज्य गुरुदेव वसंत पंचमी को ही अपना जन्मदिन मनाते रहे हैं, इसलिए इस उत्सव का आरंभिक कार्यक्रम २०११ के वसंत पर्व ८ फरवरी को होगा । सामान्य रूप से यह तीन दिन चलेगा । इसे अपने संगठन की सभी छोटी-बड़ी इकाइयाँ एक साथ, एक अनुशासन के साथ सम्पन्न करेंगी । विकेन्दि्रत कार्यक्रम का लाभ यह होगा कि हर क्षेत्र के परिजन और श्रद्धालु इनमें सहजता से भाग ले सकेंगे । 

* प्रभात फेरियाँ - दिनांक ६ फरवरी रविवार को सभी जगह-प्रभात फेरियाँ अथवा शोभा यात्राएँ, कलश यात्राएँ निकाली जायेंगी । नगरों में प्रातः अनेक प्रभात फेरियाँ मोहल्ले-मोहल्ले में निकाली जा सकती हैं । दोपहर बाद एक शोभायात्रा-कलशयात्रा, झाँकियों सहित संयुक्त रूप से निकाली जानी चाहिए । 

* अखण्ड जप - दिनांक ७ को प्रातःकाल ६ बजे से ८ तारीख को प्रातः ६ बजे तक के लिए अखण्ड जप रखा जायेगा । इसे नगरों, ग्रामों में अपनी संगठित इकाइयों के स्तर पर जगह-जगह चलाया जाना चाहिए । साधना स्थल पर कलश, दीपक, मशाल, ऋषियुग्म सहित देव मंच स्थापित हो । बाहर द्वार पर 'युगऋषि जन्मशती उत्सव' का तथा देवमंच पर 'सबके लिए सद्बुद्धि-सबके लिए उज्ज्वल भविष्य' का बैनर रहे । गायत्री परिजनों के अतिरिक्त अन्य श्रद्धालुओं को भी इस हेतु सामूहिक जप के लिए आमंत्रित किया जाय । वे गायत्री मंत्र जपें, तो सबसे उत्तम अन्यथा उन्हें बैनर में अंकित भावना के साथ अपने इच्छित मंत्र या नाम के जप की छूट दी जा सकती है । जप के लिए परिजनों की टोलियाँ सुनिश्चित रहें । अन्य श्रद्धालु सुविधानुसार समय पर आते-जाते रह सकते हैं । 

* नवयुग स्वागत दीपदान- दिनांक ७ को ही शाम को सूर्यास्त के बाद नगर-ग्राम के सभी घरों में नवयुग स्वागत के भाव से कम से कम ५-५ दीपक प्रज्वलित किए जाएँ । इसके लिए पहले से ही जन-जन को प्रेरित-संकल्पित कराया जाय । 

* यज्ञ-श्रद्धांजलि - दिनांक ८ को प्रातः ६ बजे जप समाप्त कर दिया जाय । वहीं ७ बजे से सामूहिक यज्ञ-श्रद्धांजलि का क्रम चलाया जाय । यह क्रम सभी जगह प्रातः ७ से १० बजे के बीच होगा । यज्ञकुण्ड अथवा वेदियों की संख्या भागीदारों की संख्या के अनुसार १ से ९ तक रखी जा सकती है । 

देवपूजन के बाद अग्नि स्थापन के पहले गुरुसत्ता को व्यक्तिगत एवं सामूहिक श्रद्धांजलियाँ अर्पित की जायें । सामूहिक रूप से प्रयाज वर्ष में जो विभिन्न लक्ष्य बनाये गये थे, उनमें सफलता की रिपोर्ट पढ़ी जाय । हर साधक-परिजन ने प्रयाज वर्ष में अपनी ईश उपासना, जीवन साधना तथा लोक आराधना में क्या प्रगति की तथा अनुयाज वर्ष के लिए क्या निर्धारण किया? इसे पहले से नोट करके रखें । एक प्रति स्मृति पत्र के रूप में अपनी पूजा स्थली पर रखें तथा एक प्रति श्रद्धांजलि रूप अर्पित करें । 

इसके बाद अग्नि स्थापन करके यज्ञ किया जाय । साधकों की संख्या के अनुसार एक या अधिक पारियाँ चलाई जायें । बाद में आरती-पुष्पांजलि करके यज्ञ का समापन करें । 

प्रसाद में युगऋषि की इच्छा के अनुरूप अमृताशन की ही व्यवस्था रखी जाय । 

* युग निर्माण सम्मेलन दीपयज्ञ - उसी दिन शाम को ५ से ७ या ६ से ८ बजे के बीच ग्राम, नगर के अथवा शक्तिपीठों के स्तर पर युग निर्माण सम्मेलन एवं दीपयज्ञ का आयोजन किया जाय । नगर के तमाम श्रद्धालुओं, प्रबुद्धों, विभिन्न संगठनों के सूत्र पुरुषों को उसमें आमंत्रित किया जाय । 

मंच से युग संगीत के बाद गुरुसत्ता के क्रांतिदर्शी-युगऋषि वाले स्वरूप को खोला जाय । विभिन्न संगठनों-सम्प्रदायों के प्रगतिशील विचार के प्रतिनिधियों को भी वक्ता के रूप में बुलाया जाय । उन्हें युग निर्माण योजना तथा सत्संकल्प के सूत्र विभिन्न भाषाओं में पहले से दे दिये जायें तथा उस संदर्भ में उन्हें विचार व्यक्त करने को कहा जाय । 

अंत में युग निर्माण के सूत्रों को जीवन में धारण करने की अपील के साथ प्रतीकात्मक दीपयज्ञ कराया जाय । जिन अन्य संगठनों के साथ विभिन्न आन्दोलनों को गति देने की सहमति बने, उसकी घोषणा की जाय तथा आभार प्रदर्शन के साथ आरती करके कार्यक्रम सम्पन्न किया जाय । 

२ सृजन साधना महापुरश्चरण की पूर्णाहुति - युगऋषि की जन्म शताब्दी के दो वर्ष पूर्व से परिजनों को 'सृजन साधना महापुरश्चरण' चलाने के लिए संकल्पित कराया जा चुका है । उसके अंदर जप और व्रत के अनुशासन इस प्रकार रहे हैं - 

जप - प्रातः ६ से ६.३०, दोपहर १.३० से २.०० तथा शाम ६.०० से ६.३० बजे तक कम से कम किसी एक अवधि में सामूहिक सृजन चेतना जागरण के भाव से सामूहिक जप में भाग लेना । 

व्रत - सामान्य साधक युग निर्माण सत्संकल्प के सूत्रों को कसौटी मानकर अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत-उन्नत बनाने के सुनिश्चित व्रत लें । व्रतधारी साधक युग निर्माण सत्संकल्प के साथ 'अपने अंग-अवयवों से' नामक पत्रक के र्निदेशों को भी अपनी जीवन साधना की कसौटी मानें । दोनों ही वर्ग गहन आत्म समीक्षा करते हुए आत्म शोधन, आत्म निर्माण एवं आत्म विकास की उच्चतर सीढ़ियों पर आगे बढ़ें ।

निर्धारित नियमों के अनुसार नैष्ठिक परिजनों ने जगह-जगह सामूहिक साधना का क्रम चलाया भी है । इस साधना में भाग लेने वाले सभी साधक साधना की पूर्णाहुति चैत्र नवरात्रि की पूर्णाहुति के साथ (रामनवमी १२ अप्रैल) को करेंगे । यह पूर्णाहुति भी सभी छोटी-बड़ी संगठित इकाइयों में एक साथ प्रातः ७ से १० तक सम्पन्न की जायेगी ।

सृजन साधना महापुरश्चरण के जो साधक नवरात्रि साधना में शामिल होंगे, वे तो सहज ही पूर्णाहुति में भाग ले लेंगे । जो किसी कारण नवरात्रि साधना में भाग न ले सकें, वे साधना स्थल पर निर्धारित समयों में से किसी एक अवधि में आधा घंटे के जप में शामिल रहें तथा अंतिम दिन पूर्णाहुति में भागीदार बनें । 

प्रयाज को प्राणवान बनायें 
युगऋषि की जन्म शताब्दी पर उन्हें प्रसन्न करने के प्रयाज के लक्ष्यों को श्रेष्ठतर तथा प्रयासों को प्राणवान बनाने के लिए प्राणपण से पुरुषार्थ किये जायें । उन सूत्रों को पुनः स्मरण करके उन्हें निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचाने की व्यवस्था बनाई जानी चाहिए । मुख्य सूत्र इस प्रकार हैं- 

-जो उन्होंने मुँह खोलकर माँगा, वह हम दिल खोलकर कर दें ।

- प्रज्ञा परिजन कम से कम दो करोड़ (क्षेत्र की कुल आबादी का दो प्रतिशत) 

- प्रज्ञापुत्र-अग्रदूत कम से कम दो लाख । 

- युग निर्माण के लिए हमारे (युगऋषि के) विचारों को जन-जन तक पहुँचायें । युग निर्माण सभी के लिए है, सभी सृजनशील संगठनों और सृजनशील प्रतिभाओं की उसमें सुनिश्चित भागीदारी हो । 

उक्त प्रयोजनों की पूर्ति के लिए दो जेबी पुस्तिकाएँ- 'दीक्षित-नैष्ठिक परिजन चढ़ायें एक सार्थक श्रद्धांजलि' तथा 'युगऋषि एवं उनकी योजना को समझें-समझाएँ, लाभ उठायें' । यह दोनों पुस्तिकाओं के आधार पर उक्त आन्दोलनों को व्यापक बनाया जा सकता है । 

दो छोटे व्यापक कार्यक्रम - 

१- गायत्री महामंत्र सद्बुद्धि दाता है । सभी लोग उसे अपना सकते हैं । घर-घर पूजा स्थल पर गायत्री मंत्र तथा घर के मुख्य कक्ष में गायत्री मंत्र के भावार्थ की स्थापना कराई जाय । इसके लिए प्रेरणा पत्र पाक्षिक प्रज्ञा अभियान के १६ जून २०१० के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर छपा है । शांतिकुन्ज में गायत्री जयंती तथा गुरु पूर्णिमा पर वितरित भी किया गया है ।

२- उज्ज्वल भविष्य तक पहुँचाने वाले युग निर्माण सत्संकल्प के सूत्र तथा युगशक्ति की प्रतीक मशाल का व्याख्या वाला चित्र युगऋषि की ऐसी सार्वभौम कृतियाँ हैं, जिन्हें कोई नकार नहीं सकता । इनकी स्थापना घर-घर, कार्यालयों, विद्यालयों, सार्वजनिक स्थलों पर कराने का प्रखर अभियान चलाया जाय । 

- संगठन को समर्थ बनाकर उसके माध्यम से सप्त आन्दोलनों को गतिशील बनाना, नये क्षेत्रों में युग संदेश पहुँचाना, तपःपूत प्रशिक्षण द्वारा परिजनों के व्यक्तित्वों को ऊँचा उठाने का क्रम बनाना; इन सभी को यथाशक्ति सुनिश्चित बनाने की अपील समय-समय पर की जाती रही है । परिजन शताब्दी समारोह तक इनको बेहतर-श्रेष्ठतर लक्ष्य तक पहुँचाएँ, ऐसी अपेक्षा है ।

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