सोमवार, 20 दिसंबर 2010

मील का पत्थर

राहगीर चला जा रहा था। उसने देखा, मील का पत्थर गड़ा हुआ उसे दूरी बता रहा था। राहगीर बोल उठा-‘‘तुम भी कैसे हो-जहा गड़ गए, वहा से हिलते भी नहीं। देखो, मेरी तरफ देखो। सारे संसार का भ्रमण करता हू, जहा मरजी हो, वहा जाता हू। आनंद ही आनंद हैं। मौज ही मौज हैं। 
‘‘पत्थर ने धीमी आवाज में, लेकिन शिष्ट स्वर में उत्तर दिया-‘‘बंधु ! मुझे देखकर लोग दूरी का अनुमान लगाकर संतुष्ट हो जाते हैं। उन्हं लगता हैं कि अब उनका गंतव्य पास हैं। यह संतोष क्या कम हैं, जो मै सेवा-धर्म के नाते उन्हे दे पाता हू। फिर मैं क्यों निरूद्देश्य तुम्हारी तरह भटकता फिरू। वह तुम्ही को मुबारक ! मुझे तो मेरी यही सेवा ठीक लगती हैं। 
’’ राहगीर निरूत्तर हो एक सीखलेकर आगे बढ़ गया।

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