मंगलवार, 3 अगस्त 2010

सम्राट अशोक

विश्व इतिहास में कई महानायक हुए हैं जिनकी कीर्ति विश्व में फैली। एक इतिहासकार के अनुसार 'किसी व्यक्ति के यश और प्रसिद्धि को मापने का मापदंड असंख्‍य लोगों का हृदय है - जो उसकी पवित्र स्मृति को सजीव रखता है और जो अगणित मनुष्यों की वह जिह्वा है जो उसकी कीर्ति का गान करती है।

उन्हें विश्व इतिहास में 'महान' की उपाधि से विभूषित किया है। आज भी इतिहास ग्रंथों में उनका नाम इसी उपाधि के साथ प्रत्यय के साथ मिलता है। 'महान' कही जाने वाली ये तीन‍ विभूतियाँ हैं अशोक महान, सिकंदर महान और अकबर महान। यहाँ प्रस्तुत है अशोक महान के प्रेरक चरित्र एवं आदर्शों की संक्षिप्त झाँकी।

सम्राट अशोक मौर्यवंश का तीसरा राजा था। उसके पिता का नाम बिंदुसार और माता का जनपद कल्याणी था। अशोक का जन्म लगभग 297 ई. पूर्व माना गया है। अशोक का साम्राज्य प्राय: संपूर्ण भारत और पश्चिमोत्तर में हिंदुकुश एवं ईरान की सीमा तक था।

कलिंग के भीषण युद्ध ने अशोक के हृदय पर बड़ा आघात पहुँचाया और उसने अपनी हिंसा आधारित दिग्विजय की नीति छोड़कर, धर्म विजय की नीति को अपनाया। लगभग इसी समय अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। अब सम्राट अशोक शासक और संत-दोनों का मिश्रित चरित्र था। उसने अपने साम्राज्य के सभी साधकों को लोकमंगल के कार्यों में लगा दिया था। अशोक की राजनीति धर्म और नीति से पूर्णत: प्रभावित थी। अशोक का आदर्श था - 'लोकहित से बढ़कर दूसरा और कोई कर्म नहीं है जो कुछ मैं पुरुषार्थ करता हूँ, वह लोगों पर उपकार नहीं, अपितु इसलिए कि मैं उनमें उऋण हो जाऊँ और उनको इहलौकिक सुख और परमार्थ प्राप्त कराऊँ।' 

अशोक जनता में अत्यधिक लोकप्रिय था। वह जनता को अपनी संतान के समान स्नेह करता था। जनता का सुख-दुख जानने के लिए वह वेश बदलकर भ्रमण किया करता था जिसे वह जनता के संपर्क में आकर उसके सुख को समझने का अवसर पाता था। अशोक अपनी प्रजा की भौतिक एवं नैतिक दोनों प्रकार की उन्नति चाहता था। इस कारण वह अपने शासन में नैतिकता को अधिक बल देता था।

अशोक को धर्म प्रचार के लिए, इतिहास में अधिक जाना जाता है। वह अपने धर्म प्रचार में नैतिक सिद्धांतों पर ही जोर देता था - इससे सभी धर्मों के बीच संतुलन बनाने में सरलता होती थी। अशोक ने धर्म प्रचार के लिए, नैतिक उपदेशों को प्रजा तक पहुँचाने के लिए धर्म लेखों का सहारा लिया था जो पर्वत शिखाओं, पत्‍थर के खंभों और गुफाओं में अंकित किए गए गए। अशोक ने तीन वर्ष की अवधि में चौरासी हजार स्तूपों का निर्माण कराया। इनमें सारनाथ (वाराणसी के निकट) में उसके द्वारा निर्मित स्तूप के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं।

अशोक ने देश के विभिन्न भागों में, प्रमुख राजपथों और मार्गों पर धर्म स्तंभ स्थापित किए। इनमें सारनाथ का सिंह शीर्ष स्तंभ सबसे अधिक प्रसिद्ध है। यह धर्मचक्र की घटना का स्मारक था। सारनाथ की सिंह मुद्रा को भारत सरकार का राज्य चिह्न स्वीकार किया गया है। अशोक संसार के उन सम्राटों में था जिसने धर्म-विजय के द्वारा संपूर्ण देश एवं पड़ोसी देशों में अहिंसा, शांति, मानव कल्याण एवं मानव प्रेम का संदेश जन-जन तक पहुँचाया।

इसी के साथ अशोक की धर्म विजय में लोकोपकारी कार्यों का समावेश भी हुआ। सड़कों का निर्माण, उसके किनारे वृक्षों का आरोपण, विश्राम शालाओं और प्याऊ निर्माण, सुरक्षा आदि का समुचित प्रबंध था। जनता सुखी एवं धर्मपरायण थी। 

अशोक ने पूरे विश्व में बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ शांति, अहिंसा एवं प्रेम का जो व्यापक प्रचार किया, उससे उसे सर्वत्र प्रशंसा मिली। अशोक के समय में पूरे विश्व में युद्ध, रक्तपात, हिंसा और अराजकता का साम्राज्य था। अशोक ने ऐसे उथलपुथल वाले सागर में अमृत बिंदु का काम किया और विश्व में शांति स्थापित की, नैतिक मूल्यों की स्थापना की और सबको विश्वबंधुत्व एवं प्रेम का संदेश दिया। इस तरह अशोक पूरे विश्व में यशस्वी बना - उसे 'अशोक महान' कहा गया।

महान ऋषि अष्टावक्र

अष्टावक्र दुनिया के प्रथम ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने सत्य को जैसा जाना वैसा कह दिया। न वे कवि थे और न ही दार्शनिक। चाहे वे ब्राह्मणों के शास्त्र हों या श्रमणों के, उन्हें दुनिया के किसी भी शास्त्र में कोई रुचि नहीं थी। उनका मानना था कि सत्य शास्त्रों में नहीं लिखा है। शास्त्रों में तो सिद्धांत और नियम हैं, सत्य नहीं, ज्ञान नहीं। ज्ञान तो तुम्हारे भीतर है। अष्टावक्र ने जो कहा वह 'अष्टावक्र गीता' नाम से प्रसिद्ध है।

ओशो कहते हैं, 'अष्टावक्र समन्वयवादी नहीं हैं, सत्यवादी हैं। सत्य जैसा है वैसा कहा है, बिना किसी लाग-लपेट के। सुनने वाले की चिंता नहीं है। सुनने वाला समझेगा, नहीं समझेगा इसकी भी चिंता नहीं। सत्य का ऐसा शुद्धतम वक्तव्य न पहले कहीं हुआ, न फिर बाद में कभी हो सका।'

अष्टावक्र पहले ऐसे व्यक्ति थे जिनकी श्रेणी में सुकरात, मंसूर और जे. कृष्‍णमूर्ति को रखा जा सकता है। इन्हें हम धर्म के विरुद्ध वक्तव्य नहीं कहेंगे बल्कि ये ऐसे लोग रहे हैं जिन्होंने धर्म के मर्म और सत्य को अपने तरीके से जाना। यह किसी परम्परा के कभी हिस्से नहीं रहे। यही कारण रहा कि दुनिया में इनकी चर्चा कम ही हुई है। आओ जानते हैं कि कौन थे अष्टावक्र।

पहली कहानी :
अष्टावक्र की माता का नाम सुजाता था। उनके पिता कहोड़ वेदपाठी और प्रकांड पंडित थे तथा उद्दालक ऋषि के शिष्य और दामाद थे। राज्य में उनसे कोई शास्त्रार्थ में जीत नहीं सकता था। अष्टावक्र जब गर्भ में थे तब रोज उनके पिता से वेद सुनते थे। एक दिन उनसे रहा नहीं गया और गर्भ से ही कह बैठे- 'रुको यह सब बकवास, शास्त्रों में ज्ञान कहाँ ? ज्ञान तो स्वयं के भीतर है। सत्य शास्त्रों में नहीं स्वयं में है। शास्त्र तो शब्दों का संग्रह मात्र है।'

यह सुनते ही उनके पिता क्रोधित हो गए। पंडित का अहंकार जाग उठा, जो अभी गर्भ में ही है उसने उनके ज्ञान पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। पिता तिलमिला गए। उन्हीं का वह पुत्र उन्हें उपदेश दे रहा था जो अभी पैदा भी नहीं हुआ। क्रोध में अभिशाप दे दिया- 'जा...जब पैदा होगा तो आठ अंगों से टेढ़ा होगा।' इसीलिए उनका नाम अष्टावक्र पड़ा।

पिता ने क्रोध में शरीर को विक्षप्त कर दिया। उन्हें जरा भी दया नहीं आई। ऐसे पिता के होने का क्या मूल्य, जो अपने पुत्र को शाप दे। अष्टावक्र का कोई बहुत बड़ा अपराध नहीं था। उन्होंने तो अपना विचार ही प्रकट किया था, लेकिन इससे यह सिद्ध होता है कि लोग अपने-अपने शास्त्रों के प्रति कितने कट्टर होते हैं।

पिता के इस शाप के बावजूद अष्टावक्र पिताभक्त थे। जब वे बारह वर्ष के थे तब राज्य के राजा जनक ने विशाल शास्त्रार्थ सम्मेलन का आयोजन किया। सारे देश के प्रकांड पंडितों को निमंत्रण दिया गया, चूँकि अष्टावक्र के पिता भी प्रकांड पंडित और शास्त्रज्ञ थे तो उन्हें भी विशेष आमंत्रित किया गया। जनक ने आयोजन स्थल के समक्ष 1000 गायें बाँध ‍दीं। गायों के सींगों पर सोना मढ़ दिया और गले में हीरे-जवाहरात लटका दिए और कह दिया कि जो भी विवाद में विजेता होगा वह ये गायें हाँककर ले जाए। 

संध्या होते-होते खबर आई कि अष्टावक्र के पिता हार रहे हैं। सबसे तो जीत चुके थे ‍लेकिन वंदनि (बंदी) नामक एक पंडित से हारने की स्थिति में पहुँच गए थे। पिता के हारने की स्थिति तय हो चुकी थी कि अब हारे या तब हारे। यह खबर सुनकर अष्टावक्र खेल-क्रीड़ा छोड़कर राजमहल पहुँच गए। अष्टावक्र भरी सभा में जाकर खड़े हो गए। उनका आठ जगहों से टेढ़ा-मेढ़ा शरीर और अजीब चाल देखकर सारी सभा हँसने लगी। अष्टावक्र यह नजारा देखकर सभाजनों से भी ज्यादा जोर से खिलखिलाकर हँसे।

जनक ने पूछा, 'सब हँसते हैं, वह तो मैं समझ सकता हूँ, लेकिन बेटे, तेरे हँसने का कारण बता?

अष्टावक्र ने कहा, 'मैं इसलिए हँस रहा हूँ कि इन चमारों की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है, आश्चर्य! ये चमार यहाँ क्या कर रहे हैं।'

सारी सभा में सन्नाटा छा गया। सब अवाक् रह गए। राजा जनक खुद भी सन्न रह गए। उन्होंने बड़े संयत भाव से पूछा, 'चमार!!! तेरा मतलब क्या?'

अष्टाव्रक ने कहा, 'सीधी-सी बात है। इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है, मैं नहीं दिखाई पड़ता। ये चमार हैं। चमड़ी के पारखी हैं। इन्हें मेरे जैसा सीधा-सादा आदमी दिखाई नहीं पड़ता, इनको मेरा आड़ा-तिरछा शरीर ही दिखाई देता है। राजन, मंदिर के टेढ़े होने से आकाश कहीं टेढ़ा होता है? घड़े के फूटे होने से आकाश कहीं फूटता है? आकाश तो निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा है लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है, इसकी तरफ तो देखो। मेरे शरीर को देखकर जो हँसते हैं, वे चमार नहीं तो क्या हैं? 

यह सुनकर मिथिला देश के नरेश एवं भगवान राम के श्‍वसुर राजा जनक सन्न रह गए। जनक को अपराधबोध हुआ कि सब हँसे तो ठीक, लेकिन मैं भी इस बालक के शरीर को देखकर हँस दिया। राजा जनक के जीवन की सबसे बड़ी घटना थी। देश का सबसे बड़ा ताम-झाम। सबसे सुंदर गायें। सबसे महँगे हीरे-जवाहरात। सबसे विद्वान पंडित और सारे संसार में इस कार्यक्रम का समाचार और सिर्फ एक ही झटके में सब कुछ खत्म। जनक को बहुत पश्चाताप हुआ। सभा भंग हो गई।

रातभर राजा जनक सो न सके। दूसरे दिन सम्राट जब घूमने निकले तो उन्हें वही बालक अष्टावक्र खेलते हुए नजर आया। वे अपने घोड़े से उतरे और उस बालक के चरणों में गिर पड़े। कहा- 'आपने मेरी नींद तोड़ दी। आपमें जरूर कुछ बात है। आत्मज्ञान की चर्चा करने वाले शरीर पर हँसते हैं तो वे कैसे ज्ञानी हो सकते हैं। प्रभु आप मुझे ज्ञान दो।'

दूसरी कहानी : 
इसके अलावा भी किंवदंती है कि वंदनि से हार जाने के परिणामस्वरूप उनके पिता को जल में डुबो दिया गया था। पिता के न होने के कारण अष्टावक्र अपने नाना उद्दालक को अपना पिता और अपने मामा श्‍वेतकेतु को अपना भाई समझते थे। माता सुजाता द्वारा उन्हें उनके पिता का सच बताए जाने के बाद वे अपने मामा श्‍वेतकेतु के साथ वंदनि से शास्त्रार्थ करने के लिए राजा जनक की सभा में पहुँचे और उन्होंने वंदनि को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा।

राजा जनक ने उनकी परीक्षा लेने के लिए उनसे कई प्रश्न पूछे। जब अष्टावक्र ने सभी का उत्तर दे दिया तब उन्होंने वंदनि से शास्त्रार्थ की आज्ञा दी और उन्होंने वंदनि को हरा दिया। शास्त्रार्थ में वंदनि के हारने पर अष्टावक्र ने कहा कि राजन्! यह हार गया है, अतएव इसे भी मेरे पिता की तरह जल में डुबो दिया जाए।

तब वंदनि कहने लगे कि राजन! मैं वरुण का पुत्र हूँ। मैंने सारे हारे हुए ब्राह्मणों को अपने पिता के पास भेज दिया है। मैं तत्क्षण ही उन सभी को आपके समक्ष प्रस्तुत करता हूँ। वंदनि के इतना कहते ही जल में डुबोए गए सभी ब्राह्मण जनक की सभा में पुन: प्रकट हो गए, जिनमें अष्टावक्र के पिता कहोड़ भी थे।

अष्टावक्र ने अपने पिता के चरणस्पर्श किए। कहोड़ ने प्रसन्न होकर अपने पुत्र को गले लगाकर कहा कि तुम जाकर समंगा नदी में स्नान करो, उक्त स्नान से तुम मेरे शाप से मुक्त हो जाओगे।

लेकिन पहली कहानी ज्यादा सच लगती है दूसरी तो कतिपय ब्राह्मणों द्वारा लीपापोती करके बनाई गई ही ज्यादा नजर आती है।

अंधविश्वासी न बनो : स्वामी विवेकानंद

यह विलक्षण बालक काफी कम उम्र से ही भय अथवा अंधविश्वास न मानता था। उनके बचपन का एक अन्य खेल था, पड़ोसी के घर चम्पा के पेड़ पर चढ़कर फूल तोड़ना और ऊधम मचाना। पेड़ के मालिक ने अपनी डाँट-फटकार से कोई लाभ न होता देख, एक दिन नरेन के साथियों से अत्यंत गंभीरतापूर्वक कहा कि उस पेड़ पर एक ब्रह्मदैत्य निवास करता है और उस पर सभी बच्चे भयभीत हो गए और उस पेड़ से दूर-दूर रहने लगे। परंतु नरेन उन्हें समझा-बुझाकर पुन: वहीं ले आए और पहले के समान ही पेड़ पर चढ़कर खेलने लगे और शैतानीपूर्वक वृक्ष की कुछ डालियाँ भी तोड़ डालीं। फिर वे अपने साथियों की ओर उन्मुख होकर बोले - 'तुम लोग भी कैसे गधे हो। देखो मेरी गरदन कैसी सही सलामत है। बूढ़े बाबा की बात बिल्कुल झूठी है। दूसरे लोग जो कुछ भी कहते हैं, उसकी जाँच किए बिना कभी भी विश्वास न करना।' 

सत्य की स्वयं ही उपलब्धि करो

ये सरल तथा स्पष्ट शब्द जगत के प्रति उनके भावी संदेश का संकेत देते हैं। परवर्ती काल में अपने व्याख्‍यानों में वे प्राय: ही कहा करते थे - 'किसी बात पर सिर्फ इसी कारण विश्वास न कर लो कि वह किसी ग्रंथ में लिखी है। किसी चीज पर इसलिए विश्वास न कर लो कि किसी व्यक्ति ने उसे सत्य कहा है। किसी बात पर सिर्फ इस कारण भी विश्वास न करना कि वे परंपरा से चली आ रही है। अपने लिए सत्य की स्वयं ही उपलब्धि करो। उसे तर्क की कसौटी पर कसो। इसी को अनुभ‍ूति कहते हैं।

नीचे लिखी घटना उनके साहस एवं प्रत्युत्पन्नमति का एक अच्‍छा उदाहरण है। व्यायामशाला में एक दिन वे एक भारी झूला खड़ा करना चाहते थे। उन्होंने आसपास उपस्थित कुछ लोगों से इसमें सहायता करने का अनुरोध किया। हाथ बटाने वालों में एक अँगरेज नाविक भी थे। झूला खड़ा करते समय उसका एक भाग नाविक के सिर पर गिर पड़ा और वे चोट खाकर अचेत हो गए। 

बाकी सभी लोग उन्हें मृत समझकर पुलिस के भय से रफूचक्कर हो गए परंतु नरेन ने अपने वस्त्र का एक टुकड़ा फाड़कर नाविक के चोट पर पट्‍टी बाँधी, उनके चेहरे पर पानी के छींटे दिए और धीरे-धीरे उन्हें होश में ले आए। तत्पश्चात घायल नाविक को अपने पड़ोस के विद्यालय भवन में लाकर एक सप्ताह तक उनकी सेवा की। उनके स्वस्थ हो जाने के पश्चात नरेन ने अपने मित्रों से थोड़ा धन संग्रह किया और नाविक को सौंपकर उन्हें विदाई दी।

बचपन के इन क्रीड़ा-कौतुकपूर्ण जीवन के बीच भी नरेन के हृदय में परिव्राजक संन्यासी जीवन के प्रति आकर्षण बना रहा था। अपने हथेली पर की एक रेखा विशेष की ओर संकेत करते हुए वे अपने मित्रों से कहा करते - 'मैं अवश्य ही संन्यासी बनूँगा, एक हस्तरेखाविद्‍ ने बताया है।'

किशोरावस्था में प्रवेश करते हुए नरेन के स्वभाव में अब कुछ विशेष परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगे थे। बौद्धिक जीवन की ओर उनका झुकाव बढ़ गया। अब वे इतिहास एवं साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रंथों का अध्ययन करने लगे, समाचार पत्र पढ़ने लगे और सार्वजनिक सभाओं में जाने लगे। संगीत उनके दिल बहलाव का प्रमुख साधन बन गया। उनका मत था कि संगीत के माध्यम से उदात्त भावों की अभिव्यक्ति होनी चाहिए और जिससे गायक की भी भावनाएँ जाग्रत हो उठें।

पंद्रह वर्ष की आयु में उन्हें प्रथम आध्यात्मिक अनुभूति हुई। वे अपने परिवार के साथ मध्यप्रदेश के रायपुर नगर को जा रहे थे। यात्रा का कुछ भाग बैलगाड़ी में तय किया जा रहा था। उस दिन शीतल और मंद वायु प्रवाहित हो रही थी, वृक्ष और लताएँ रंग-बिरंगे पत्र-पुष्पों से झुकी जा रही थीं, तरह-तरह के पक्षी कलरव कर रहे थे। चलते-चलते बैलगाड़ी एक ऐसी सँकरी घाटी के समीप पहुँची, जहाँ दो ऊँचे पर्वत शिखर मानो एक दूसरे को चूम रहे थे। मुग्ध होकर इन पर्वतों की ओर निहालते हुए नरेन ने देखा कि पर्वत के एक दरार से धरती तक एक विशाल मधुचक्र लटक रहा है। यह अद्‍भुत अपूर्व दृश्य देखकर उनका मन ईश्वर विभोर हो उठा और वे बाह्यसंज्ञाशून्य होकर काफी देर तक गाड़ी में ही पड़े रहे। बाह्य चेतना लौटने के पश्चात भी उनके मन में आनंद की हिलोरें उठ रही थीं।

यहाँ पर नरेन के मन की एक दूसरी रोचक विशेषता का उल्लेख किया जा सकता है। बचपन से ही प्राय: ही किसी-किसी व्यक्ति या स्थान को देखकर उन्हें लगता कि उन्होंने पहले भी कहीं उन्हें देखा है परंतु कब और कहाँ देखा है, इसका वे स्मरण न कर पाते। एक बार वे अपने कुछ मित्रों के साथ एक मित्र के मकान के एक कमरे में बैठकर किन्हीं विषयों पर चर्चा कर रहे थे। उनमें किसी एक के कुछ कहने पर नरेन को सहसा ऐसा प्रतीत हुआ मानो उन्होंने पहले भी कभी उसी मकान में, उन्हीं लोगों के साथ उसी विषय पर चर्चा की है। उन्होंने उस मकान को कभी अंदर से देखा न था तथापि उसके चप्पे-चप्पे का सविस्तार वर्णन किया। 

पहले तो उन्होंने यह सोचकर कि शायद पिछले किसी जन्म में वे इस भवन में रह चुके हैं, पुनर्जन्म के सिद्धांत से इसकी व्याख्‍या करने का प्रयास किया, पर बाद में इस व्याख्या को असंभव कहकर त्याग दिया गया। अंत में उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि इस जन्म में उनके संपर्क में आने वाले व्यक्तियों, स्थानों तथा घटनाओं का उन्हें पहले से अवलोकन करा दिया गया था। इसी कारण उनके सामने आते ही वे उन्हें पहचान लेते हैं। 

रायपुर में नरेन के पिताजी उन्हें प्रसिद्ध विद्वानों से मिलाते तथा उनके साथ विविध विषयों पर चर्चा करने को प्रोत्साहन देते। ऐसे दुरूह विषयों पर चर्चा करते समय इस बालक की तीव्र मेधाशक्ति व्यक्त हो उठती थी। नरेन ने अपने पिता से प्रत्येक विषय का सार ग्रहण करने की पद्धति, सत्य को उसके सभी दृष्टिकोणों से संपूर्ण रूप से देखने का तरीका तथा चर्चा के मुख्‍य विषय को बनाए रखने की कला सीख ली थी। 

1879 ई. में उनका परिवार पुन: लौटकर कलकत्ता आ गया। हाई स्कूल की परीक्षा को काफी कम समय बच रहा था, फिर भी नरेन प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। इस बीच वे अँगरेजी तथा बंगला साहित्य की अनेक उच्च स्तरीय पुस्तकें पढ़ चुके थे। इतिहास उनका प्रिय विषय था। इन्हीं दिनों उन्होंने पुस्तकें पढ़ने तथा विषय को आयत्त कर लेने का एक अभिनव उपाय खोज निकाला था। उन्हीं के शब्दों में - 'ऐसा अभ्यास हो गया था कि लेखक का पूरा अभिप्राय समझने के लिए मुझे पुस्तक की प्रत्येक पंक्ति पढ़ने की आवश्यकता न होती थी। अनुच्छेद की प्रथम एवं अंतिम पंक्ति पढ़कर ही मैं उसका पूरा तात्पर्य समझ लेता था। 

फिर बाद में मैंने पाया कि मैं किसी पृष्ठ की प्रथम एवं अंतिम पंक्ति पढ़कर ही उसकी पूरी विषयवस्तु समझ जाता हूँ। फिर कुछ और काल बाद जहाँ लेखक पाँच-छ: पृष्ठों में अपना विषय समझाने का प्रयास करता, वहाँ मैं प्रारंभ की पंक्तियाँ पढ़कर ही लेखक की सारी युक्तियाँ समझ लेता था।'

बचपन के उल्लासपूर्ण दिन समाप्त हुए। उच्च शिक्षा के लिए 1879 ई. में नरेंद्रनाथ ने कलकत्ते के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। फिर एक वर्ष बाद उन्होंने स्कॉटिश जनरल मिशनरी बोर्ड द्वारा स्थापित जनरल एसेम्बलीज इन्स्टीट्‍यूशन में दाखिला लिया। यही संस्था बाद में स्काटिश चर्च कॉलेज के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी कॉलज के प्राचार्य तथा अँगरेजी साहित्य के प्राध्यापक हेस्टी साहब के ही मुख से उन्होंने सर्वप्रथम श्रीरामकृष्ण का नाम सुना था। नरेंद्र अब एक बलिष्ठ, फुर्तीले, हृष्ट-पुष्ट तथा आकर्षक नवयुवक के रूप में परिणत हो चुके थे तथा अध्ययन में गंभीरतापूर्वक रूचि लेने लगे थे। प्रथम दो वर्ष उन्होंने पाश्चात्य तर्कशास्त्र का अध्ययन किया। 

फिर वे पाश्चात्य दर्शन तथा यूरोप के प्राचीन एवं अर्वाचीन इतिहास का गहन अध्ययन करने लगे। उनकी स्मरणशक्ति अद्‍भुत थी। ग्रीन द्वारा लिखित अँगरेजों का इतिहास आयत्त करने में उन्हें सिर्फ तीन दिन लगे थे। परीक्षा की पूर्व संध्या को बहुधा वे कड़ी चाय कॉफी लेकर सारी रात पढ़ाई करते थे। 

प्राय: इन्हीं दिनों वे श्रीरामकृष्ण देव के संपर्क में आए और हम आगे देखेंगे कि इस घटना ने उनके जीवन को एक विशेष दिशा प्रदान की। श्रीरामकृष्ण के संस्पर्श में आने के फलस्वरूप उनकी अंतर्निहित आध्यात्मिक पिपासा जाग्रत हो उठी। वे जगत की क्षणभंगुरता तथा बौद्धिक शिक्षा की व्यर्थता का बोध करने लगे। अपनी बीए की परीक्षा के पहले दिन ही उन्हें सहसा ईश्वर के प्रति सर्वग्रासी प्रेम की अनुभूति हुई और वे अपने एक सहपाठी के कमरे के द्वार पर खड़े होकर भावुकतापूर्वक गाने लगे। भावार्थ इस प्रकार है - 

हे पर्वतो! बादलो! हवाओ! 
सब मिलकर उनकी महिमा गाओ! 
हे सूर्य! हे चंद्र! हे तारकाओ! 
आनंदपूर्वक प्रभु की महिमा गाओ।

मित्र ने विस्मित होकर नरेंद्र को अगले दिन होने वाली परीक्षा की याद दिलाई तो भी उन्होंने ध्यान नहीं दिया। आसन्न संन्यास-जीवन की छाया उन्हें तेजी से आवृत्त किए जा रही थी। फिर भी वे परीक्षा में बैठे एवं आसानी से सफल हुए। 

उनकी प्रशंसा करते हुए एक बार प्रो. हेस्टी ने कहा था - 

'नरेंद्र एक वास्तविक प्रतिभाशाली युवक है। मैंने दूर-दूर की यात्रा की है परंतु ऐसी प्रतिभा एवं संभावनाओं वाला लड़का कभी भी नहीं मिला, यहाँ तक कि जर्मन विश्वविद्यालय के दर्शन के छात्रों में भी कोई नहीं दिखा। वह जीवन में निश्चय ही कुछ कर दिखाएगा।'

नरेंद्र की बहुमुखी प्रतिभा संगीत के माध्यम से भी अभिव्यक्त थी। उन्होंने संगीत विशारदों से वाद्य एवं स्वरसंगीत दोनों ही सीखे थे। वे कई तरह के वाद्य में पारंगत थे, परंतु गायन में तो वे सानी न रखते थे। उन्होंने एक मुसलमान शिक्षक से हिन्दी, उर्दू तथा फारसी के अनेक भक्तिमूलक गाने सीखे।

उस काल के सबसे महत्वपूर्ण धर्म-आंदोलन ब्रह्मसमाज के साथ भी वे जुड़े थे और इसका उनके प्रारंभिक जीवन पर काफी प्रभाव पड़ा था। 

ब्रिटिश साम्राज्य से पराभूत हो जाने के पश्चात भारत में अँगरेजी शिक्षा का सूत्रपात हुआ। इसके फलस्वरूप हिन्दू समाज बौद्धिक एवं आक्रामक यूरोपीय संस्कृ‍ति के संपर्क में आया। अभिनव तथा सक्रिय जीवनधारा के सम्मोहन में आकर हिन्दू युवकों को अपने समाज में अनेक दोष ‍दिख पड़े। अँगरेज लोगों के आगमन के पूर्व मुस्लिम शासनकाल में ही हिन्दू समाज की गति अवरुद्ध हो गई थी, जा‍ति प्रथा में ऊँच-नीच का भेद बढ़ गया था तथा पुरोहितगण अपने‍ निजी स्वार्थ के लिए आम जनता का धार्मिक जीवन नियंत्रित करने लगे थे। 

उपनिषद एवं भगवद्‍गीता के शक्तिदायी दार्शनिक विचारों के साथ निरर्थक अंधविश्वास तथा निर्जीव रीतिरिवाज घुलमिल गए थे। जमींदार जनसाधारण का शोषण करने लगे थे तथा महिलाओं की दशा दयनीय हो गई थी। मुस्लिम शासन के पतन के बाद से भारतीय जनजीवन के सामाजिक, राजनीतिक धार्मिक तथा आर्थिक - प्रत्येक क्षेत्र में विश्रृंखला फल गई थी। नवोदित पाश्चात्य शिक्षा ने समाज के अनेक दोषों को तीव्र आलोक में ला दिया। अब राष्ट्रीय जीवन को एक बार पुन: नवजीवन के मार्ग पर ले जाने के उद्देश्य से अनेक पुरातनपंथी तथा उदारवादी सुधार आंदोलनों का प्रादुर्भाव हुआ। 

ब्रह्मसमाज इन उदारवादी आंदोलनों में एक था जिसने बंगाल के शिक्षित नवयुवकों को आकृष्ट किया। इसके संस्थापक राजा राममोहन राय (1774-1833 ई.) ने परंपरागत हिन्दू धर्म के कर्मकांड, मूर्तिपूजा और पुरोहिती प्रथा का बहिष्कार किया और अपने अनुयाइयों को आह्वान किया कि वे 'इस विश्व-ब्रह्माण्ड के सृष्टि एवं पालनकर्ता - अनंत, अगोचर तथा अक्षर परमात्मा की पूजा-आराधना' करें।

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