शनिवार, 31 जुलाई 2010

वास्तविक स्रोत की खोज

जब तुम किसी मित्र से मिलो और अचानक तुम्हारे हृदय में हर्ष उठे तो उस हर्ष पर अपने को एकाग्र करो। उस हर्ष को महसूस करो और हर्ष ही हो जाआ॓। और तब हर्ष से भरकर बोधपूर्ण रहते हुए अपने मित्र को मिलो। मित्र को बस परिधि पर रहने दो और तुम अपने सुखभाव में केंद्रित रहो। -ओशो

अन्य कई स्थितियों में भी यह किया जा सकता है। सूरज उग रहा है और अचानक तुम अपने भीतर भी कुछ उगते हुए अनुभव करते हो। तब सूरज को भूल जाआ॓, उसे परिधि पर ही रहने दो। तुम उठती हुई ऊर्जा के अपने भाव में केंद्रित हो जाआ॓। जब तुम उस पर अपना बोध डालोगे, तब वह भाव फैलने लगेगा।

वह तुम्हारा पूरा शरीर, पूरा अस्तित्व ही बन जाएगा। और बस उसे देखने वाले ही मत बने रहो, उसमें विलीन हो जाआ॓। कुछ क्षण होते हैं जब तुम हर्ष, सुख और आनंद का अनुभव करते हो, लेकिन तुम उन्हें चूकते रहते हो क्योंकि तुम विषय-केंद्रित हो जाते हो।

जब भी प्रसन्नता आती है, तुम समझते हो कि वह बाहर से आ रही है। तुम किसी मित्र से मिले- स्वभावत: ऐसा लगता है कि सुख तुम्हारे मित्र से आ रहा है, उसे देखने के कारण आ रहा है। यह वास्तविक तथ्य नहीं है। सुख सदा तुम्हारे भीतर है। मित्र तो केवल परिस्थिति बन गया है। मित्र ने हर्ष को बाहर आने में सहयोग दिया, तुम्हें हर्ष को देखने में सहयोग दिया।

ऐसा हर्ष के साथ ही नहीं, वरन हर चीज के साथ है। क्रोध के साथ, उदासी के साथ, दुख के साथ, सुख के साथ, हर चीज के साथ ऐसा ही है। दूसरे तो केवल परिस्थिति हैं जिनमें तुम्हारे भीतर छिपी चीजें अभिव्यक्त हो जाती हैं। वे कारण नहीं हैं। वे तुम्हारे भीतर कुछ उत्पन्न नहीं कर रहे। जो भी हो रहा है, तुम्हें ही हो रहा है। वह तो सदा से ही भीतर मौजूद रहा है। बस इतना ही हुआ है कि उस मित्र का मिलना एक परिस्थिति बन गया जिसमें छिपा हुआ जो था, वह खुले में आ गया- छिपे हुए स्रोत से बाहर निकल आया- वह प्रकट हो गया, व्यक्त हो गया।

जब भी ऐसा हो, आंतरिक अनुभूति में केंद्रित बने रहो, और तब जीवन में हर चीज के प्रति तुम्हारा भिन्न ही दृष्टिकोण होगा। नकारात्मक भावदशाओं के साथ भी ऐसा ही करो। जब क्रोध उठे तो उस व्यक्ति पर केंद्रित मत हो जाना जिसने क्रोध को जगाया है। उसे परिधि पर ही बना रहने दो। तुम क्रोध ही बन जाआ॓।

क्रोध को उसकी पूर्णता में अनुभव करो। भीतर उसे उठने दो। उसकी व्याख्या मत करो, भीतर उसे उठने दो। उसकी व्याख्या मत करो। मत कहो कि उस व्यक्ति ने क्रोध दिलाया है। उस व्यक्ति की निंदा मत करो। वह तो केवल परिस्थिति बन गया है। बल्कि उसके प्रति अनुगृहीत होआ॓ कि उसने छिपी हुई चीज को खुले में लाने में तुम्हारी मदद की।

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