शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

देव संस्कृति विश्वविद्यालय

देव संस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार में स्थित है। इस संस्थान की स्थापना गायत्री परिवार के पितृपुरुष श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा 11 अप्रैल 2002 में की गयी।

उद्देश्य 
इस संस्थान में राष्ट्र के युवाओं को निखार-संवार कर श्रेष्ठतम नागरिक, समर्पित स्वयंसेवक, प्रखर राष्ट्रभक्त एवं विषय-विशेषज्ञ बनाने के साथ-साथ महामानव और देव मानव बनाना है, जिससे मनुष्य में देवत्य उतरे और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न साकार हो सके।

उपलब्ध पाठ्यक्रम
इस संस्थान में राष्ट्र के युवाओं को निखार-संवार कर श्रेष्ठतम नागरिक, समर्पित स्वयंसेवक, प्रखर राष्ट्रभक्त एवं विषय-विशेषज्ञ बनाने के साथ-साथ महामानव और देव मानव बनाना है, जिससे मनुष्य में देवत्य उतरे और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न साकार हो सके।

संस्थान का विवरण
देव संस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना का विचार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम आचार्य एवं शक्ति स्वरूपा परम् वंदनीया माता भगवतीदेवी शर्मा को भाव-समाधि में चार दशक पूर्व हुआ। समाधि टूटने पर उन्होंने कहा-‘धरती पर जब भी नया जीवन अंकुरित हुआ, वह विश्वविद्यालय के रूप में हुआ। जब भी नए मनुष्य गढ़े गए, उन्हें नई दिशा मिली, ऐसे विश्वविद्यालय की स्थापना मेरा भी स्वप्न है। मेरे स्वप्न दिवा नहीं दिव्य होते हैं और वे कभी अधूरे नहीं रहते।

अतः देव संस्कृति विश्वविद्यालय उनके दिव्य स्वप्न का मूर्तरूप ले चुकी इस युग की एक अभिनय संस्था है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना उत्तरांचल विधानसभा से पारित ‘देव संस्कृति विश्वविद्यालय विधेयक 2002’ (संख्या 123/विधायी एवं संसदीय कार्य/2002, देहरादून 11 अप्रैल 2002) के अन्तर्गत वेदमाता गायत्री ट्रस्ट, शांतिकुंज, हरिद्वार द्वारा की गई है। अखिल विश्व गायत्री परिवार के प्रमुख एवं ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के निदेशक, डॉ. प्रणव पंड्या इस विश्वविद्यालय के प्रथम कुलाधिपति हैं।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना का उद्देश्य राष्ट्र के युवाओं को निखार-संवार कर श्रेष्ठतम नागरिक, समर्पित स्वयंसेवक, प्रखर राष्ट्रभक्त एवं विषय-विशेषज्ञ बनाने के साथ-साथ महामानव और देव मानव बनाना है, जिससे मनुष्य में देवत्य उतरे और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न साकार हो सके।

1. देव-संस्कृति के विकास हेतु अथक प्रयास।

2. देव-संस्कृति पर आधारित ज्ञान की धाराओं-धर्म, दर्शन, संस्कृति आदि पर आधारित पाठ्यक्रमों का शिक्षण एवं इनके समसामयिक बिंदुओं पर शोध।

3. देव-संस्कृति पर आधारित विज्ञान की धाराओं-गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, मंत्र-विज्ञान, योग-विज्ञान, मनोविज्ञान आदि से संबंधित पाठ्यक्रमों का अध्यापन एवं इनके समसामयिक बिंदुओं पर वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में शोध।

4. गुरुदेव के विचारों पर आधारित नवीन सामाजिक संरचना के लिए आवश्यक रोजगारपरक पाठ्यक्रमों का शिक्षण, आपदा प्रबंधन, ग्राम प्रबंधन, विद्यालय प्रबंधन आदि पर अध्ययन एवं शोध।

संसाधन
देव संस्कृति विश्वविद्यालय लगभग 30 हजार वर्गमीटर में निर्मित, निर्माणाधीन और प्रस्तावित भवनों का क्षेत्र है। शिक्षण के लिए निर्मित ‘तक्षशिला’ भवन तीन मंजिला है, जिसमें 30 बड़े हॉल हैं। इनमें 18 क्लास रूम, 1 सभागार, 1 समिति कक्ष, 1 कंप्यूटर कक्ष, 2 ग्रंथालय, 3 प्रयोगशालाएं, 1 भंडारगृह एवं 4 प्रशासनिक कक्ष हैं। छात्रावास, आवास, आयुर्वेद-अनुसंधान, फार्मेसी, प्रशासनिक, स्वावलंबन, सभागार, ध्यान कक्ष आदि भवनों के स्थान सुरक्षित हैं, जो विश्वविद्यालय को दिव्य स्वरूप प्रदान करते हैं।

अध्यापकों तथा अन्य कर्मचारियों हेतु आवास की पूर्ण व्यवस्था है। एक अतिथिगृह के साथ-साथ यज्ञशाला की व्यवस्था हो चुकी है। खेलकूद तथा व्यायामशाला के लिए आवश्यक सुविधाएँ विद्यमान हैं। प्रस्तावित भवनों में भव्य पुस्तकालय एवं छात्र-छात्राओं के लिए छात्रावास के निर्माण का कार्य आरंभ हो चुका है। तक्षशिला भवन के साथ ही महाकाल मंदिर की स्थापना भी हो चुकी है।

प्रयोगशालएँ
देव संस्कृति विश्वविद्यालय में शिक्षा, स्वास्थ्य, साधना, स्वावलंबन इन चारों संकायों की अलग-अलग प्रयोगशालाएं स्थापित की जा रही हैं, जिनमें आवश्यक आधुनिक उपकरणों, साज-सामान तथा ज्ञान-विज्ञान के शोध के लिए सुविधाएँ उपलब्ध होंगी, सभी तर्क तथा तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किए जा सकेंगे।

इस समय मनोविज्ञान तथा योग की आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित प्रयोगशालाएँ बन चुकी हैं। इनके अतिरिक्त ब्रह्मवर्चस की शोध प्रयोगशालाएं भी विद्यार्थियों एवं शोध छात्रों के लिए उपलब्ध हैं, जिनमें आधुनिक उपकरणों, कंप्यूटर एवं इलेक्ट्रोनिक्स के विभिन्न यंत्रों के द्वारा तप, तितिक्षा, आहार, साधना, ध्यान, धारणा, योग, कल्प प्रक्रिया, प्रायश्चित विधान आदि के मनोवैज्ञानिक प्रभावों का अध्ययन किया जा सकता है। औषधीय जड़ी-बूटियों की सूक्ष्म शक्ति का शरीर, मन, वातावरण, वनस्पतियों पर प्रभाव तथा यज्ञोपैथी, मंत्रशक्ति, संगीत आदि के प्रभाव के शोधपरक अध्ययन की सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं।

विश्वविद्यालय का शिक्षण एवं शोध चार संकायों-शिक्षा, स्वास्थ्य, साधना और स्वावलम्बन द्वारा संचालित होगा। प्रारंभिक अवस्था में शिक्षा संकाय के अन्तर्गत केवल मनोविज्ञान तथा योग विषय में एम.ए./ एम.एस.सी. तथा योग के डिप्लोमा और सर्टिफिकेट के पाठ्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं। विश्वविद्यालय के भाषा विभाग द्वारा अंग्रेजी में डिप्लोमा एवं सर्टिफिकेट के कोर्स आरंभ किए जा चुके हैं।

शोध क्षेत्र में पी.एच.डी. हेतु पंजीयन किए जा रहे हैं।

जनवरी 2003 से धर्म विज्ञान के विशेष सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम का भी शुभारंभ हो चुका है।

कैसे पहुँचें
रेलवे स्टेशन/बस स्टैण्ड से सीधे चलते हुए देवपुरा होते हुए मायापुर से नेशनल हाईवे होते हुए चण्डीघाट से भूपतवाला से दाईं तरफ देहरादून रोड़ पर देव संस्कृति विश्वविद्यालय स्थित है। यहां पर कार से पहुंचने में 20 मिनट, आटौ रिक्शा से पहुंचने में 30 मिनट, एवं पैदल पहुंचने में 40 मिनट लगते हैं।

पता
देव संस्कृति विश्वविद्यालय, शांतिकुंज, हरिद्वार-249411
फोन नं. : +91-1334 261367, 262094 फैक्स नं. : +91-1334 260723
ई. मेल : registrar@dsvv.org वेब साइट : www.dsvv.org

सद्विचार - 2


1- हम अपनी कमियों को पहचानें और इन्हें हटाने और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियाँ स्थापित करने का उपाय सोचें, इसी में अपना व मानव मात्र का कल्याण है । 
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2- प्रगति के लिए संघर्ष करो । अनीति को रोकने के लिए संघर्ष करो और इसलिए भी संघर्ष करो कि संघर्ष के कारणों का अन्त हो सके । 

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3- धर्म की रक्षा और अधर्म का उन्मूलन करना ही अवतार और उसके अनुयायियों का कर्त्तव्य है । इसमें चाहे निजी हानि कितनी ही होती हो, कठिनाई कितनी ही उठानी पड़ती हों । 
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4- अवतार व्यक्ति के रूप में नहीं, आदर्शवादी प्रवाह के रूप में होते हैं और हर जीवन्त आत्मा को युगधर्म निबाहने के लिए बाधित करते हैं । 

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5- शरीर और मन की प्रसन्नता के लिए जिसने आत्म-प्रयोजन का बलिदान कर दिया, उससे बढ़कर अभागा एवं दुर्बुद्धि और कौन हो सकता है?
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6- जीवन के आनन्द गौरव के साथ, सम्मान के साथ और स्वाभिमान के साथ जीने में है । 

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7- आचारनिष्ठ उपदेशक ही परिवर्तन लाने में सफल हो सकते हैं । अनधिकारी धर्मोपदेशक खोटे सिक्के की तरह मात्र विक्षोभ और अविश्वास ही भड़काते हैं । 
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8- इन दिनों जाग्रत् आत्मा मूक दर्शक बनकर न रहे । बिना किसी के समर्थन, विरोध की परवाह किए आत्म-प्रेरणा के सहारे स्वयंमेव अपनी दिशाधारा का निर्माण-निर्धारण करें ।
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9- जो भौतिक महत्त्वाकांक्षियों की बेतरह कटौती करते हुए समय की पुकार पूरी करने के लिए बढ़े-चढ़े अनुदान प्रस्तुत करते और जिसमें महान् परम्परा छोड़ जाने की ललक उफनती रहे, यही है-प्रज्ञापुत्र शब्द का अर्थ
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10- दैवी शक्तियों के अवतरण के लिए पहली शर्त है- साधक की पात्रता, पवित्रता और प्रामाणिकता ।
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11- आशावादी हर कठिनाई में अवसर देखता है, पर निराशावादी प्रत्येक अवसर में कठिनाइयाँ ही खोजता है । 

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12- चरित्रवान् व्यक्ति ही किसी राष्ट्र की वास्तविक सम्पदा है । 
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13- व्यक्तिगत स्वार्थों का उत्सर्ग सामाजिक प्रगति के लिए करने की परम्परा जब तक प्रचलित न होगी, तब तक कोई राष्ट्र सच्चे अर्थों में सार्मथ्यवान् नहीं बन सकता है । 
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14- युग निर्माण योजना का लक्ष्य है-शुचिता, पवित्रता, सच्चरित्रता, समता, उदारता, सहकारिता उत्पन्न करना । 

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15- भुजाएँ साक्षात् हनुमान हैं और मस्तिष्क गणेश, इनके निरन्तर साथ रहते हुए किसी को दरिद्र रहने की आवश्यकता नहीं । 
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16- विद्या की आकांक्षा यदि सच्ची हो, गहरी हो तो उसके रहते कोई व्यक्ति कदापि मूर्ख, अशिक्षित नहीं रह सकता । 

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17- मनुष्य दुःखी, निराशा, चिंतित, उदिग्न बैठा रहता हो तो समझना चाहिए सही सोचने की विधि से अपरिचित होने का ही यह परिणाम है । 
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18- धर्म अंतःकरण को प्रभावित और प्रशासित करता है, उसमें उत्कृष्टता अपनाने, आदर्शों को कार्यान्वित करने की उमंग उत्पन्न करता है । 
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19- जीवन साधना का अर्थ है- अपने समय, श्रम और साधनों का कण-कण उपयोगी दिशा में नियोजित किये रहना । 
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20- निकृष्ट चिंतन एवं घृणित कर्तृत्व हमारी गौरव गरिमा पर लगा हुआ कलंक है । 
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21- आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है ।  हम कोई ऐसा काम न करें, जिसमें अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कारे । 
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22- अपनी दुष्टताएँ दूसरों से छिपाकर रखी जा सकती हैं, पर अपने आप से कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता । 
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23- किसी महान् उद्देश्य की ओर न चलना उतनी लज्जा की बात नहीं होती, जितनी कि चलने के बाद कठिनाइयों के भय से पीछे हट जाना । 
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24- महानता का गुण न तो किसी के लिए सुरक्षित है और न प्रतिबंधित । जो चाहे अपनी शुभेच्छाओं से उसे प्राप्त कर सकता है । 

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सद्विचार - 1


1- इस संसार में प्यार करने लायक दो वस्तुएँ हैं-एक दुःख और दूसरा श्रम । दुख के बिना हृदय निर्मल नहीं होता और श्रम के बिना मनुष्यत्व का विकास नहीं होता ।
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2- ज्ञान का अर्थ है-जानने की शक्ति । झूठ को सच से पृथक् करने वाली जो विवेक बुद्धि है-उसी का नाम ज्ञान है । 

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3- अध्ययन, विचार, मनन, विश्वास एवं आचरण द्वार जब एक मार्ग को मजबूती से पकड़ लिया जाता है, तो अभीष्ट उद्देश्य को प्राप्त करना बहुत सरल हो जाता है । 
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4- आदर्शों के प्रति श्रद्धा और कर्तव्य के प्रति लगन का जहाँ भी उदय हो रहा है, समझना चाहिए कि वहाँ किसी देवमानव का आविर्भाव हो रहा है । 

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5- कुचक्र, छद्म और आतंक के बलबूते उपार्जित की गई सफलताएँ जादू के तमाशे में हथेली पर सरसों जमाने जैसे चमत्कार दिखाकर तिरोहित हो जाती हैं । बिना जड़ का पेड़ कब तक टिकेगा और किस प्रकार फलेगा-फूलेगा । 
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6- जो दूसरों को धोखा देना चाहता है, वास्तव में वह अपने आपको ही धोखा देता है । 
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7- समर्पण का अर्थ है-पूर्णरूपेण प्रभु को हृदय में स्वीकार करना, उनकी इच्छा, प्रेरणाओं के प्रति सदैव जागरूक रहना और जीवन के प्रत्येक क्षण में उसे परिणत करते रहना । 
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8- मनोविकार भले ही छोटे हों या बड़े, यह शत्रु के समान हैं और प्रताड़ना के ही योग्य हैं । 
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9- सबसे महान् धर्म है, अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनना । 
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10- सद्व्यवहार में शक्ति है । जो सोचता है कि मैं दूसरों के काम आ सकने के लिए कुछ करूँ, वही आत्मोन्नति का सच्चा पथिक है ।
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11- जिनका प्रत्येक कर्म भगवान् को, आदर्शों को समर्पित होता है, वही सबसे बड़ा योगी है । 

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12- कोई भी कठिनाई क्यों न हो, अगर हम सचमुच शान्त रहें तो समाधान मिल जाएगा ।
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13- सत्संग और प्रवचनों का-स्वाध्याय और सदुपदेशों का तभी कुछ मूल्य है, जब उनके अनुसार कार्य करने की प्रेरणा मिले । अन्यथा यह सब भी कोरी बुद्धिमत्ता मात्र है । 

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14- सब ने सही जाग्रत् आत्माओं में से जो जीवन्त हों, वे आपत्तिकालीन समय को समझें और व्यामोह के दायरे से निकलकर बाहर आएँ । उन्हीं के बिना प्रगति का रथ रुका पड़ा है । 
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15- साधना एक पराक्रम है, संघर्ष है, जो अपनी ही दुष्प्रवृत्तियों से करना होता है । 
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16- आत्मा को निर्मल बनाकर, इंद्रियों का संयम कर उसे परमात्मा के साथ मिला देने की प्रक्रिया का नाम योग है । 
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17- जैसे कोरे कागज पर ही पत्र लिखे जा सकते हैं, लिखे हुए पर नहीं, उसी प्रकार निर्मल अंतःकरण पर ही योग की शिक्षा और साधना अंकित हो सकती है । 
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18- योग के दृष्टिकोण से तुम जो करते हो वह नहीं, बल्कि तुम कैसे करते हो, वह बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है । 
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19- यह आपत्तिकालीन समय है । आपत्ति धर्म का अर्थ है-सामान्य सुख-सुविधाओं की बात ताक पर रख देना और वह करने में जुट जाना जिसके लिए मनुष्य की गरिमा भरी अंतरात्मा पुकारती है । 
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20- जीवन के प्रकाशवान् क्षण वे हैं, जो सत्कर्म करते हुए बीते । 
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21- प्रखर और सजीव आध्यात्मिकता वह है, जिसमें अपने आपका निर्माण दुनिया वालों की अँधी भेड़चाल के अनुकरण से नहीं, वरन् स्वतंत्र विवेक के आधार पर कर सकना संभव हो सके ।
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22- बलिदान वही कर सकता है, जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है ।
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23- जिस आदर्श के व्यवहार का प्रभाव न हो, वह फिजूल है और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो, वह भयंकर है । 
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24- भगवान जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजारते हैं । 
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