रविवार, 1 अगस्त 2010

ध्यान के समान कोई तीर्थ नहीं

एक बार स्वामी विवेकानंद जी मेरठ आए। उनको पढ़ने का खूब शौक था। इसलिए वे अपने शिष्य अखंडानंद द्वारा पुस्तकालय से पुस्तकें पढ़ने के लिए मँगवाते थे। केवल एक ही दिन में पुस्तक पढ़कर वापस करने के कारण ग्रंथपाल क्रोधित हो गया। उसने ग्रंथपाल से कहा कि रोज-रोज पुस्तकें बदलने में मुझे तकलीफ होती है। आप यह पुस्तक पढ़ते हैं कि केवल पन्ने ही बदलते हैं? 

अखंडानंद ने यह बात स्वामी जी को बताई तो वे स्वयं पुस्तकालय में गए और ग्रंथपाल से कहा ये सब पुस्तकें मैंने मँगवाई थीं। ये सब पुस्तकें मैंने पढ़ी हैं। आप मुझसे इन पुस्तकों में से कोई भी प्रश्न पूछ सकते हैं। ग्रंथपाल को शंका थी कि पुस्तकों को पढ़ने समझने के लिए समय तो चाहिए। इसलिए उसने अपनी शंका के समाधान के लिए बहुत सारे प्रश्न पूछे। 

स्वामी विवेकानंद ने प्रत्येक प्रश्न का जवाब तो ठीक दिया ही, पर यह भी बता दिया कि वह प्रश्न पुस्तक के किस पृष्ठ पर है। तब ग्रंथपाल स्वामी जी की मेधा स्मरण शक्ति देखकर ग्रंथपाल आश्चर्यचकित हो गया। ऐसी स्मरण शक्ति का रहस्य पूछा। स्वामी विवेकानंद ने कहा - पढ़ने के लिए जरूरी है एकाग्रता और एकाग्रता के लिए जरूरी है ध्यान। ध्यान के द्वारा ही हम इंद्रियों पर संयम रख सकते हैं। 

कोई टिप्पणी नहीं:

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin