शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

उगना और चुगना.

दो बीज वसंत के मौसम में उपजाऊ मिटी मे पास -पास पड़े थे । पहले बीज ने कहा , 'में उगना चाहता हूँ ! में अपनी जड़े जमीं की गहराई में भेजना चाहता हूँ और अपने अंकुरों को जमीं के परत के ऊपर धकेलना चाहता हूँ ...वसंत के आगमन की घोषणा करने के लिए मैं अपनी कोमल कलियों को झंडो की तरह लहराऊंगा.. अपने चेहरे पर सूरज की गर्मी और अपनी पंखुडियों पर सुबह की ओस महसूस करना चाहता हूँ '

इसलिए वह बीज उग गया ।

दुसरे बीज ने कहा ,

'मुझे डर लग रहा है, अगर मैंने अपनी जड़े जमीं के नीचे भेजी ,तों क्या पता अंधेरे में वहां क्या मिलेगा? अगर मैंने अपने ऊपर की कठोर जमीं में अपने अंकुर गडाये तो हो सकता है की मेरे नाजुक अंकुरों को नुकसान हो जाए ... अगर मैंने कलियाँ खोली , और कही घोंघे ने उन्हें खाने की कोशिश की , तो क्या होगा ? अगर मैंने अपनी फूल की पंखुडिया खोली तो कोई भी छोटा बच्चा मुझे उखाड़ सकता है । नही, अच्छा यही रहेगा की मैं सब कुछ सुरक्षित होने तक यही इंतजार करूं । 'इसलिए वह बीज इन्तजार करता रहा ।

एक दिन एक मुर्गी मैदान में खाना खोज रही थी, तभी उसे वह बीज दिखायी दे गया और उसने झट से उसे खा लिया ।

डरना किसी चीज का हल नही है । आप अन्धेरें में जाने से डरेंगे तो हो सकता है की बिजली की कड़क भी आपको भरी रौशनी में नष्ट करने को तैयार मिले ।

1 टिप्पणी:

Sunil Kumar ने कहा…

ज्ञान वर्धक रचना अच्छी लगी बधाई

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