शनिवार, 7 अगस्त 2010

जीवन में 'कमाल' पैदा करना है? तो जीवन में कबीर को जाग्रत् करें

इसके लिए उनकी सराहना काफी नहीं, उनकी जीवन साधना अपनानी होगी 

[कबीर और युगऋषि में अभेद की बात नैष्ठिक परिजन भली प्रकार जानते है । कबीर जयंती (२६ जून) के संदर्भ में उन्हीं (युगऋषि) की प्रेरणा से उभरे कुछ भाव-सुमन उन्हीं के श्री चरणों में अर्पित हैं । इनकी सुगंध श्रद्धालु पाठकों, परिजनों के मन-मानस में भी उभरे, सारे वातावरण को सुवास से भर दे, ऐसी मंगल कामना सहित निवेदित ।] 

कबीर का कमाल 

सभी को पता है कि कबीर के पुत्र का नाम रखा गया 'कमाल' । इस शारीरिक संयोग के परे भी कबीर के जीवन में 'कमाल' ही होता रहा । कमाल से कम कुछ करने का जैसे उनका स्वभाव ही नहीं रहा ।

जो लोग जीवन के विकास के लिए परिस्थितियों की प्रतिकूलता का रोना रोते रहते हैं, उनके लिए कबीर का जीवन संजीवनी बूटी से किसी प्रकार कम नहीं । माता-पिता का पता नहीं, हिन्दू-मुसलमान दोनों से उपेक्षित, कोई कहे म्लेच्छ-कोई कहे काफिर, लिखना-पढ़ना सीख नहीं सके, जुलाहे का छोटा समझा जाने वाला काम करके किसी प्रकार जीवन बिताया । लौकिक रूप से उनका जीवन प्रतिकूलताओं-विसंगतियों से भरा रहा । 

लेकिन वाह रे कबीर! उन प्रतिकूलताओं-विसंगतियों की कोई शिकायत नहीं । मालिक ने जो नहीं दिया, उसे महत्त्व नहीं दिया । मालिक द्वारा मनुष्य को दी गई अद्भुत संभावनाओं को देखा-समझा और साकार कर दिखाया । कुरूप और दुर्गंधयुक्त कीचड़ जैसी परिस्थितियों में वे कमल की तरह दिव्य सौन्दर्य और सुगंध लेकर विकसित हुए । 

उनकी आँखों को स्वार्थी समाज ने कागज पर लिखा ज्ञान पढ़ने की कला भले ही नहीं सिखाई, किंतु उन्होंने अन्तःचेतना के निदेर्शों के सहारे प्रकृति तथा जीवन के गूढ़-सनातन सत्यों-रहस्यों को पढ़ने-समझने में कमाल हासिल कर लिया । इसीलिए किताबी ज्ञान के सहारे उन्हें चुनौती देने वाले कथित पंडितों को उन्होंने बड़े सहज, प्रौढ़ और आत्मीयता भरे अंदाज में यह कहकर निरुत्तर कर दिया कि 'तू कहता कागद के लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी ।' 

आजीविका के लिए हाथ से चलने वाले करघे पर कपड़ा बुनने से अधिक और कोई कौशल भले ही उन्हें नहीं सिखाया गया, किंतु उन्होंने कपड़े के ताने-बाने के सहारे जीवन के ताने-बाने का रहस्य जरूर समझ लिया । उन्होंने जीवन की चादर बुनने, इच्छित रंग में रंगने तथा उपयोग करते हुए भी उसे बेदाग रखने की अद्भुत महारत जरूर हासिल कर ली । सहज भाव से जीवन की चादर बुनने का मर्म 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया' लिखकर बता गये । 

लोग कहते रहते हैं 'चादर' ओढ़ने से मैली तो होगी ही, लेकिन जीवन साधना के ममर्ज्ञ के रूप में उन्होंने सहज अभिव्यक्ति दी कि जीवन जीना एक कला है । जीवन की चादर को यदि सावधानीपूर्वक प्रयोग में लाया जाय, तो उसे बेदाग भी रखा जा सकता है । 'दास कबीर जतन तें ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया'- है न कमाल ? 

ऐसा व्यक्ति जिसने 'मसि कागज छुओ नहिं, कलम गही नहिं हाथ' लेकिन कविता में सहज बोधगम्य पदों से लेकर 'गूढ़तम उलटबासियों' तक उनकी काव्य क्षमता में कितने प्रकार के मनोरम रंग दिखाई देते हैं? 

सामाजिक कुरीतियों पर उनके प्रहारों से लेकर ब्रह्मज्ञान की गूढ़ताओं पर काव्यमय अभिव्यक्तियाँ अपने आप में अनोखी दिखाई देती हैं । उनके जीवन के किसी पन्ने को खोलो तो उसे पढ़-समझ कर यही भाव मन से निकलते हैं कि वाकई उन्होंने हर क्षेत्र में 'कमाल' पैदा किया । 

कहत कबीर सुनो भई साधो 

जीवन में कमाल हासिल करने की कामना सभी के मन में उभरती है । कबीर अपने कमाल पैदा करने के करिश्मे छिपाना नहीं चाहते, इसीलिए वे खुला आमंत्रण देते रहते हैं - 

कबीर ने जो पाया-समझा, उसे वे सबको हस्तांतरित करने को तैयार हैं, लेकिन उसके उपयोग की आवश्यक शर्ते भी अपनी सहज भाषा में स्पष्ट करते रहते हैं । कबीर जो कह रहे हैं उसे साधु स्वभाव के, सज्जनों द्वारा ही व्यवहार में लाया जा सकता है, छल-प्रपंच करने वाले असाधु स्वभाव वालों के लिए उनके जीवन सूत्र साध्य नहीं हैं । 

यह सनातन नियम है कि आदर्श सिद्धांतों को जीवन में धारण करने के लिए पात्रता बढ़ानी पड़ती है । संगीत के राग सभी को उपलब्ध हैं, लेकिन उन्हें गा वही सकता है, जिनका गले का स्तर शुद्ध है । प्रकृति के रहस्य उसी की आँखों के सामने खुलते हैं, जिसकी दृष्टि शुद्ध है । इसी तरह जीवन के उच्च आदर्शों का पालन वही कर सकता है, जिसका जीवन पवित्र, साधुतामय है । इसीलिए कबीर अपने जीवन सूत्रों को प्राप्त करने के लिए साधु स्वभाव वालों को प्रेरित करते हैं । 

उनके इस कथन का एक भाव और निकलता है । वे कहते हैं कि हमारी बात सुनो, लेकिन केवल सुनकर ही न रह जाओ, उसे जीवन में 'साधो' । जिन्हें उनके जीवन-सूत्रों का लाभ उठाना है, उनसे वे प्यार भरा आग्रह करते हैं कि कबीर अपने अनुभव बता सकता है, सो बता रहा है; अरे भाई! उसे सुनो भी और साधो भी । 

युगऋषि के रूप में भी उनका यही आग्रह रहा है कि हमारे जीवन सूत्रों की सराहना करो या न करो, साधना जरूर करो । 

यदि हमसे अनुराग है, तो हमारी प्रशंसा के राग अलापो या न अलापो, अनुगमन के प्रयास ईमानदारी से आत्म-समीक्षा पूर्वक करो । 

यदि कबीर के थोड़े से जीवन सूत्रों को समझकर जीवन में उतारा जाय तो आज के जीवन की चकाचौंध और भटकावों से बचकर उत्कृष्ट व्यक्तित्व और श्रेष्ठ समाज के लक्ष्यों को सहज ही पाया जा सकता है । 

कबीर का नाम स्मरण 

कबीर साहब ने प्रभु नाम स्मरण को बहुत महत्त्व दिया है । युगऋषि का कथन है कि ''मनुष्य महान है, किन्तु उससे भी महान है उसका सृजेता ।'' सृजेता का, उसके अनुशासन का स्मरण जिसे है वह लौकिक मायावी भटकावों से बच जाता है । सृजेता के अनुशासन में लौकिक जीवन को सफलतापूर्वक जीता हुआ पारलौकिक जीवन की परमगति की ओर वह बढ़ता रह सकता है । जप, पाठ आदि इसीलिए किए-कराये जाते हैं । अधिकांश लोग नाम स्मरण के उद्देश्य को भूलकर कर्मकाण्ड में उलझकर रह जाते हैं । कबीर कहते हैं- 

कर में तो माला फिरे, जीभ फिरे मुख माहिं, 
मनुआ तो चहुँदिश फिरे, यह तो सुमरिन नाहिं॥ 

कबीर समझाने का प्रयास करते हैं कि मुख्य बात है प्रभु स्मरण । सुमिरन-स्मरण तो मन का विषय है । हाथ की माला और मुँह में जीभ का फिरना मन के स्मरण में सहायक तो हो सकता है, किन्तु मन से सुमिरन न हो, तो कमर्काण्ड काहे के लिए? 

उनका 'प्रभु स्मरण' नाम रूप के भेद से परे है । वे तो नाम स्मरण के माध्यम से मन को परम चेतना के स्पंदनों का अनुभव कराना चाहते हैं । इसी नाम-भेद से ऊपर उठकर परम तत्त्व के स्मरण की वे बात कहते हैं- 

हिन्दु कहै मोहि राम पियारा, तुरक कहे रहमाना । 
आपस में दोऊ लड़ि-लड़ि मूए, मरम न कोई जाना॥ 

वे नाम-रूप से परे परमात्म तत्त्व का स्मरण कराना चाहते हैं । प्रभु स्मरण से, प्रभु उपासना से मन निर्मल होने लगता है । युगऋषि ने कहा कि जब साधक का अंतःकरण शुद्ध हो जाता है, तो जैसे खिले हुए फूल के चारों ओर मधुमक्खियाँ मँडराने लगती हैं, वैसे ही दिव्य ईश्वरीय शक्तियाँ साधक की ओर आकषिर्त होने लगती हैं । कबीर उसे अपने ढंग से कहते हैं - 

कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर । 
पाछे-पाछे हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर॥ 

नाम स्मरण, जप, उपासना के प्रभाव का कैसा सुन्दर-सटीक वर्णन किया है! उनका जप मुख-वाणी से शुरू तो होता है, पर वह अंतःकरण की गहराइयों में उतर जाता है । मुख-जीभ चले न चले, पर अंतःकरण से उभरा स्मरण साधक के रोम-रोम को पुलकित कर देता है । तब वे कहते हैं - मन मस्त हुआ तब क्यों बोले? इसीलिए उनकी सलाह है कि- 

कर का मनका डार दे, मनका मनका फेर । 

युगऋषि ने कहा है- साधक में स्नेह-स्मरण की तरंगें उठती हैं, तो आवाज की अनुगूँज की तरह ईश्वरीय स्नेह की तरंगों का उसे अनुभव होता है । उस स्थिति में पहुँचकर कबीर कहते हैं- 

कबीरा माला ना जपी, मुख से कह्यो न राम । 
सुमरन मेरा हरि करे, मैं पाऊँ विश्राम॥ 

यदि कबीर के सूत्रों के अनुसार जप-स्मरण साधना करें, तो उपासना में कमाल तो होगा ही । 

कबीर की प्रेम साधना 

ईश्वर प्रेम रूप है । वह तो प्रेम उडे़लता ही रहता है । जो उसके प्रेम को ग्रहण कर पाता है, वह दिव्य सम्पदा का अधिकारी बनकर प्रेम बाँटने लगता है । वह प्रेम जितना बाँटा जाता है, दिया जाता है, उतना ही बढ़ता जाता है । ऐसा प्रेम कहाँ से मिले? कबीर अपने बेबाक अंदाज में कहते हैं- 

प्रेम न बाडी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय । 
राजा परजा जेहि रुचे, शीष देय लै जाय । 

यह बड़ी कठोर लगने वाली, परंतु बड़ी मनोरम और अनिर्वाय शर्त है । 'शीष देय' का अर्थ है अपना अहं, कत्तार्पन का अभिमान देना होगा । इससे कम में प्रेम सधता नहीं । वे प्रेम को समझना ही पाण्डित्य की, ज्ञान की साथर्कता मानते हैं । कहते हैं- 

पोथी पढि-पढि जग मुआ, पण्डित भया न कोय । 
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय । 

प्रेम के ढाई अक्षर का पहला अक्षर 'प' आधा है । दो अक्षर 'रे' और 'म' पूरे हैं । 'प' साधक की पहचान है । साधक का अस्तित्व है तभी तो प्रेम है, किन्तु अहं हो तो प्रेम कैसा होगा? इसलिए पहचान का पहला अक्षर प आधा है । अस्तित्व है-अहं नहीं । 

अगला अक्षर 'र' है । 'र' संस्कृत में प्रकाश का, चेतना का पयार्य है । र के साथ ए की मात्रा । यह र के विस्तार का भाव है । विस्तार वहाँ तक, जहाँ तक प्रकाश-चेतना के मायाकृत भेद समाप्त हो जायें-वह एक ही रह जाये । 

दूसरा अक्षर है 'म'- यह (अ+उ+म) या राम (र+आ+म) में विलय का प्रतीक है । अहंकार रहित अस्तित्व आधा प-रे के संयोग से स्वयं को चेतना का ही रूप मानें । उस भाव का विस्तार हो और वह परम चेतन के साथ एकरूप, विलय की स्थिति में पहुँचे, तब बने प्रेम ।

कबीर प्रभु स्मरण में प्रेम को मुख्य तत्त्व मानते हैं । सभी कर्मकाण्ड उसके सहयोगी भर है । साधना के विभिन्न आयामों का उन्होंने उल्लेख किया है । ध्यान में साधक मन को शून्य में स्थिर करने का प्रयास करते हैं । मन को विषय मुक्त बनाने का प्रयत्न करते हैं । कुछ साधक जप को अजपा जप, सहज जप में बदल लेते हैं । श्वास-प्रश्वास के साथ जप घुलने लगता है । कुछ साधक नादयोग की, अनहद नाद की साधना करके उसमें मन को लय करने का प्रयास करते हैं । 

कबीर के अनुसार यह सब साधन प्रभु के सान्निध्य में रस की अनुभूति के लिए हैं । ये सब रास्ते में ही रुक जाते हैं, अंत में तो केवल प्रेम-स्नेह ही रह जाता है । वे लिखते हैं- 

शून्य मरे, अजपा मरे, अनहद ह मर जाय । 
राम सनेही ना मरे, कहै कबीर समझाय॥ 

उनके अनुसार यह ढाई अक्षर वाला 'प् रे म' या स्नेह ही अमृत तत्त्व है । यह ढाई अक्षर समझ में आ जाय, आभास में उतर जाय, तो कमाल तो होगा ही । 

कबीर की वैराग्य साधना 

कबीर गृहस्थ वैरागी हैं । सम्पन्नता में उन्हें हृदयहीनता का खतरा दिखता है । इसलिए वे गाते हैं 

'मन लागो मेरो यार फकीरी में ।' 

सम्पन्नता के क्रम में हृदयहीनता आई तो प्रेम साधना खण्डित होगी । यह खतरा वे मोल नहीं लेना चाहते हैं । फकीरी-गरीबी भली । 

युगऋषि ने भी कहा है- 'गरीबी हमारी शान है ।' 

लेकिन वे अव्यावहारिक सिद्धांतवादी अतिवादी नहीं हैं । धन-साधन की भी एक सीमा तक जरूरत स्वीकार करते हैं, किन्तु उसे मर्यादित रखने के लिए प्रभु से निवेदन करते हैं- 

साई इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाय । 
मैं भी भूखा ना रहूँ, अतिथि न भूखा जाय॥ 

यह एक ऐसा अद्भुत सूत्र है, जिसका पालन समाज के हर वर्ग के व्यक्ति कर सकते हैं । संसारी को उतना तो चाहिए ही और इससे अधिक की जरूरत नहीं है । यह सूत्र समझ में आ जाये, तो वतर्मान समय में मनुष्य के लिए तमाम मुसीबतें पैदा करने वाली धन की अनगढ़ होड़ सहज ही समाप्त हो जाय । जितने धन साधन है, उन्हीं में सब स्नेह-सुख शांति के साथ रहने में समर्थ हो जाएँ ।

परिजनों में सुसंस्कार जगाएँ, यज्ञीयभाव से अनुप्राणित अन्न खायें-खिलायें ।

समस्या व्यक्ति निर्माण की 

उज्ज्वल भविष्य की कामना सभी करते हैं, किन्तु उसके लिए उज्ज्वल चरित्र सम्पन्न व्यक्ति चाहिए । जिनके मन-मस्तिष्क में हीन भाव और ओछे विचार भरे हैं, उनसे उज्ज्वल भविष्य के निर्माण की आशा कैसे की जा सकती है? अच्छे व्यक्ति सबको चाहिए, परन्तु उन्हें गढ़ा, खरादा कहाँ जाय? 

युगऋषि ने इस समस्या का समाधान दिया है । इसीलिए उन्होंने व्यक्ति निर्माण के साथ परिवार निर्माण की जरूरत बताई है । परिवार को उन्होंने व्यक्ति निर्माण की टकसाल, चरित्र निर्माण की प्रयोग शाला-व्यायामशाला तथा समाज निर्माण की सक्रिय, मजबूत इकाई कहा है । जो लोग युग निर्माण की ईश्वरीय योजना में सार्थक, सुनिश्चित, टिकाऊ योगदान करना चाहते हैं, उन्हें परिवारों को युगऋषि द्वारा बतलाई गई उक्त परिभाषाओं के अनुरूप बनाना चाहिए । 

सृजनकार्य कामनाओं के ख्वाब देखने से नहीं सधते, उसके लिए तो तप और कौशल का विकास और प्रयोग करना होता है । परिवार में ऐसा वातावरण बनाना होता है, जो जाने-अनजाने सभी के मन-अंतःकरण पर धीरे-धीरे अपना प्रभाव छोड़ता रहें । 

ऐसा वातावरण घर-परिवार में बनाने के लिए ऋषि ने पाँच सूत्र दिए हैं - १. पूजा स्थल पर नमन-वन्दन २. सामूहिक प्रार्थना का क्रम ३. पारिवारिक सत्संग ४. नित्य प्रणाम-अभिनन्दन का क्रम तथा ५. बलिवैश्व प्रक्रिया का पालन । 

इनके उद्देश्य और स्वरूप निम्नानुसार हैं - 

१. नमन-वन्दन - घर के किसी उपयुक्त स्थल पर पूजा का छोटा-बड़ा स्थान हो । वहाँ गायत्री माता का चित्र रहे अथवा परम्परागत पूजागृहों में कम से कम गायत्री महामंत्र की स्थापना हो । जो सदस्य नियमित उपासना करते हों, वे उपासना क्रम में गायत्री मंत्र का जप अवश्य करें । मंत्र जप अथवा इष्ट नाम जप के साथ भावना करें ''हे परमात्मा! हम सबको सद्बुद्धि दें, उज्ज्वल भविष्य के मार्ग पर आगे बढ़ाएँ ।'' परिवार के बाकी सदस्य अपने मुख्य कार्य पर जाने के पहले या भोजन के पहले वहाँ मस्तक झुकाकर अपने लिए और सबके लिए उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना करके जायें । पू. गुरुदेव ने कहा है ''मनुष्य महान है, और उससे भी महान है उसका सृजेता ।'' उसके साथ भावभरा सम्पर्क बनाये रहने से व्यक्ति के अंदर महानता के बीज विकसित होने लगते हैं । 

२. सामूहिक प्रार्थना - अनुभवी संतों का मत है कि जो एक साथ प्रार्थना करते हैं, वे आपस में प्यार-सहकार पूर्वक साथ-साथ बने रहते हैं । हो सके तो रोज शाम को, नहीं तो कम से कम सप्ताह में एक बार साथ-साथ प्रार्थना, आरती, भजन करें । पाँच या एक दीपक जलाकर दीपयज्ञ के साथ यह क्रम सरसता एवं सरलता से चल जाता है । क्रम पूरा होने पर सब अपने से बड़ों को प्रणाम करें, बड़े छोटों को स्नेह-आशीष दें । 

३. पारिवारिक सत्संग -इसे भी नित्य या साप्ताहिक सत्संग के साथ जोड़ा जाना उपयोगी रहता है । स्थिति के अनुसार अलग से भी इसका क्रम चलाया जा सकता है । आजकल फिल्म, टीवी, विभिन्न घटनाक्रमों आदि से हीन विचारों का आक्रमण तो होता ही रहता है । उनसे बचने का उपाय यही है कि घर-परिवार में सत्संग, कथाओं, उदाहरणों के माध्यम से मन-मस्तिष्क में अच्छे विचारों, भावों का संचार किया जाता रहे । 

४. नित्य प्रणाम-अभिनन्दन -सबेरे उठकर अथवा स्नान या पूजा के बाद अपने से सभी बड़ों को झुककर प्रणाम करें । बड़े छोटों को स्नेह-आशीष देते हुए उनके द्वारा किए गये अच्छे कामों की सराहना करें या वैसी प्रेरणा दें । 

५. बलिवैश्वदेव प्रक्रिया -यह यज्ञ का ऐसा सुगम स्वरूप है, जिसे हर कोई सहजता से कर सकता है । इसी के साथ इसका महत्त्व असाधारण है! इसके अन्तर्गत पकाए गये भोजन का एक अंश यज्ञ भगवान को अर्पित करने के बाद ही भोजन किया/कराया जाता है! 

असाधारण महत्त्व 

एक प्रसिद्ध कहावत है 'जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन ।' अन्न के स्थूल गुणों से शरीर का पोषण होता है तथा उसके अन्दर सन्निहित सूक्ष्म भावों-संस्कारों के अनुरूप मन का विकास होता है । अन्न में यज्ञीय भावना और यज्ञीय प्रक्रिया से श्रेष्ठ मन बनाने योग्य संस्कार स्थापित किए जा सकते हैं । 

गीता ३/१० में कहा गया है-''प्रजापति ने यज्ञ और प्रजा को साथ-साथ रचा और प्रजा से कहा कि तुम यज्ञ की आराधना करो, यह तुम्हारी इष्ट अवश्यकताएँ पूरी करेगा ।'' स्पष्ट है कि प्रजा को अपने वाञ्छित विकास के लिए यज्ञ का सहारा लेना जरूरी है । 

परमार्थ, त्याग, सहकार युक्त श्रेष्ठ कर्म को यज्ञ कहते है । अन्न में यज्ञीय संस्कार होगा, तो उसे खाने वाले का मन श्रेष्ठ बनेगा । यदि यज्ञीय भाव की उपेक्षा की गई, तो भोजन में केवल अपने संकीर्ण स्वार्थ और सुख के हीन संस्कार बस जायेंगे । उससे विकसित मन कभी श्रेष्ठ कर्मों में रस नहीं लेता । 

गीताकार ने कहा है - 

यज्ञ से शेष बचे अन्न को खाने वाले सज्ज्ान सभी पाप कर्मों से मुक्त हो जाते हैं । जो केवल अपने लिए ही पकाते हैं, वे तो पाप ही खाते हैं । (गीता ३/१३३) 

इसीलिए पूज्य गुरुदेव ने वांङ्मय (२६/६.५) में लिखा है -''दैनिक उपासना में केवल गायत्री जप ही पर्याप्त नहीं है, अग्निहोत्र भी उसके साथ चलना चाहिए । यज्ञ करने में जन सामान्य को जो कठिनाइयाँ (समय, अधिक खर्च, संसाधन, कठिन विधान)आती हैं, इन सबका निवारण बलिवैश्व में हो जाता है । इस सर्वसुलभ प्रक्रिया को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए । 

सुगम विधि-विधान 

बलिवैश्व की महत्ता बहुत बड़ी है और विधि-विधान बहुत सुगम है । इसे घर में गृहणियाँ बड़ी सहजता से कर सकती हैं । प्रक्रिया इस प्रकार है - 

- इष्टदेव को भोग लगाने के भाव से सफाई एवं पवित्र भावना के साथ भोजन पकाया जाय । 

-पकाए हुए भोजन में से नमक, मिर्च-मसाले वाले पदार्थ छोड़कर, फीके या मीठे पदार्थों में से थोड़ा-सा अंश एक साफ तश्तरी में निकाल लें । उसमें थोड़ा-सा घी, शक्कर अथवा हवन सामग्री मिलाकर उसकी बड़े चने के आकार की ५ गोलियाँ बना लें । 

-यदि चूल्हे में ईंधन जलाकर भोजन बनाया गया है, तो उसमें से कुछ अंगारे किसी मिट्टी के सकोरे या धातु के चौड़े पात्र में रख लें । फिर नीचे लिखे क्रम से पाँच आहुतियाँ भावनापूर्वक दें । 

गायत्री मंत्र बोलकर स्वाहा के साथ पहली आहुति होमें तथा कहें-इदं ब्रह्मणे इदं न मम । दूसरी आहुति इसी प्रकार होमकर कहें-इदं देवेभ्यः इदं न मम । तीसरी आहुति के बाद कहें-इदं ऋषिभ्यः इदं न मम । चौथी आहुति के बाद कहें-इदं नरेभ्यः इदं न मम । पाँचवी आहुति के बाद कहें-इदम् भूतेभ्यः इदं न मम । 

पाँचों आहुतियों के बाद अग्नि के चारों और जल फेर कर हवन पात्र को एक ओर रख दें । अन्न भस्म हो जाने, अग्नि शांत हो जाने पर उस भस्म को तुलसी के गमले या किसी पवित्र स्थल पर वृक्ष की जड़ में डाल दें । 

यदि स्टोव पर या गैस के बर्नर पर भोजन पकाया जाता हो, तो भी यह आहुतियाँ सहजता से दी जा सकती हैं । लोहे की मजबूत जाली वाली छन्नी को लौ के ऊपर करके आहुतियाँ डाली जा सकती हैं । कोई धातु का कम गहरा पात्र सड़ासी से पकड़ कर लौ पर करे अथवा सब्जी चलाने के धातु के चमचे, जिसमें बघार आदि लगाए जाते हैं, उसे लौ पर रखकर आहुतियाँ दी जा सकती हैं । शान्तिकुंज में तांबे का एक ऐसा पात्र भी तैयार किया गया है, जिसे गैस पर रख कर उसमें आहुतियाँ समर्पित की जा सकती हैं । सभी प्रयोग करके देखे गये हैं और सफल हैं । अपनी सुविधानुसार किसी को भी अपनाया जा सकता है । 

पंच महायज्ञ 

बलिवैश्व की ५ आहुतियों को पंच महायज्ञ कहा गया है । यों तो किन्ही बहुत बड़े यज्ञों को महायज्ञ कहा जाता है, किन्तु इस छोटे से सुगम क्रम को महायज्ञ क्यों कहा गया? यह बात अजीब सी लगती है । ध्यान देने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यहाँ यज्ञीय कर्मकाण्ड के प्रतीक को नहीं, उसके पीछे के तत्त्वदर्शन को महत्व दिया गया है । 

उक्त पाँच आहुतियाँ क्रमशः ब्रह्म, देव, ऋषि, नर (मनुष्य) एवं भूत (लघु जीवों) के निमित्त दी गई हैं । इन्हें क्रमशः १ ब्रह्मयज्ञ, २. देवयज्ञ, ३. ऋषियज्ञ ४. नरयज्ञ तथा ५. भूतयज्ञ कहा गया है । इस प्रसंग में पूज्य गुरुदेव वांङ्मय क्र. २६/६.३ में लिखते हैं - 

पंच महायज्ञों में जिन ब्रह्म, देव, ऋषि आदि का उल्लेख है, उनके निमित्त आहुति देने का अर्थ इन्हें अदृश्य व्यक्ति मानकर भोजन कराना नहीं, वरन् यह है कि इन शब्दों के पीछे जिन देव वृत्तियों का, सत्प्रवृत्तियों का संकेत है, उनके अभिवर्धन के लिए अंशदान करने की तत्परता अपनाई जाय । 

१. ब्रह्मयज्ञ का अर्थ है ब्रह्मज्ञान-आत्मज्ञान की प्रेरणा । ईश्वर और जीव के बीच चलने वाला पारस्परिक आदान-प्रदान । 

२. देवयज्ञ का उद्देश्य है-पशु से मनुष्य तक पहुँचाने वाले प्रगतिक्रम को आगे बढ़ाना । देवत्व के अनुरूप गुण, कर्म, स्वभाव का विकास-विस्तार । पवित्रता और उदारता का अधिकाधिक संवर्धन । 

३. ऋषियज्ञ का तात्पर्य है-पिछड़ों को अपने में संलग्न करुणार्द्र जीवन-नीति, सदाशयता संवर्धन की तपश्चर्या । मानवी गरिमा के अनुरूप वातावरण एवं समाज व्यवस्था का निर्माण । मानवी गरिमा का संरक्षण । नीति और व्यवस्था का परिपालन, नर में नारायण का उत्पादन । विश्वमानव का श्रेय साधन । 

५. भूतयज्ञ की भावना है-प्राणिमात्र तक आत्मीयता का विस्तार । अन्यान्य जीवधारियों के प्रति सद्भावना पूर्ण व्यवहार । वृक्ष-वनस्पतियों तक के विकास का प्रयास । 

इन पाँचों प्रवृत्तियों में व्यक्ति और समाज की सर्वतोमुखी प्रगति पवित्रता और सुव्यवस्था के सिद्धांत जुड़े हुए हैं । उन्हें उदात्त जीवन नीति के सूत्र कह सकते हें । जीवनचर्या और समाज व्यवस्था में इन सिद्धांतों का जिस अनुपात में समावेश होता जाएगा, उसी क्रम से सुखद परिस्थितियों का निर्माण निर्धारित होता चला जाएगा । बीज छोटा होता है, किन्तु उसका फलितार्थ विशाल वृक्ष बनकर सामने आता है । चिनगारी छोटी होती है, अनुकूल अवसर मिलने पर वही दावानल का रूप धारण कर लेती है । गणित के सूत्र छोटे होते हैं, पर उनसे जटिलताएँ सरल होती चली जाती हैं । अणु-जीवाणु-शुक्राणु तनिक से होते हैं, पर जब भी उन्हें अपना पराक्रम दिखाने का अवसर मिलता है, चमत्कारी प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं । 

मोटी दृष्टि से देखने में बलिवैश्व यज्ञ का बहुत अधिक महत्त्व दिखाई नहीं देता । उसे करने में न कोई बड़ा लाभ होता है और न करने पर किसी हानि की संभावना दिखाई नहीं पड़ती । पर यदि बारीकी से देखा जाय, तो प्रतीक तुच्छ होते हुए भी उसके पीछे काम करने वाली प्रेरणा अति महान है । प्रश्न आस्था की प्रतिष्ठापना का है । धर्मकृत्य तो उसके प्रतीक भर होते हैं । इसलिए उसका नाम भी प्रतीक पूजा ही है । प्रतीक अर्थात् प्रतिनिधि देवताओं की आकृतियाँ एवं प्रतिमाएँ आँख से देखने पर कौतुक-कौतूहल जैसी लगती हैं, पर उनके पीछे श्रद्धा को बढ़ाने और जगाने वाले जो तत्व जुड़े हुए हैं, उन्हीं को शास्त्रकारों ने प्राण-प्रतिष्ठा कहा है । प्राण-प्रतिष्ठा न होने से प्रतिमाएँ खिलौना भर रह जाती हैं । देवत्व तो श्रद्धा में ही सन्निहित है । बलिवैश्व को देव प्रतिमा और उसके क्रिया कृत्य को देवाराधन माना जाय, तो निश्चित ही उससे वही उद्देश्य पूरा होगा, जो विशालकाय धर्मानुष्ठानों होता है । 

वर्तमान युग में आस्था संकट ही समस्त विपत्तियों का तात्विक कारण है । अनास्था ने ही उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता की मान्यताओं और परम्पराओं को उलट दिया है, फलतः मनुष्य जाति के सामने अगणित विभीषिकाएँ उठ खड़ी हुई हैं । उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए आस्था संकट से जूझना ही प्रमुख कार्य है । उसी दिशा में एक रचनात्मक कदम बलिवैश्व परम्परा का पुनर्जीवन है ।

-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

ये तो सच है के भगवान है


ये तो सच है के भगवान है है मगर फिर भी अन्जान है
धरती पे रूप माँ बाप का उस विधाता की पहचान है
ये तो सच है के ...

जन्मदाता हैं जो नाम जिनसे मिला
थामकर जिनकी उंगली है बचपन चला
ओ कांधे पर बैठके जिनके देखा जहां
ज्ञान जिनसे मिला क्या बुरा क्या भला
इतने उपकार हैं क्या कहें ये बताना न आसान है
धरती पे रूप ...

जन्म देती है जो माँ जिसे जग कहे
अपनी संतान में प्राण जिसके रहें
ओ लोरियां होंठों पर सपने बुनती नज़र
नींद जो वार दे हँस के हर दुख सहे
ममता के रूप में है प्रभू आपसे पाया वरदान है
धरती पे रूप ...

आपके ख्वाब हम आज होकर जवां
उस परम शक्ति से करते हैं प्रार्थना
ओ इनकी छाया रहे रहती दुनिया तलक
एक पल रह सकें हम न जिनके बिना
आप दोनों सलामत रहें सबके दिल में ये अरमान है
धरती पे रूप ...
आप भी जनमानस परिष्कार मंच के सदस्य बन कर युग निर्माण योजना को सफल बनायें।

बच्चे मन के सच्चे

बच्चे मन के सच्चे 
सारी जग के आँख के तारे
ये वो नन्हे फूल हैं जो 
भगवान को लगते प्यारे 

खुद रूठे, खुद मन जाये, फिर हमजोली बन जाये 
झगड़ा जिसके साथ करें, अगले ही पल फिर बात करें 
इनकी किसी से बैर नहीं, इनके लिये कोई ग़ैर नहीं 
इनका भोलापन मिलता है, सबको बाँह पसारे 
बच्चे मन के सच्चे ... 

इन्ससान जब तक बच्चा है, तब तक समझ का कच्चा है 
ज्यों ज्यों उसकी उमर बढ़े, मन पर झूठ क मैल चढ़े 
क्रोध बढ़े, नफ़रत घेरे, लालच की आदत घेरे 
बचपन इन पापों से हटकर अपनी उमर गुज़ारे
 बच्चे मन के सच्चे ... 

तन कोमल मन सुन्दर हैं बच्चे बड़ों से बेहतर 
इनमें छूत और छात नहीं, झूठी जात और पात नहीं 
भाषा की तक़रार नहीं, मज़हब की दीवार नहीं 
इनकी नज़रों में एक हैं, मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे 
बच्चे मन के सच्चे ... 

'मैं' की मृत्यु

एक संन्यासी ने मुझ से कहा, 'मैं प्रभु के लिए सब छोड़ आया हूं और अब मेरे पास कुछ भी नहीं है।'

मैं देखता हूं कि सच ही उनके पास कुछ भी नहीं है, पर उनसे कहता हूं कि वह जो छोड़ना था- और वही अकेला था, जो कि छोड़ा जा सकता था- वह अब भी उनके पास है!

वे अपने चारों ओर देखते हैं। सच ही उनके पास कुछ नहीं है, जो है, उनके भीतर है। वह उनकी आंखों में है। वह उनके त्याग में है। वह उनके संन्यास में है। वह 'मैं' है। उसे छोड़ना ही अकेला छोड़ना है। क्योंकि शेष सब छीना जा सकता है और अंतत: मृत्यु सब छीन ही लेती है। 'मैं' को कोई नहीं छीन सकता, उसे तो केवल छोड़ा ही जा सकता है, उसका त्याग ही केवल त्याग है।

इसलिए प्रभु को समर्पित करने योग्य मनुष्य के पास 'मैं' के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। शेष जो भी वह छोड़े, वह केवल छोड़ने के भ्रम में है, क्योंकि वह उसका था ही नहीं। और इस सब छोड़ने से उलटे उसका 'मैं' और प्रगाढ़ और घनीभूत हो जाता है। 'मैं' केंद्र से यदि कोई अपना समस्त जीवन भी प्रभु को दे दे, तो भी वह देना नहीं है। 'मैं' को दिये बिना और कुछ भी देना, देना नहीं है।

'मैं' एकमात्र अपरिग्रह है। 'मैं' एकमात्र संसार है। उसे जो छोड़ता है, वही अपरिग्रही है, वही संन्यासी है।

'मैं' संसार है। 'मैं' का अभाव संन्यास है।

'मैं' को दे देना वास्तविक धार्मिक क्रांति और परिवर्तन है। क्योंकि उसके रिक्त स्थान में ही वह आता है, जो कि मेरा 'मैं' नहीं वरन् सर्व का 'मैं' है।

सिमोन वेल का कथन मुझे बहुत प्रिय है, जिसमें उसने कहा है कि प्रभु के अतिरिक्त किसी को भी 'मैं' कहने का कोई अधिकार नहीं है।'

सच ही 'मैं' कहने का अधिकार केवल उसे ही है, जो कि समस्त सत्ता का केंद्र है। पर उसे 'मैं' कहने का कोई कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उसके लिए सब 'मैं' ही है। जिसे अधिकार है, उसे कहने का कारण नहीं है, और जिसे कहने का कारण है, उसे कोई अधिकार नहीं है।

पर मनुष्य अपने अनाधिकार को खोकर, अधिकार को पा सकता है। वह 'मैं' होना छोड़ कर 'मैं' हो सकता है। वह अपने केंद्र के आभास को छोड़कर, सत्य केंद्र को पा सकता है। वह जिस क्षण अपने केंद्र को विकेंद्रित कर देता है, उसी क्षण केंद्र को उपलब्ध हो जाता है।

मनुष्य का 'मैं' सत्य नहीं है। वह संघात है। उसकी कोई सत्ता नहीं है। वह संग्रह है। इस संग्रह से सत्य का जो भ्रम पैदा होता है, वही अज्ञान है। पर जो इस संग्रह में झांकता है, देखता है और सत्य को खोजता है, उसके समक्ष आभास टूट जाता है। और 'मैं' की माला के फूल बिखर जाते हैं। और तब वह सूत्र उपलब्ध होता है, जो कि सत्य है और जिस पर कि 'मैं' के फूल टंगे थे और जिसे कि उन फूलों ने ढांक लिया था।

फूलों के हटाने पर- उनके आच्छादन के टूटने पर पाया जाता है कि जो उनका आधार था, वह मेरा ही नहीं है, वह मुझ में और सब में भी है। वह समस्त सत्ता में पिरोया हुआ है।

जो 'मैं' की इस मृत्यु से नहीं गुजरता है, वह परमात्मा के जीवन से वंचित रह जाता है। 'मैं' की मृत्यु - परमात्मा से, सत्य से, सत्ता से, हमारे भेद और अंतर की मृत्यु है। उसके गिरते ही वह फासला गिर जाता है, जो कि हमें स्वयं हमसे ही तोड़े हुए था। और वह व्यक्ति धन्यभागी है, जो शरीर की मृत्यु के पूर्व इस मृत्यु को उपलब्ध होता है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

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