सोमवार, 26 अप्रैल 2010

क्रोध का कलंक

विश्वामित्र अत्यंत क्रोधी स्वभाव के थे। उन्हें इस बात का दुख सताता रहता था कि ऋषि वशिष्ठ उन्हें ब्रह्मर्षि नहीं मानते। एक दिन उन्होंने सोचा, ‘आज मैं वशिष्ठ को मारकर ही रहूंगा। तब फिर कोई मुझे ब्रह्मर्षि की जगह राजर्षि कहने वाला नहीं रहेगा।’ वह एक तलवार लेकर उस वृक्ष पर जा बैठे जिसके नीचे महर्षि वशिष्ठ अपने शिष्यों को पढ़ाते थे। थोड़ी देर के बाद वशिष्ठ अपने शिष्यों के साथ उस वृक्ष के नीचे आ बैठे। पूर्णिमा का चांद निकल आया। विश्वामित्र ने सोचा कि छात्रों के जाते ही वह वशिष्ठ को मार डालेंगे। तभी एक छात्र बोल उठा, ‘कितना सलोना चांद है। कितनी सुंदरता है उसके भीतर।’ वशिष्ठ बोले, ‘यदि तुम ऋषि विश्वामित्र को देखो तो इस चांद को भूल जाओगे। यह चांद सुंदर अवश्य है, पर ऋषि विश्वामित्र इससे भी ज्यादा सुंदर हैं। यदि उनके भीतर क्रोध न हो तो वह सूर्य की भांति चमक उठें।’

छात्र बोला, ‘गुरुदेव ऐसा आप कह रहे हैं, पर वह तो आपके शत्रु हैं। सदैव आपकी निंदा करते रहते हैं।’ वशिष्ठ ने कहा, ‘जानता हूं, मगर मैं इन बातों पर ध्यान नहीं देता। सच तो यह है कि वह मुझसे ज्यादा विद्वान हैं। उन्होंने मुझसे ज्यादा तप किया है। तुम्हें नहीं मालूम मैं उनका कितना सम्मान करता हूं।’

पेड़ पर बैठे विश्वामित्र यह सुनकर हैरान रह गए। वह पश्चाताप से भर उठे। वह वशिष्ठ को मारना चाहते थे पर वशिष्ठ तो उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे। वह उसी समय पेड़ से कूदे। उन्होंने तलवार फेंकी और वशिष्ठ के चरणों में गिरकर बोले, ‘मुझे क्षमा करें ऋषिवर।’ वशिष्ठ ने उन्हें उठाते हुए कहा, ‘उठिए ब्रह्मर्षि।’ विश्वामित्र ने आश्चर्य से कहा, ‘ब्रह्मर्षि! आपने मुझे ब्रह्मर्षि कहा? पर आप तो मुझे ब्रह्मर्षि का दर्जा देते नहीं। आप तो सदैव मुझे राजर्षि कहते हैं।’ वशिष्ठ ने कहा, ‘आज से आप ब्रह्मर्षि हुए। आप ने अपने क्रोध पर विजय पा ली है। आप में एकमात्र दोष यही था, अब उसे भी आपने दूर कर लिया।’ यह कहकर वशिष्ठ ने विश्वामित्र को गले लगा लिया।

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