शनिवार, 31 जुलाई 2010

मक्खियाँ और शीरा


एक बार एक रेलवे स्टेशन पर मालगाड़ी से शीरे के बड़े-बड़े ड्रम उतारे जा रहे थे। उन ड्रमों से थोड़ा-थोड़ा शीरा मालगाड़ी के पास नीचे ज़मीन पर गिर कर टपक रहा था।

जहाँ शीरा गिरा था मक्खियाँ आकर बैठ गई और शीरा चाटने लगीं। ऐसा करने से उनके छोटे-छोटे मुलायम पंख उस शीरे में ही चिपक गए, फिर भी मक्खियों ने उधर ध्यान न देकर शीरे का लालच न छोड़ा और काफ़ी देर तक शीरा चाटने में ही मगन रहीं।

कुछ समय बाद वहाँ एक कुत्ता भी आ गया। कुत्ते को देखकर वे मक्खियाँ डरीं और वहाँ से उड़ने की कोशिश करने लगीं, परंतु पंख शीरे में चिपक जाने के कारण वे उड़ नहीं सकीं और शीरे के साथ-साथ वे सब भी कुत्ते का भोजन बनती गई।

उसी समय उड़ते-उड़ते और कई मक्खियाँ भी आयी उन लोगों ने उस नज़ारे को देखने के बावजूद भी उसे नजरंदाज करती रही और शीरे पर आकर बैठती गई। थोडी देर में उन सबके पंख भी शीरे में चिपक गए और वे भी उस कुत्ते का भोजन बन गई। उन्होंने पहले से पड़ी मक्खियों की दुर्गति और विनाश देखकर भी उनसे कोई सीख नहीं ली, जबकि वही विनाश उनकी भी प्रतीक्षा कर रहा था।

यही दशा इस संसार की है। मनुष्य देखता है कि लोभ-मोह किस तरह आदमी को दुर्गति में, संकट में डालता है, फिर भी वह दुनिया के इन दुर्गुणों से बचने की कोशिश कम ही करता है। परिणामत: अनेक मनुष्यों की भी वही दुर्गति होती है, जो उन लोभी मक्खियों की हुई।

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