गुरुवार, 22 जुलाई 2010

प्रसन्नता की विभूति

प्रसन्न रह सकना इस संसार का बहुत बडा सुख हैं। हर कोई प्रसन्नता चाहता हैं, आनन्द की खोज में हैं और विनोद तथा उल्लासमयी परिस्थितियों को ढूंढता हैं। यह आकांक्षा निश्चय ही पूर्ण हो सकती हैं, यदि हम बुराइयों की उपेक्षा करना और अच्छाइयों से लिपटे रहना पसन्द करें। इस संसार में सभी कुछ हैं अच्छाई भी कम नहीं हैं। बुरे आदमियों में से भी अच्छाई ढूंढे। आपत्तियों से जो शिक्षा मिलती हैं, उसे कठोर अध्यापक द्वारा कान ऐंठकर दी हुई सिखावन की तरह सीखें। उपकारों को स्मरण रखें। जहॉं जो कुछ श्रेष्ट हो रहा हैं, उसे सुने और समझें। `अच्छा देखों और प्रसन्न रहो´ का मन्त्र हमें भली प्रकार जपना और हृदयंगम करना चाहिए। 

भाव में प्रसन्नता को सम्मिलित कर लेने में जीवन की बहुत बड़ी सार्थकता और सफलता सिन्नहित हैं। मुंह लटकाए रहने की, रूठने की, भवें तरेरे रहने की आदत छोड़ देनी चाहिए। हंसते और मुस्कराते रहने वाले का आधा डर तो अपने आप ही चला जाता हैं और आधे डर को वह अपने पुरुषार्थ तथा स्वजनों के सहयोग से दूर कर लेता हैं। प्रसन्नता, मित्र बढ़ाने का सर्वश्रेष्ठ उपाय हैं। जो हंसता हैं उसकी हंसी में सम्मिलित रहने के लिए दसियों व्यक्ति लालायित रहते हैं। 
युग निर्माण योजना-जुलाई १० 

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