मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

प्रवाह

प्रवाह इसीलिए हैं, ताकि पूर्णता पाई जा सके। इस जगत में जड़ हो या फिर चेतन, सभी जाने-अनजाने प्रवाहित हो रहे हैं। काल के किनारों के सहारे सब-के-सब बहे जा रहे हैं। सृजन , स्थिति, विलय के पड़ावों को पार करता हुआ जड़ जगत प्रवाहित है। जन्म, बचपन, यौवन व जरावस्था के पड़ावों को पार करता हुआ जड़ जगत प्रवाहित हैं। जन्म बचपन, यौवन व जरारवस्था के पड़ावों को पार करते हुए चेतन जगत की चैतन्यता भी प्रवाहमान हैं। गहराई से देखा जाए तो ठहराव व स्थिरता कहीं दिखाई ही नहीं देती। बाबा फरीद शेख यही सोचते हुए सुबह घूमकर लौट रहे थे।
लौटते समय उन्होंने नदी तट पर छोटे से झरने का मिलना देखा। राह के सूखे पत्तों को हटाकर वह छोटा सा झरना भागकर नदी से मिल रहा था-उसकी दौड़, फिर नदी में उसका आनंदपूर्ण मिलन। फिर उन्होने देखा-अरे! यह नदी भी तो भाग रही हैं। सागर से मिलने के लिए, असीम में खोने के लिए। पूर्ण को पाने के लिए यह समस्त जीवन और जगत राह के सूखे और मृत पत्तों को हटाता हुआ भागा जा रहा हैं।

क्योंकि सीमा में संताप हैं, अपूर्णता में अतृप्ति है, बूंद में दुःख है। सुख तो सागर की सम्पूर्णता में हैं। मनुष्य के सभी दुःखों का कारण उसका अहं की बूंद पर अटक जाना हैं। इस अटकन के कारण ही वह जीवन के अनंत प्रवाह से खंडित हो गया हैं। इस भांति वह अपने ही हाथों सूरज को खोकर दीये की धुंधली लौ में तृप्ति खोजने के चक्कर में परेशान हैं। यहा न तो उसे तृप्ति मिल सकती हैं और न ही परेशानी मिट सकती हैं क्योंकि बूंद, बूंद बनी रहकर कैसे तृप्त हो सकती हैं ! तृप्ति के लिए तो उसे सागर की संपूर्णता की ओर बहना होगा।

प्रवाहित हुए बिना न तो प्रसन्न्ता हैं और न पूर्णता। प्रसन्नता और पूर्णता की अनुभूति पाने के लिए बूंद को मिटना होगा - बहना होगा। उसे सागर की ओर प्रवाहित होकर सागर में मिलना होगा। अहं में अटके-भटके मनुष्य को भी जीवन की धारा में प्रवाहित होकर अनंत ब्रह्म बनना होगा। ‘अहं’ प्रवाह में विलीन हो ब्रह्म बने, तभी संतृप्ति व संपूर्णता संभव हैं।

अखण्ड ज्योति मई 2010

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