शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

देव संस्कृति विश्वविद्यालय

देव संस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार में स्थित है। इस संस्थान की स्थापना गायत्री परिवार के पितृपुरुष श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा 11 अप्रैल 2002 में की गयी।

उद्देश्य 
इस संस्थान में राष्ट्र के युवाओं को निखार-संवार कर श्रेष्ठतम नागरिक, समर्पित स्वयंसेवक, प्रखर राष्ट्रभक्त एवं विषय-विशेषज्ञ बनाने के साथ-साथ महामानव और देव मानव बनाना है, जिससे मनुष्य में देवत्य उतरे और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न साकार हो सके।

उपलब्ध पाठ्यक्रम
इस संस्थान में राष्ट्र के युवाओं को निखार-संवार कर श्रेष्ठतम नागरिक, समर्पित स्वयंसेवक, प्रखर राष्ट्रभक्त एवं विषय-विशेषज्ञ बनाने के साथ-साथ महामानव और देव मानव बनाना है, जिससे मनुष्य में देवत्य उतरे और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न साकार हो सके।

संस्थान का विवरण
देव संस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना का विचार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम आचार्य एवं शक्ति स्वरूपा परम् वंदनीया माता भगवतीदेवी शर्मा को भाव-समाधि में चार दशक पूर्व हुआ। समाधि टूटने पर उन्होंने कहा-‘धरती पर जब भी नया जीवन अंकुरित हुआ, वह विश्वविद्यालय के रूप में हुआ। जब भी नए मनुष्य गढ़े गए, उन्हें नई दिशा मिली, ऐसे विश्वविद्यालय की स्थापना मेरा भी स्वप्न है। मेरे स्वप्न दिवा नहीं दिव्य होते हैं और वे कभी अधूरे नहीं रहते।

अतः देव संस्कृति विश्वविद्यालय उनके दिव्य स्वप्न का मूर्तरूप ले चुकी इस युग की एक अभिनय संस्था है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना उत्तरांचल विधानसभा से पारित ‘देव संस्कृति विश्वविद्यालय विधेयक 2002’ (संख्या 123/विधायी एवं संसदीय कार्य/2002, देहरादून 11 अप्रैल 2002) के अन्तर्गत वेदमाता गायत्री ट्रस्ट, शांतिकुंज, हरिद्वार द्वारा की गई है। अखिल विश्व गायत्री परिवार के प्रमुख एवं ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के निदेशक, डॉ. प्रणव पंड्या इस विश्वविद्यालय के प्रथम कुलाधिपति हैं।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना का उद्देश्य राष्ट्र के युवाओं को निखार-संवार कर श्रेष्ठतम नागरिक, समर्पित स्वयंसेवक, प्रखर राष्ट्रभक्त एवं विषय-विशेषज्ञ बनाने के साथ-साथ महामानव और देव मानव बनाना है, जिससे मनुष्य में देवत्य उतरे और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न साकार हो सके।

1. देव-संस्कृति के विकास हेतु अथक प्रयास।

2. देव-संस्कृति पर आधारित ज्ञान की धाराओं-धर्म, दर्शन, संस्कृति आदि पर आधारित पाठ्यक्रमों का शिक्षण एवं इनके समसामयिक बिंदुओं पर शोध।

3. देव-संस्कृति पर आधारित विज्ञान की धाराओं-गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, मंत्र-विज्ञान, योग-विज्ञान, मनोविज्ञान आदि से संबंधित पाठ्यक्रमों का अध्यापन एवं इनके समसामयिक बिंदुओं पर वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में शोध।

4. गुरुदेव के विचारों पर आधारित नवीन सामाजिक संरचना के लिए आवश्यक रोजगारपरक पाठ्यक्रमों का शिक्षण, आपदा प्रबंधन, ग्राम प्रबंधन, विद्यालय प्रबंधन आदि पर अध्ययन एवं शोध।

संसाधन
देव संस्कृति विश्वविद्यालय लगभग 30 हजार वर्गमीटर में निर्मित, निर्माणाधीन और प्रस्तावित भवनों का क्षेत्र है। शिक्षण के लिए निर्मित ‘तक्षशिला’ भवन तीन मंजिला है, जिसमें 30 बड़े हॉल हैं। इनमें 18 क्लास रूम, 1 सभागार, 1 समिति कक्ष, 1 कंप्यूटर कक्ष, 2 ग्रंथालय, 3 प्रयोगशालाएं, 1 भंडारगृह एवं 4 प्रशासनिक कक्ष हैं। छात्रावास, आवास, आयुर्वेद-अनुसंधान, फार्मेसी, प्रशासनिक, स्वावलंबन, सभागार, ध्यान कक्ष आदि भवनों के स्थान सुरक्षित हैं, जो विश्वविद्यालय को दिव्य स्वरूप प्रदान करते हैं।

अध्यापकों तथा अन्य कर्मचारियों हेतु आवास की पूर्ण व्यवस्था है। एक अतिथिगृह के साथ-साथ यज्ञशाला की व्यवस्था हो चुकी है। खेलकूद तथा व्यायामशाला के लिए आवश्यक सुविधाएँ विद्यमान हैं। प्रस्तावित भवनों में भव्य पुस्तकालय एवं छात्र-छात्राओं के लिए छात्रावास के निर्माण का कार्य आरंभ हो चुका है। तक्षशिला भवन के साथ ही महाकाल मंदिर की स्थापना भी हो चुकी है।

प्रयोगशालएँ
देव संस्कृति विश्वविद्यालय में शिक्षा, स्वास्थ्य, साधना, स्वावलंबन इन चारों संकायों की अलग-अलग प्रयोगशालाएं स्थापित की जा रही हैं, जिनमें आवश्यक आधुनिक उपकरणों, साज-सामान तथा ज्ञान-विज्ञान के शोध के लिए सुविधाएँ उपलब्ध होंगी, सभी तर्क तथा तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किए जा सकेंगे।

इस समय मनोविज्ञान तथा योग की आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित प्रयोगशालाएँ बन चुकी हैं। इनके अतिरिक्त ब्रह्मवर्चस की शोध प्रयोगशालाएं भी विद्यार्थियों एवं शोध छात्रों के लिए उपलब्ध हैं, जिनमें आधुनिक उपकरणों, कंप्यूटर एवं इलेक्ट्रोनिक्स के विभिन्न यंत्रों के द्वारा तप, तितिक्षा, आहार, साधना, ध्यान, धारणा, योग, कल्प प्रक्रिया, प्रायश्चित विधान आदि के मनोवैज्ञानिक प्रभावों का अध्ययन किया जा सकता है। औषधीय जड़ी-बूटियों की सूक्ष्म शक्ति का शरीर, मन, वातावरण, वनस्पतियों पर प्रभाव तथा यज्ञोपैथी, मंत्रशक्ति, संगीत आदि के प्रभाव के शोधपरक अध्ययन की सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं।

विश्वविद्यालय का शिक्षण एवं शोध चार संकायों-शिक्षा, स्वास्थ्य, साधना और स्वावलम्बन द्वारा संचालित होगा। प्रारंभिक अवस्था में शिक्षा संकाय के अन्तर्गत केवल मनोविज्ञान तथा योग विषय में एम.ए./ एम.एस.सी. तथा योग के डिप्लोमा और सर्टिफिकेट के पाठ्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं। विश्वविद्यालय के भाषा विभाग द्वारा अंग्रेजी में डिप्लोमा एवं सर्टिफिकेट के कोर्स आरंभ किए जा चुके हैं।

शोध क्षेत्र में पी.एच.डी. हेतु पंजीयन किए जा रहे हैं।

जनवरी 2003 से धर्म विज्ञान के विशेष सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम का भी शुभारंभ हो चुका है।

कैसे पहुँचें
रेलवे स्टेशन/बस स्टैण्ड से सीधे चलते हुए देवपुरा होते हुए मायापुर से नेशनल हाईवे होते हुए चण्डीघाट से भूपतवाला से दाईं तरफ देहरादून रोड़ पर देव संस्कृति विश्वविद्यालय स्थित है। यहां पर कार से पहुंचने में 20 मिनट, आटौ रिक्शा से पहुंचने में 30 मिनट, एवं पैदल पहुंचने में 40 मिनट लगते हैं।

पता
देव संस्कृति विश्वविद्यालय, शांतिकुंज, हरिद्वार-249411
फोन नं. : +91-1334 261367, 262094 फैक्स नं. : +91-1334 260723
ई. मेल : registrar@dsvv.org वेब साइट : www.dsvv.org

सद्विचार - 2


1- हम अपनी कमियों को पहचानें और इन्हें हटाने और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियाँ स्थापित करने का उपाय सोचें, इसी में अपना व मानव मात्र का कल्याण है । 
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2- प्रगति के लिए संघर्ष करो । अनीति को रोकने के लिए संघर्ष करो और इसलिए भी संघर्ष करो कि संघर्ष के कारणों का अन्त हो सके । 

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3- धर्म की रक्षा और अधर्म का उन्मूलन करना ही अवतार और उसके अनुयायियों का कर्त्तव्य है । इसमें चाहे निजी हानि कितनी ही होती हो, कठिनाई कितनी ही उठानी पड़ती हों । 
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4- अवतार व्यक्ति के रूप में नहीं, आदर्शवादी प्रवाह के रूप में होते हैं और हर जीवन्त आत्मा को युगधर्म निबाहने के लिए बाधित करते हैं । 

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5- शरीर और मन की प्रसन्नता के लिए जिसने आत्म-प्रयोजन का बलिदान कर दिया, उससे बढ़कर अभागा एवं दुर्बुद्धि और कौन हो सकता है?
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6- जीवन के आनन्द गौरव के साथ, सम्मान के साथ और स्वाभिमान के साथ जीने में है । 

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7- आचारनिष्ठ उपदेशक ही परिवर्तन लाने में सफल हो सकते हैं । अनधिकारी धर्मोपदेशक खोटे सिक्के की तरह मात्र विक्षोभ और अविश्वास ही भड़काते हैं । 
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8- इन दिनों जाग्रत् आत्मा मूक दर्शक बनकर न रहे । बिना किसी के समर्थन, विरोध की परवाह किए आत्म-प्रेरणा के सहारे स्वयंमेव अपनी दिशाधारा का निर्माण-निर्धारण करें ।
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9- जो भौतिक महत्त्वाकांक्षियों की बेतरह कटौती करते हुए समय की पुकार पूरी करने के लिए बढ़े-चढ़े अनुदान प्रस्तुत करते और जिसमें महान् परम्परा छोड़ जाने की ललक उफनती रहे, यही है-प्रज्ञापुत्र शब्द का अर्थ
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10- दैवी शक्तियों के अवतरण के लिए पहली शर्त है- साधक की पात्रता, पवित्रता और प्रामाणिकता ।
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11- आशावादी हर कठिनाई में अवसर देखता है, पर निराशावादी प्रत्येक अवसर में कठिनाइयाँ ही खोजता है । 

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12- चरित्रवान् व्यक्ति ही किसी राष्ट्र की वास्तविक सम्पदा है । 
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13- व्यक्तिगत स्वार्थों का उत्सर्ग सामाजिक प्रगति के लिए करने की परम्परा जब तक प्रचलित न होगी, तब तक कोई राष्ट्र सच्चे अर्थों में सार्मथ्यवान् नहीं बन सकता है । 
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14- युग निर्माण योजना का लक्ष्य है-शुचिता, पवित्रता, सच्चरित्रता, समता, उदारता, सहकारिता उत्पन्न करना । 

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15- भुजाएँ साक्षात् हनुमान हैं और मस्तिष्क गणेश, इनके निरन्तर साथ रहते हुए किसी को दरिद्र रहने की आवश्यकता नहीं । 
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16- विद्या की आकांक्षा यदि सच्ची हो, गहरी हो तो उसके रहते कोई व्यक्ति कदापि मूर्ख, अशिक्षित नहीं रह सकता । 

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17- मनुष्य दुःखी, निराशा, चिंतित, उदिग्न बैठा रहता हो तो समझना चाहिए सही सोचने की विधि से अपरिचित होने का ही यह परिणाम है । 
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18- धर्म अंतःकरण को प्रभावित और प्रशासित करता है, उसमें उत्कृष्टता अपनाने, आदर्शों को कार्यान्वित करने की उमंग उत्पन्न करता है । 
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19- जीवन साधना का अर्थ है- अपने समय, श्रम और साधनों का कण-कण उपयोगी दिशा में नियोजित किये रहना । 
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20- निकृष्ट चिंतन एवं घृणित कर्तृत्व हमारी गौरव गरिमा पर लगा हुआ कलंक है । 
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21- आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है ।  हम कोई ऐसा काम न करें, जिसमें अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कारे । 
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22- अपनी दुष्टताएँ दूसरों से छिपाकर रखी जा सकती हैं, पर अपने आप से कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता । 
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23- किसी महान् उद्देश्य की ओर न चलना उतनी लज्जा की बात नहीं होती, जितनी कि चलने के बाद कठिनाइयों के भय से पीछे हट जाना । 
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24- महानता का गुण न तो किसी के लिए सुरक्षित है और न प्रतिबंधित । जो चाहे अपनी शुभेच्छाओं से उसे प्राप्त कर सकता है । 

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सद्विचार - 1


1- इस संसार में प्यार करने लायक दो वस्तुएँ हैं-एक दुःख और दूसरा श्रम । दुख के बिना हृदय निर्मल नहीं होता और श्रम के बिना मनुष्यत्व का विकास नहीं होता ।
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2- ज्ञान का अर्थ है-जानने की शक्ति । झूठ को सच से पृथक् करने वाली जो विवेक बुद्धि है-उसी का नाम ज्ञान है । 

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3- अध्ययन, विचार, मनन, विश्वास एवं आचरण द्वार जब एक मार्ग को मजबूती से पकड़ लिया जाता है, तो अभीष्ट उद्देश्य को प्राप्त करना बहुत सरल हो जाता है । 
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4- आदर्शों के प्रति श्रद्धा और कर्तव्य के प्रति लगन का जहाँ भी उदय हो रहा है, समझना चाहिए कि वहाँ किसी देवमानव का आविर्भाव हो रहा है । 

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5- कुचक्र, छद्म और आतंक के बलबूते उपार्जित की गई सफलताएँ जादू के तमाशे में हथेली पर सरसों जमाने जैसे चमत्कार दिखाकर तिरोहित हो जाती हैं । बिना जड़ का पेड़ कब तक टिकेगा और किस प्रकार फलेगा-फूलेगा । 
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6- जो दूसरों को धोखा देना चाहता है, वास्तव में वह अपने आपको ही धोखा देता है । 
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7- समर्पण का अर्थ है-पूर्णरूपेण प्रभु को हृदय में स्वीकार करना, उनकी इच्छा, प्रेरणाओं के प्रति सदैव जागरूक रहना और जीवन के प्रत्येक क्षण में उसे परिणत करते रहना । 
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8- मनोविकार भले ही छोटे हों या बड़े, यह शत्रु के समान हैं और प्रताड़ना के ही योग्य हैं । 
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9- सबसे महान् धर्म है, अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनना । 
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10- सद्व्यवहार में शक्ति है । जो सोचता है कि मैं दूसरों के काम आ सकने के लिए कुछ करूँ, वही आत्मोन्नति का सच्चा पथिक है ।
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11- जिनका प्रत्येक कर्म भगवान् को, आदर्शों को समर्पित होता है, वही सबसे बड़ा योगी है । 

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12- कोई भी कठिनाई क्यों न हो, अगर हम सचमुच शान्त रहें तो समाधान मिल जाएगा ।
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13- सत्संग और प्रवचनों का-स्वाध्याय और सदुपदेशों का तभी कुछ मूल्य है, जब उनके अनुसार कार्य करने की प्रेरणा मिले । अन्यथा यह सब भी कोरी बुद्धिमत्ता मात्र है । 

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14- सब ने सही जाग्रत् आत्माओं में से जो जीवन्त हों, वे आपत्तिकालीन समय को समझें और व्यामोह के दायरे से निकलकर बाहर आएँ । उन्हीं के बिना प्रगति का रथ रुका पड़ा है । 
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15- साधना एक पराक्रम है, संघर्ष है, जो अपनी ही दुष्प्रवृत्तियों से करना होता है । 
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16- आत्मा को निर्मल बनाकर, इंद्रियों का संयम कर उसे परमात्मा के साथ मिला देने की प्रक्रिया का नाम योग है । 
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17- जैसे कोरे कागज पर ही पत्र लिखे जा सकते हैं, लिखे हुए पर नहीं, उसी प्रकार निर्मल अंतःकरण पर ही योग की शिक्षा और साधना अंकित हो सकती है । 
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18- योग के दृष्टिकोण से तुम जो करते हो वह नहीं, बल्कि तुम कैसे करते हो, वह बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है । 
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19- यह आपत्तिकालीन समय है । आपत्ति धर्म का अर्थ है-सामान्य सुख-सुविधाओं की बात ताक पर रख देना और वह करने में जुट जाना जिसके लिए मनुष्य की गरिमा भरी अंतरात्मा पुकारती है । 
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20- जीवन के प्रकाशवान् क्षण वे हैं, जो सत्कर्म करते हुए बीते । 
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21- प्रखर और सजीव आध्यात्मिकता वह है, जिसमें अपने आपका निर्माण दुनिया वालों की अँधी भेड़चाल के अनुकरण से नहीं, वरन् स्वतंत्र विवेक के आधार पर कर सकना संभव हो सके ।
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22- बलिदान वही कर सकता है, जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है ।
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23- जिस आदर्श के व्यवहार का प्रभाव न हो, वह फिजूल है और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो, वह भयंकर है । 
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24- भगवान जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजारते हैं । 
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सोमवार, 26 अप्रैल 2010

असीमित पुण्य

एक बार गुजरात की एक रियासत की राजमाता मीलण देवी ने भगवान सोमनाथ जी का विधिवत् अभिषेक किया। उन्होंने सोने का तुलादान कर उसे सोमनाथ जी को अर्पित कर दिया। सोने का तुलादान कर उनके मन में अहंकार भर गया और वह सोचने लगीं कि आज तक किसी ने भी इस तरह भगवान का तुलादान नहीं किया होगा। इसके बाद वह अपने महल में आ गईं। रात में उन्हें भगवान सोमनाथ के दर्शन हुए। भगवान ने उनसे कहा, ‘मेरे मंदिर में एक गरीब महिला दर्शन के लिए आई है। उसके संचित पुण्य असीमित हैं। उनमें से कुछ पुण्य तुम उसे सोने की मुद्राएं देकर खरीद लो। परलोक में काम आएंगे।’

नींद टूटते ही राजमाता बेचैन हो गईं। उन्होंने अपने कर्मचारियों को मंदिर से उस महिला को राजभवन लाने के लिए कहा। कर्मचारी मंदिर पहुंचे और वहां से उस महिला को पकड़ कर ले आए। 

गरीब महिला थर-थर कांप रही थी। राजमाता ने उस गरीब महिला से कहा, ‘मुझे अपने संचित पुण्य दे दो, बदले में मैं तुम्हें सोने की मुद्रएं दूंगी।’ राजमाता की बात सुनकर वह महिला बोली, ‘महारानी जी, मुझ गरीब से भला पुण्य कार्य कैसे हो सकते हैं। मैं तो खुद दर-दर भीख मांगती हूं। भीख में मिले चने चबाते-चबाते मैं तीर्थयात्रा को निकली थी।

कल मंदिर में दर्शन करने से पहले एक मुट्ठी सत्तू मुझे किसी ने दिए थे। उसमें से आधे सत्तू से मैंने भगवान सोमेश्वर को भोग लगाया तथा बाकी सत्तू एक भूखे भिखारी को खिला दिया। जब मैं भगवान को ठीक ढंग से प्रसाद ही नहीं चढ़ा पाई तो मुझे पुण्य कहां से मिलेगा?’ गरीब महिला की बात सुनकर राजमाता का अहंकार नष्ट हो गया। वह समझ गईं कि नि:स्वार्थ समर्पण की भावना से प्रसन्न होकर ही भगवान सोमेश्वर ने उस महिला को असीमित पुण्य प्रदान किए हैं। इसके बाद राजमाता ने अहंकार त्याग दिया और मानव सेवा को ही अपना सवोर्परि धर्म बना लिया ।

मुनि की क्षमाशीलता

एक बार राजा श्रोणिक शिकार करने जंगल में गए। वहां उन्हें यशोधर मुनि तपस्या करते हुए दिखे। राजा को लगा कि उनकी वजह से उन्हें शिकार करने को नहीं मिलेगा। तभी सामने एक लंबा सांप आता दिखाई दिया। राजा ने गुस्से में उस सांप की गर्दन काट कर सांप को मुनि के गले में डाल दिया और महल लौट आए। जब उन्होंने रानी चेलना से इस घटना का जिक्र किया तो वह बहुत दुखी हुईं और बोलीं, ‘यह तो आपने बहुत गलत काम किया है।’

रानी उन्हें साथ लेकर वहां पहुंचीं जहां, मुनि तपस्या कर रहे थे। उस मरे हुए सांप की वजह से ढेर सारी चींटियां मुनि के शरीर पर चढ़ गईं थीं। रानी ने नीचे जमीन पर चीनी डाल दी, तो धीरे-धीरे सारी चींटियां नीचे उतर आईं। फिर उन्होंने उस मरे हुए सांप को दूर फेंका और शरीर को आहिस्ता-आहिस्ता स्वच्छ करके वहां चंदन का तेल लगा दिया, जहां पर चींटियों ने काट लिया था।

फिर राजा-रानी हाथ जोड़कर खड़े हो गए। मुनि ने आंखें खोलीं और पहले राजा श्रेणिक और फिर रानी चेलना को आशीर्वाद दिया। राजा श्रोणिक रोने लगे। उन्होंने साफ-साफ बता दिया कि उन्होंने मुनि के साथ क्या किया था। उन्होंने यह भी कहा कि वह आशीर्वाद के पात्र नहीं हैं, उसकी असल हकदार तो चेलना है। मुनि मुस्कराते हुए बोले, ‘चेलना तो है ही, पर तुम भी इसके पात्र हो क्योंकि तुमने अपनी गलती स्वीकार कर ली है।’

आस्था का प्रश्न

एक राजा हर समय ईश्वर की भक्ति में डूबा रहता था। उसकी इकलौती लड़की भी उसी की तरह धर्मानुरागी थी। राजा की इच्छा थी कि वह अपनी पुत्री का विवाह ऐसे युवक के साथ करे ,जो उसी की तरह धार्मिक प्रवृत्ति का हो। एक दिन राजा को एक ध्यानमग्न युवक मिला। राजा ने उससे पूछा, ‘तुम्हारा घर कहां है?’ युवक ने उत्तर दिया, ‘ईश्वर जहां रखता है, वहीं मेरा घर है।’ राजा ने प्रश्न किया, ‘तुम्हारे पास कुछ सामान है?’ युवक ने कहा, ‘प्रभु की कृपा के अलावा मेरे पास कुछ नहीं है।’ उससे प्रभावित होकर राजा ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया। विवाह के बाद राजा की बेटी पति के साथ जंगल में गई और एक पेड़ के नीचे डेरा डाला। उसने देखा कि पेड़ के कोटर में रोटी का टुकड़ा रखा है। उसने पति से पूछा , ‘यह क्या है?’ पति ने जवाब दिया, ‘आज रात इससे काम चलेगा, इसलिए इसे कल बचाकर छोड़ा था।’

यह सुनकर राजकन्या रोने लगी और अपने पिता के घर लौटने की तैयारी करने लग गई। पति ने कहा, ‘मैं जानता था कि यही होगा। तुम्हारा लालन-पालन महल में हुआ है, तुम मुझ जैसे गरीब के साथ निभा नहीं सकोगी।’ राजा की बेटी ने उत्तर दिया, ‘मैं गरीबी से नहीं डरती। मुझे दुख इस बात का है कि ईश्वर के प्रति आपका पूर्ण विश्वास नहीं है। इसी से आपने सोचा कि कल क्या खाएंगे और रोटी का टुकड़ा बचाकर रख लिया।

ईश्वर को देना होगा तो वह स्वयं देगा, हम इसकी चिंता क्यों करें। मैंने सोचा था कि मुझे ऐसा पति मिले जिसकी प्रभु भक्ति में कोई कमी न हो। इसी से मैंने आपका वरण किया पर मैं संभवत: गलत हूं।’ युवक बहुत पछताने लगा। राजकन्या ने कहा, ‘आप कान खोलकर सुन लीजिए कि आपके साथ रोटी का यह टुकड़ा रहेगा या मैं।’ यह सुनकर युवक की आंखें खुल गईं। उसने रोटी का टुकड़ा फेंक दिया।

और दो जलेबियां उठाकर भाग गई वह बालिका

शाम से ही मंदिर में भीड़ लगी हुई थी। मंदिर के बाहर जनसमुदाय उमड़ पड़ा था। भीड़ को नियंत्रण में रखने के लिए तथा जनता के जानमाल की रक्षा के लिए कई पुलिस कांस्टेबल भाग-दौड़ रहे थे। एक कांस्टेबल जो मंदिर की सीढ़ियों के ठीक नीचे तैनात था, अत्यंत ही तत्परता से आने-जाने वालों की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए उनकी सहायता भी कर रहा था। मंदिर के बाहर कुछ मिठाई की दुकानें लगी थीं।

जहां पर एक छोटी-सी बालिका बहुत देर से भीख के लिए गिड़गिड़ा रही थी। वह बहुत भूखी थी किंतु कोई उसकी ओर ध्यान नहीं दे रहा था। तभी उस बालिका ने देखा कि जलेबी की एक दुकान से दुकानदार उठकर कहीं गया है। भूख से व्याकुल उस बालिका ने धीरे-धीरे दुकान की ओर कदम बढ़ाए और फिर इधर-उधर देखकर जल्दी से दो जलेबियां अपनी मुट्ठी में भर लीं, तभी दुकानदार आ पहुंचा। उसने उसे पकड़ लिया और मार लगाई।

बालिका जोरों से रोने लगी। वहां तैनात कांस्टेबल यह सब देख रहा था। इधर उसका साथी कांस्टेबल मंदिर से वापस आकर बोला- जाओ दर्शन कर आओ। पहले कांस्टेबल ने कहा- मैं यहीं से दर्शन कर रहा हूं। फिर वह बालिका के पास आया और उसे दुकान पर ले गया। उसे जलेबी दिलवाई और कहा- खा ले बेटा!

अब चोरी मत करना। चोरी करना बुरी बात है। बालिका ने जीभरकर जलेबियां खाईं। उसे खाते देखकर जो तृप्ति और संतोष उसकी आंखों में था, वह दर्शन कर लौटने वालों की आंखों में भी नहीं था। जो व्यक्ति निर्धन, दुर्बल व दुखी प्राणियों में भगवान के दर्शन करे, वही सच्चा उपासक है। केवल मूर्ति में भगवान को देखना मात्र एक छलना है।

आखिरकार चींटी का मुंह खारा का खारा ही रहा

दो चींटियां आपस में बातें कर रही थीं। एक ने कहा- बस मुझे एक ही कष्ट है कि मेरा मुंह हर समय खारा ही रहता है। यह सुन दूसरी चींटी ने उसे मीठा पदार्थ खाने को दिया, लेकिन फिर भी उसका कष्ट दूर नहीं हुआ।

एक चींटी पेड़ के ऊपर चढ़ रही थी। ऊपर से दूसरी चींटी नीचे की ओर आ रही थी। पहली चींटी ने दूसरी चींटी से पूछा-कहो बहन, कुशल मंगल तो है? दूसरी चींटी ने कहा- क्या बताऊं बहन! और सब तो ठीक है किंतु एक कष्ट है। पहली चींटी ने कहा- बताओ बहन क्या कष्ट है? दूसरी चींटी ने कहा- मुंह का स्वाद बिगड़ा रहता है। हर समय मुंह खारा ही रहता है।

क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता। पहली चींटी ने समझ-बूझ से काम लेते हुए कहा- तुम समुद्र के किनारे रहती हो न, इसलिए ऐसा होता है। आओ मेरे साथ, मैं मीठे फल के पेड़ पर रहती हूं। तुम्हारा मुंह भी मीठा कराती हूं। पहली चींटी उसे अपने घर ले गई, जो पेड़ के तने के कोटर में था। वहां कई प्रकार के मीठे पदार्थो के छोटे-छोटे टुकड़े पड़े थे। उसने अतिथि चींटी को प्यार से कई मीठे व्यंजन खिलाए।

दूसरी चींटी ने डटकर मीठा खाया। जब वह खूब खा चुकी तो पहली चींटी ने उससे पूछा कहो बहन, अब तो तुम्हारा मुंह खारा नहीं है? किंतु दूसरी चींटी ने कहा- मेरा मुंह तो अब तक खारा है। इस पर पहली चींटी हैरानी से बोली- ऐसा कैसे हो सकता है? कहीं तुम्हारे मुंह में नमक की डली तो नहीं है? दूसरी चींटी ने कहा- सो तो है। समुद्र के किनारे रहती हूं इसलिए नमक तो मुंह में रखती ही हूं। तब पहली चींटी बोली- फिर मुंह का खारापन कैसे दूर होगा? मुंह मीठा करना है तो पहले नमक की डली बाहर थूको।

सार यह है कि ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति मनुष्य है किंतु अज्ञानतावश स्वयं को निर्बल समझकर वह दुखी रहता है। जरूरत है अपनी आंखों पर से पर्दा हटाने की। बुद्धि व परिश्रम से अपना भाग्य मनुष्य स्वयं बदल सकता है।

जब गुलाम ने बादशाह को किया लाजवाब


तैमूरलंग गुलामों को बेचने का सौदा करता था। उसने गुलाम अहमदी से अपनी स्वयं की कीमत पूछी। अहमदी ने तर्कपूर्ण जवाब दिया- दो अशर्फी। अहमदी की स्पष्टवादिता से बादशाह बेहद प्रभावित हुआ।

एक बार बादशाह तैमूरलंग ने बड़ी संख्या में गुलाम पकड़े। उसका सिद्धांत था कि पकड़े हुए गुलामों को बेचने का सौदा वह स्वयं ही मोल-भाव करके करता था। उसने अपने विश्वस्त सेवकों को आदेश दिया कि सभी गुलामों को विक्रय स्थल पर एकत्रित कर दें। जब सेवकों ने यह कार्य कर दिया, तब वह बड़ी शान से वहां पहुंचा और बैठ गया।

उसने सभी गुलामों पर एक विजयी दृष्टि डाली और फिर एक गुलाम को अपने पास बुलाया। वह गुलाम और कोई नहीं, बल्कि तुर्किस्तान के दार्शनिक अहमदी थे। तैमूरलंग ने अहमदी से प्रश्न किया- बताओ, तुम्हारे पास खड़े इन दो गुलामों की कीमत कितनी होनी चाहिए? अहमदी ने कहा- ये समझदार और मेहनती दिखाई देते हैं। अत: इनकी कीमत चार-चार हजार अशर्फियों से कम तो नहीं होनी चाहिए।

तैमूरलंग ने फिर पूछा- मेरी कीमत क्या हो सकती है? कुछ सोचकर अहमदी बोले- दो अशर्फी। विस्मित तैमूरलंग गुस्से से गरजा- मेरा इतना अपमान? इतने पैसों की तो मेरी चादर है। निर्भयता के साथ दार्शनिक अहमदी ने तैमूरलंग के तमतमाते चेहरे को देखकर कहा- यह कीमत तो मैंने तुम्हारी चादर देखकर ही बताई है। तुम्हारे जैसे अत्याचारी और अकर्मण्य बादशाह की कीमत तो एक छदाम भी नहीं हो सकती। अहमदी की निर्भीकता व स्पष्टवादिता ने तैमूरलंग का गुस्सा ठंडा कर दिया और उसने उन्हें मुक्त कर दिया।

दरअसल किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी योग्यता व कार्यक्षमता के आधार पर ही होता है। यदि व्यक्ति योग्य है और कर्मठ भी, तो वह लाख का है। इसके विपरीत अयोग्यता व अकर्मण्यता व्यक्ति को खाक का दर्जा देते हैं।

आत्मा-परमात्मा का संबंध बताया कन्फ्यूशियस ने

दार्शनिक कन्फ्यूशियस के एक शिष्य को ध्यान लगाने और मन पर संयम स्थापित करने में कठिनाई होती थी। तब उन्होंने समझाया कि अपने को पूरी तरह से आत्मा में डुबो दो, तभी तुममें संयम आएगा।

कन्फ्यूशियस अपने समय के महान दार्शनिक और धर्म मर्मज्ञ थे। उनके शिष्य उन्हें रात-दिन घेरे रहते थे। उनके एक शिष्य येनहुई को ध्यान लगाने तथा मन पर संयम रखने में बहुत कठिनाई हो रही थी।

वह कन्फ्यूशियस के पास जाकर बोला- मन पर संयम रखने के लिए क्या करना चाहिए? कन्फ्यूशियस ने कहा- मन व आत्मा में एकता स्थापित करो, जो सोचो, सुनो और देखो उसका आभास करो। येनहुई गुरु की बात बिल्कुल भी नहीं समझा।

वे फिर बोले- तुम कान से नहीं सुनते, अपने मन और आत्मा से सुनते हो। तुम्हें कोई कुछ कह रहा है, लेकिन तुम्हारा ध्यान कहीं और है तो तुम नहीं सुन सकोगे। अत: केवल कान से सुनने वाली बात गलत है। कान के साथ जब तक आत्मा नहीं होगी, मन नहीं होगा, तब तक सुनकर भी नहीं सुन सकते। यही स्थिति आंखों की भी है और मस्तिष्क की भी।

अपने को पूर्णत: आत्मा में डुबो दो, तभी संयम आएगा और ज्यों ही संयम आया, तुम धर्म का आभास कर सकोगे। तब येनहुई ने पूछा- पर गुरुदेव इसके लिए तो स्वयं का पूरा व्यक्तित्व ही खो देना पड़ेगा। फिर हमारी पहचान क्या रह जाएगी? तब कन्फ्यूशियस ने समझाया- तुम परमतत्व को पाने के लिए मन पर संयम प्राप्त करना चाहते हो और अपना व्यक्तित्व भी खोना नहीं चाहते। सागर बनने की इच्छा रखने वाली बूंद को सागर के अथाह जल में खोना ही पड़ेगा।

कथा का अभिप्राय यह है कि परमेश्वर से मिलने की इच्छा रखने वाले को यह सत्य स्वीकारना होगा कि वह उसी का एक अंश है। कुल मिलाकर गूढ़ार्थ यह है कि अहं का विसर्जन ही परमात्मा की उपलब्धि का द्वार है।

गुरू का सम्मान

गुरू धौम्य का बहुत बडा आश्रम था।आश्रम में कई शिष्य थे। उनमें अरूणि गुरू का सबसे प्रिय शिष्य था। आश्रम के पास खेती की बहुत ज़मीन थी। खेतों में फसल लहलहा रही थी। एक दिन शाम को एकाएक घनघोर घटा घिर आई और थोडी देर में तेज वर्षा होने लगी। उस समय ज्यादातर शिष्य उठ कर चले गए थे। अरूणि गुरूदेव के पास बैठा था। गुरू धौम्य ने कहा, अरूणि तुम खेतों की तरफ चले जाओ और मेडों की जाँच कर लो। जहाँ कहीं से पानी बह रहा हो और मेड कमजोर हो तो वहाँ मिट्टी डाल कर ठीक कर देना। अरूणि चला गया। कई जगह मेड के ऊपर से पानी बह रहा था। उसने मिट्टी डाल कर ठीक किया। एक जगह मेड में बडा छेद हो गया था। उससे पानी तजी से बह रहा था। वह उस छेद को बंद करने के लिये मिट्टी का लौदां उठा-उठा कर भरने लगा, लेकिन ज्योंही एक लौंदा रखकर दुसरा लेने आता, पहले वाला लौंदा भी बह जाता। उसका बार-बार के प्रयास बेकार जा रहा था कि उसे एक उपाय सूझा। उसने मिट्टी का एक लौंदा उठाया और छेद को बंद करके स्वयं मेड के सहारे वहीं लेट गया, जिससे पानी बहना बंद हो गया। रात होने लगी थी। अरूणि लौट कर आश्रम नहीं आया था, जिसकी वजह से गुरू को चिंता हो रही थी। वे कुछ शिष्यों को लेकर खेत की तरफ गये। खेत के पास पहुँच कर पुकारा, अरूणि तुम कहाँ हो। वह बोला, गुरूवर मैं यहाँ हूँ। गुरूवर उस जगह गए। उन्होंने देखा कि अरूणि मेड से चिपटा हुआ है। गुरूदेव बोले, वत्स तुम्हें इस तरह यहाँ पडे रहने की जरूरत क्या थी| तुम्हें कुछ हो जाता तो …।

अरूणि बोले, गुरूवर, यदि मैं अपना कर्तव्य अधूरा छोड कर चला आता तो वह गुरू का अपमान होता। जहाँ तक कुछ होने की बात है तो जब तक गुरू का आशीर्वाद शिष्य के सिर पर है तब तक शिष्य को कुछ नहीं होगा। गुरू का दर्जा तो भगवान से बडा है। इस पर महर्षि बोले, वत्स, मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुमने आज गुरू-शिष्य के संबधों की अनूठी मिसाल कायम की है जो हमेशा के लिये जनमानस में एक मिसाल बनी रहेगी। तुमने अंतिम परीक्षा पास कर ली है।

क्रोध का कलंक

विश्वामित्र अत्यंत क्रोधी स्वभाव के थे। उन्हें इस बात का दुख सताता रहता था कि ऋषि वशिष्ठ उन्हें ब्रह्मर्षि नहीं मानते। एक दिन उन्होंने सोचा, ‘आज मैं वशिष्ठ को मारकर ही रहूंगा। तब फिर कोई मुझे ब्रह्मर्षि की जगह राजर्षि कहने वाला नहीं रहेगा।’ वह एक तलवार लेकर उस वृक्ष पर जा बैठे जिसके नीचे महर्षि वशिष्ठ अपने शिष्यों को पढ़ाते थे। थोड़ी देर के बाद वशिष्ठ अपने शिष्यों के साथ उस वृक्ष के नीचे आ बैठे। पूर्णिमा का चांद निकल आया। विश्वामित्र ने सोचा कि छात्रों के जाते ही वह वशिष्ठ को मार डालेंगे। तभी एक छात्र बोल उठा, ‘कितना सलोना चांद है। कितनी सुंदरता है उसके भीतर।’ वशिष्ठ बोले, ‘यदि तुम ऋषि विश्वामित्र को देखो तो इस चांद को भूल जाओगे। यह चांद सुंदर अवश्य है, पर ऋषि विश्वामित्र इससे भी ज्यादा सुंदर हैं। यदि उनके भीतर क्रोध न हो तो वह सूर्य की भांति चमक उठें।’

छात्र बोला, ‘गुरुदेव ऐसा आप कह रहे हैं, पर वह तो आपके शत्रु हैं। सदैव आपकी निंदा करते रहते हैं।’ वशिष्ठ ने कहा, ‘जानता हूं, मगर मैं इन बातों पर ध्यान नहीं देता। सच तो यह है कि वह मुझसे ज्यादा विद्वान हैं। उन्होंने मुझसे ज्यादा तप किया है। तुम्हें नहीं मालूम मैं उनका कितना सम्मान करता हूं।’

पेड़ पर बैठे विश्वामित्र यह सुनकर हैरान रह गए। वह पश्चाताप से भर उठे। वह वशिष्ठ को मारना चाहते थे पर वशिष्ठ तो उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे। वह उसी समय पेड़ से कूदे। उन्होंने तलवार फेंकी और वशिष्ठ के चरणों में गिरकर बोले, ‘मुझे क्षमा करें ऋषिवर।’ वशिष्ठ ने उन्हें उठाते हुए कहा, ‘उठिए ब्रह्मर्षि।’ विश्वामित्र ने आश्चर्य से कहा, ‘ब्रह्मर्षि! आपने मुझे ब्रह्मर्षि कहा? पर आप तो मुझे ब्रह्मर्षि का दर्जा देते नहीं। आप तो सदैव मुझे राजर्षि कहते हैं।’ वशिष्ठ ने कहा, ‘आज से आप ब्रह्मर्षि हुए। आप ने अपने क्रोध पर विजय पा ली है। आप में एकमात्र दोष यही था, अब उसे भी आपने दूर कर लिया।’ यह कहकर वशिष्ठ ने विश्वामित्र को गले लगा लिया।

वृद्धावस्था का मूल्य

एक राजकुमार को वृद्धों से घृणा थी। वह कहा करता था, ‘बूढ़ों की बुद्धि कुंठित हो जाती है। वे सदा बेतुकी बातें किया करते हैं। वे किसी काम के नहीं होते।’ उसके दरबारी भी उसकी हां में हां मिलाते रहते थे। एक बार राजकुमार अपने कुछ सैनिकों के साथ शिकार खेलने गया। युवराज का स्पष्ट निर्देश था कि किसी बुजुर्ग व्यक्ति को साथ न ले जाया जाए।

राजकुमार ने जंगल में एक जगह पड़ाव डाला। सभी लोग शिविर में ठहरे। उन्हें आशा थी कि पास में ही कहीं पानी मिलेगा लेकिन बहुत ढूंढने पर भी कहीं पानी नहीं मिला। राजकुमार प्यास से व्याकुल हो गया। सैनिकों का भी गला सूख रहा था। समस्या का कोई हल न निकलता देख एक सैनिक ने कहा, ‘काश, कोई वृद्ध अभी हमारे साथ होता। वह जरूर कोई न कोई रास्ता निकालता।’ राजकुमार ने भी महसूस किया कि इससे कोई लाभ हो सकता है। उसने किसी बुजुर्ग को खोज लाने का आदेश दिया। तभी एक शिविर से एक युवक अपने वृद्ध पिता को लेकर सामने आया और बोला, ‘युवराज, घर पर मेरे पिता की सेवा करने वाला कोई नहीं था। इसलिए पितृभक्ति ने मुझे विवश किया कि मैं इन्हें अपने साथ लेकर चलूं। वैसे तो यह आपके आदेश का उल्लंघन था पर क्या करता और कोई रास्ता न था।’

यह कहकर उस युवक ने अपने पिता से निवेदन किया, ‘पिताजी कृपया हमारी समस्या का हल सुझाएं।’ वृद्ध ने कहा, ‘चरते हुए गधे जिस भूमि को सूंघें वहां थोड़ी ही गहराई पर पानी अवश्य मिलेगा।’ सैनिकों ने खोज की। जंगल में घास चरते हुए गधों को जहां की भूमि सूंघते हुए देखा, वहां की खुदाई की गई। खोदते ही जल निकला। लोगों की खुशी का ठिकाना न रहा। सब पानी पीकर तृप्त हुए। उस वृद्ध ने राजकुमार से कहा, ‘युवराज, क्षमा करें। हर आयु के व्यक्ति की अपनी भूमिका है। हर उम्र के लोग एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं। किसी के महत्व को नकारा नहीं जा सकता।’ राजकुमार लज्जित हो गया।

हार और जीत

किसी शहर में बहुत दूर से एक विद्वान पहुंचा। उसने लोगों से कहा कि वह यहां के विद्वानों से शास्त्रार्थ करना चाहता है। कुछ लोग उसे शहर के प्रमुख विद्वानों के पास ले गए जिन्होंने कहा, ‘हमारे यहां तो सनातन गोस्वामी और उनके भतीजे जीव गोस्वामी ही श्रेष्ठ ज्ञानी हैं। अगर वे आपको विजेता के रूप में स्वीकार कर मान्यता पत्र पर हस्ताक्षर कर देंगे तो हम भी आपको विजेता मान लेंगे।’ दूर से आया वह विद्वान सनातन गोस्वामी के पास पहुंचा और बोला, ‘स्वामी जी, या तो आप मुझसे शास्त्रार्थ कीजिए या मुझे मान्यता पत्र प्रदान कीजिए।’ इस पर सनातन गोस्वामी बोले, ‘भाई! अभी हमने शास्त्रों का मर्म ही कहां समझा है। हम तो विद्वानों के सेवक हैं।’ यह कहते हुए उन्होंने मान्यता पत्र पर हस्ताक्षर कर दिया। विद्वान मान्यता पत्र लेकर प्रसन्नतापूर्वक चला जा रहा था कि जीव गोस्वामी मिल गए। विद्वान ने उनसे भी कहा, ‘आप इस मान्यता पत्र पर हस्ताक्षर करेंगे या मुझसे शास्त्रार्थ करेंगे?’ जीव गोस्वामी बोले, ‘मैं शास्त्रार्थ के लिए तैयार हूं।’ दोनों में शास्त्रार्थ शुरू हो गया। शहर के लोग उत्सुकतापूर्वक यह देख रहे थे। लंबे शास्त्रार्थ में जीव गोस्वामी ने उस विद्वान को पराजित कर दिया। वह विद्वान दुखी होकर नगर से चला गया। जीव गोस्वामी ने सनातन गोस्वामी को अपनी विजय के बारे में बताया पर सनातन गोस्वामी प्रसन्न नहीं हुए। उन्होंने कहा, ‘एक विद्वान को अपमानित करके तुम्हें थोड़ा यश अवश्य मिल गया लेकिन क्या करोगे यश लेकर? यह केवल तुम्हारे अहंकार को बढ़ाएगा और तुम्हारे जैसा अहंकारी ज्ञान की साधना कैसे कर पाएगा। आखिर उस विद्वान को विजयी मान लेने में तुम्हारा क्या बिगड़ता था। हमारे लिए यश-अपयश, जीवन-मरण, सुख-दुख, मित्र-शत्रु सभी एक समान होते हैं। हमें हार और जीत के फेर में पड़ना ही नहीं चाहिए।’ जीव गोस्वामी को अपनी भूल का अहसास हो गया। उन्होंने अपने व्यवहार के लिए उनसे क्षमा मांगी।

जब युवा संन्यासी ने वृद्ध संन्यासी को जाना

जीवन दर्शनः एक युवा संन्यासी एक वृद्ध संन्यासी के सान्निध्य में रहकर ज्ञान प्राप्ति के लिए उनके आश्रम में आया। वह लगातार वृद्ध संन्यासी के निकट बना रहता, किंतु दो-चार दिन के प्रवास में ही उसे ऐसा महसूस हुआ कि यह वृद्ध संन्यासी विशेष ज्ञानी नहीं है। उसने सोचा कि इस आश्रम को छोड़ देना चाहिए और अन्यत्र चलकर किसी ज्ञानी गुरु की खोज करनी चाहिए किंतु उसी दिन एक और संन्यासी का उस आश्रम में आना हुआ। युवा संन्यासी एक रात और रुक गया।

रात को आश्रम में सभी संन्यासी एकत्रित हुए और उनके मध्य परस्पर बातचीत हुई। नए संन्यासी ने इतनी ज्ञानपूर्ण चर्चा की कि छोड़कर जाने की इच्छा रखने वाले युवा संन्यासी को लगा कि गुरु हो तो ऐसा हो। दो घंटे के वार्तालाप में ही वह उससे प्रभावित हो गया। जब चर्चा समाप्त हुई तो नए संन्यासी ने वृद्ध संन्यासी गुरु से पूछा- आपको मेरी बातें कैसी लगीं? गुरु बोले- तुम्हारी बातें? बातें तो तुम कर रहे थे किंतु वे तुम्हारी नहीं थीं। तुम कुछ बोल ही नहीं रहे थे।

जो तुमने इकट्ठा कर लिया है, उसी को बाहर निकालते रहे। बाहर से जो भीतर ले जाया जाए और फिर बाहर निकाल दिया जाए, उसमें तो वमन की दरुगध ही आती है। तुम्हारे भीतर की किताबें बोल रही थीं, शास्त्र बोल रहे थे किंतु तुम जरा भी नहीं बोल पाए। युवा संन्यासी जो आश्रम छोड़ने का विचार कर रहा था, रुक गया। गुरु की बातों ने उसे आत्मज्ञान करा दिया

वस्तुत: जानने-जानने में बहुत फर्क है। असली जानना वह है जिसका जन्म भीतर से होता है। बाहर से जो एकत्रित किया जाता है, वह तो बंधन हो जाता है, उससे जीवन में परिवर्तन संभव नहीं।

प्रेम को जानो

एक बार संत राबिया एक धार्मिक पुस्तक पढ़ रही थीं। पुस्तक में एक जगह लिखा था, शैतान से घृणा करो, प्रेम नहीं। राबिया ने वह लाइन काट दी। कुछ दिन बाद उससे मिलने एक संत आए। वह उस पुस्तक को पढ़ने लगे। उन्होंने कटा हुआ वाक्य देख कर सोचा कि किसी नासमझ ने उसे काटा होगा। उसे धर्म का ज्ञान नहीं होगा। उन्होंने राबिया को वह पंक्ति दिखा कर कहा, जिसने यह पंक्ति काटी है वह जरूर नास्तिक होगा।

राबिया ने कहा, इसे तो मैंने ही काटा है। संत ने अधीरता से कहा, तुम इतनी महान संत होकर यह कैसे कह सकती हो कि शैतान से घृणा मत करो। शैतान तो इंसान का दुश्मन होता है। इस पर राबिया ने कहा, पहले मैं भी यही सोचती थी कि शैतान से घृणा करो। लेकिन उस समय मैं प्रेम को समझ नहीं सकी थी। लेकिन जब से मैं प्रेम को समझी, तब से बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं कि घृणा किससे करूं। मेरी नजर में घृणा लायक कोई नहीं है।

संत ने पूछा, क्या तुम यह कहना चाहती हो कि जो हमसे घृणा करते हैं, हम उनसे प्रेम करें। राबिया बोली, प्रेम किया नहीं जाता। प्रेम तो मन के भीतर अपने आप अंकुरित होने वाली भावना है। प्रेम के अंकुरित होने पर मन के अंदर घृणा के लिए कोई जगह नहीं होगी। हम सबकी एक ही तकलीफ है। हम सोचते हैं कि हमसे कोई प्रेम नहीं करता। यह कोई नहीं सोचता कि प्रेम दूसरों से लेने की चीज नहीं है, यह देने की चीज है। हम प्रेम देते हैं। यदि शैतान से प्रेम करोगे तो वह भी प्रेम का हाथ बढ़ाएगा।

संत ने कहा, अब समझा, राबिया! तुमने उस पंक्ति को काट कर ठीक ही किया है। दरअसल हमारे ही मन के अंदर प्रेम करने का अहंकार भरा है। इसलिए हम प्रेम नहीं करते, प्रेम करने का नाटक करते हैं। यही कारण है कि संसार में नफरत और द्वेष फैलता नजर आता है।

जब बादशाह को अदालत में तलब किया गया

दिल्ली का बादशाह गयासुद्दीन तीरंदाजी का अभ्यास कर रहा था। अचानक गयासुद्दीन का तीर चला, जो एक बालक को लगा। तत्क्षण उसकी मृत्यु हो गई। बालक के माता-पिता बेहद दुखी हुए। थोड़े दिनों बाद उस बालक की दुखी मां न्याय मांगने काजी सिराजुद्दीन के पास पहुंची। उसने काजी से कहा कि अपराधी भले ही सम्राट क्यों न हो, दंड अवश्य मिलना चाहिए। काजी ने उसे न्याय दिलाने के प्रति आश्वस्त किया। अगले दिन काजी ने बादशाह को अदालत में तलब किया।

नियत समय पर बादशाह अपना राजसी वस्त्र त्यागकर साधारण वस्त्रों में अदालत में हाजिर हुआ। वहां उपस्थित सभी लोगों ने नियमानुसार उसे बादशाह के रूप में सम्मान नहीं दिया क्योंकि उस वक्त वह दोषी के रूप में आया था। मुकदमा चला, बादशाह ने अपना अपराध स्वीकार किया और भारी जुर्माना भरना कबूल किया। अदालत की कार्रवाई समाप्त होने के बाद काजी उठा और उसने बादशाह को सलाम किया। बादशाह ने अपने कपड़ों में छिपी तलवार दिखाते हुए कहा- अगर आप मेरे डर से विचलित होकर सही न्याय नहीं करते तो मैं आपकी गर्दन इस तलवार से उड़ा देता।

काजी ने भी न्यायासन के पास रखी छड़ी की ओर संकेत कर कहा- जहांपनाह! अच्छा हुआ आपने अदालत का सम्मान किया, वरना मैं इस छड़ी से आपकी चमड़ी उधेड़ देता। तब बादशाह खुश होकर बोले- मुझे आप पर गर्व है। वही सच्चा न्यायाधीश है जिसकी नजर में राजा व प्रजा बराबर हैं। कथा का संदेश यह है कि न्याय की तुला पक्षपातरहित होनी चाहिए। जब न्याय निष्पक्ष होता है तभी दोषी सजा पाता है।

फकीर ने चिता की राख सूंघकर दिया गूढ़ संदेश

एक फकीर श्मशान में बैठा था। थोड़ी देर बाद वहां दो अलग-अलग समूहों में कुछ लोग मृत देह लेकर आए और चिता सजाकर उन्हें अग्नि को समर्पित कर दिया। जब चिताएं ठंडी हो गईं तो लोग वहां से चले गए। तब वह फकीर उठा और अपने हाथों में दोनों चिताओं की राख लेकर बारी-बारी से उन्हें सूंघने लगा। लोगों ने आश्चर्य से उसके इस कृत्य को देखा और उसे विक्षिप्त समझा। एक व्यक्ति से रहा नहीं गया।

वह फकीर के निकट गया और उससे पूछा- बाबा! ये चिता की राख मुट्ठियों में भरकर और इसे सूंघकर क्या पता लगा रहे हो? उस फकीर ने कहा- मैं गहरी छानबीन में लगा हूं। व्यक्ति ने प्रश्नवाचक मुद्रा में उसकी ओर देखा तो वह अपने दाहिने हाथ की मुट्ठी खोलकर उसकी राख को दिखाते हुए बोला- यह एक अमीर व्यक्ति की राख है जिसने जीवनभर बड़े सुख भोगे, दूध-घी, मेवे-मिष्ठान्न खाए।

फिर दूसरी मुट्ठी की राख दिखाते हुए फकीर ने कहा- यह एक ऐसे गरीब आदमी की राख है जो आजीवन कठोर परिश्रम करके भी रूखी-सूखी ही खा पाया। मैं इस छानबीन में हूं कि अमीर व गरीब की राख में बुनियादी फर्क क्या है, जिससे अमीरों को सम्मान और गरीबों को उपेक्षा मिलती है, पर मुझे तो दोनों में कोई फर्क नजर नहीं आ रहा। साथ ही फकीर ने एक शेर पढ़ा- लाखों मुफलिस हो गए, लाखों तवंगर हो गए। खाक में जब मिल गए, दोनों बराबर हो गए।

सार यह है कि मृत्यु अटल सत्य है और उस वक्त सभी भौतिक वस्तुएं यहीं छूट जाती हैं। अत: अपने जीवनकाल में अमीर-गरीब के मध्य पक्षपातपूर्ण रवैया न अपनाते हुए समान रूप से स्नेहपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।

सावरकर ने निकाली ‘जहां चाह वहां राह’ की युक्ति

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर सावरकर जब अंडमान जेल में थे, तब उनके पास न कलम थी और न कागज। उनके सृजनशील मानस में कई विचार उठते किंतु उन्हें लिपिबद्ध कैसे करें? एक दिन ऐसे ही वे एकांत कोठरी में बैठे सोच में डूबे थे कि उन्हें इस समस्या का समाधान सूझ गया।

उन्हीं के शब्दों में ‘कागज-पेंसिल के अभाव में प्रश्न उठा कि मैं टिप्पणियां किस पर लिखूं? मैं इस पहलू पर विचारमग्न था कि मेरी दृष्टि सामने की दीवार पर पड़ी। बंदीगृह की ये सफेद, लंबी-चौड़ी दीवारें ही तो कागज हैं और सन के कांटें लेखनी।’ वीर सावरकर सन के कांटों से दीवार पर लिखते या फिर एक कील अपने पास रखते और उससे अपने विचार उकेरते। कोठरी का दरवाजा बंद होते ही उनका लेखन आरंभ हो जाता।

जेल की एक-एक दीवार, एक-एक ग्रंथ बन गई थी। उन्होंने स्पेंसर की अज्ञेय मीमांसा को युक्तिवाद क्रम से अंकित किया था। कमला महाकाव्य की रचना उन्हीं सात दीवारों पर अंकित हुई थी। एक दीवार पर अर्थशास्त्र की महत्वपूर्ण परिभाषाएं लिखी थीं। अलग-अलग कमरों की दीवारों पर उन्हें अंकित करने का उद्देश्य यह था कि प्रत्येक माह जब बंदी अदला-बदली के अंतर्गत अपना कमरा बदलें तो नई-नई जानकारियां प्राप्त कर लें। इन दीवार ग्रंथों की आयु मात्र एक वर्ष होती थी क्योंकि प्रतिवर्ष जेल की पुताई होती थी। इस अवधि में सावरकर अपनी तमाम अंकित सामग्री को कंठस्थ कर लेते थे।

कथा का सार यह है कि जहां चाह होती है, वहीं राह बन जाती है। साधनों के अभाव का रोना रोने वालों के लिए सावरकर प्रेरणास्पद हैं।

यमराज ने डाकू को साधु की सेवा करने को कहा

मृत्यु के बाद एक साधु और एक डाकू साथ-साथ यमराज के दरबार में पहुंचे। यमराज ने अपने बहीखातों में देखा और दोनों से कहा-यदि तुम दोनों अपने बारे में कुछ कहना चाहते हो तो कह सकते हो। डाकू अत्यंत विनम्र शब्दों में बोला- महाराज! मैंने जीवनभर पाप कर्म किए हैं। मैं बहुत बड़ा अपराधी हूं। अत: आप जो दंड मेरे लिए तय करेंगे, मुझे स्वीकार होगा। 

डाकू के चुप होते ही साधु बोला- महाराज! मैंने आजीवन तपस्या और भक्ति की है। मैं कभी असत्य के मार्ग पर नहीं चला। मैंने सदैव सत्कर्म ही किए हैं इसलिए आप कृपा कर मेरे लिए स्वर्ग के सुख-साधनों का प्रबंध करें।

यमराज ने दोनों की इच्छा सुनी और डाकू से कहा- तुम्हें दंड दिया जाता है कि तुम आज से इस साधु की सेवा करो। डाकू ने सिर झुकाकर आज्ञा स्वीकार कर ली। यमराज की यह आज्ञा सुनकर साधु ने आपत्ति करते हुए कहा- महाराज! इस पापी के स्पर्श से मैं अपवित्र हो जाऊंगा। मेरी तपस्या तथा भक्ति का पुण्य निर्थक हो जाएगा।

यह सुनकर यमराज क्रोधित होते हुए बोले- निरपराध और भोले व्यक्तियों को लूटने और हत्या करने वाला तो इतना विनम्र हो गया कि तुम्हारी सेवा करने को तैयार है और एक तुम हो कि वर्षो की तपस्या के बाद भी अहंकारग्रस्त ही रहे और यह न जान सके कि सबमें एक ही आत्मतत्व समाया हुआ है। तुम्हारी तपस्या अधूरी है। अत: आज से तुम इस डाकू की सेवा करो।

कथा का संदेश यह है कि वही तपस्या प्रतिफलित होती है, जो निरहंकार होकर की जाए। वस्तुत: अहंकार का त्याग ही तपस्या का मूलमंत्र है और यही भविष्य में ईश उपलब्धि का आधार बनता है।

प्रभु को भी प्रिय है सरलता

सतपुड़ा के वन प्रांत में अनेक प्रकार के वृक्ष में दो वृक्ष सन्निकट थे। एक सरल-सीधा चंदन का वृक्ष था दूसरा टेढ़ा-मेढ़ा पलाश का वृक्ष था। पलाश पर फूल थे। उसकी शोभा से वन भी शोभित था। चंदन का स्वभाव अपनी आकृति के अनुसार सरल तथा पलाश का स्वभाव अपनी आकृति के अनुसार वक्र और कुटिल था, पर थे दोनों पड़ोसी व मित्र। यद्यपि दोनों भिन्न स्वभाव के थे। परंतु दोनों का जन्म एक ही स्थान पर साथ ही हुआ था। अत: दोनों सखा थे।

कुठार लेकर एक बार लकड़हारे वन में घुस आए। चंदन का वृक्ष सहम गया। पलाश उसे भयभीत करते हुए बोला - 'सीधे वृक्ष को काट दिया जाता है। ज्यादा सीधे व सरल रहने का जमाना नहीं है। टेढ़ी उँगली से घी निकलता है। देखो सरलता से तुम्हारे ऊपर संकट आ गया। मुझसे सब दूर ही रहते हैं।'

चंदन का वृक्ष धीरे से बोला - 'भाई संसार में जन्म लेने वाले सभी का अंतिम समय आता ही है। परंतु दुख है कि तुमसे जाने कब मिलना होगा। अब चलते हैं। मुझे भूलना मत ईश्वर चाहेगा तो पुन: मिलेंगे। मेरे न रहने का दुख मत करना। आशा करता हूँ सभी वृक्षों के साथ तुम भी फलते-फूलते रहोगे।'

लकड़हारों ने आठ-दस प्रहार किए चंदन उनके कुल्हाड़े को सुगंधित करता हुआ सद्‍गति को प्राप्त हुआ। उसकी लकड़ी ऊँचे दाम में बेची गई। भगवान की काष्ठ प्रतिमा बनाने वाले ने उसकी बाँके बिहारी की मूर्ति बनाकर बेच दी। मूर्ति प्रतिष्ठा के अवसर पर यज्ञ-हवन का आयोजन रखा गया। बड़ा उत्सव होने वाला था।

यज्ञीय समिधा (लकड़ी) की आवश्यकता थी। लकड़हारे उसी वन प्रांत में प्रवेश कर उस पलाश को देखने लगा जो काँप रहा था। यमदूत आ पहुँचे। अपने पड़ोसी चंदन के वृक्ष की अंतिम बातें याद करते हुए पलाश परलोक सिधार गया। उसके छोटे-छोटे टुकड़े होकर यज्ञशाला में पहुँचे।

यज्ञ मण्डप अच्छा सजा था। तोरण द्वार बना था। वेदज्ञ पंडितजन मंत्रोच्चार कर रहे थे। समिधा को पहचान कर काष्ट मूर्ति बन चंदन बोला - 'आओ मित्र! ईश्वर की इच्‍छा बड़ी बलवान है। फिर से तुम्हारा हमारा मिलन हो गया। अपने वन के वृक्षों का कुशल मंगल सुनाओ। मुझे वन की बहुत याद आती है। मंदिर में पंडित मंत्र पढ़ते हैं और मन में जंगल को याद करता हुआ रहता हूँ।

पलाश बोला - 'देखो, यज्ञ मंडप में यज्ञाग्नि प्रज्जवलित हो चुकी है। लगता है कुछ ही पल में राख हो जाऊँगा। अब नहीं मिल सकेंगे। मुझे भय लग रहा है। ‍अब बिछड़ना ही पड़ेगा।'

चंदन ने कहा - 'भाई मैं सरल व सीधा था मुझे परमात्मा ने अपना आवास बनाकर धन्य कर‍ दिया तुम्हारे लिए भी मैंने भगवान से प्रार्थना की थी अत: यज्ञीय कार्य में देह त्याग रहे हो। अन्यथा दावानल में जल मरते। सरलता भगवान को प्रिय है। अगला जन्म मिले तो सरलता, सीधापन मत छोड़ना। सज्जन कठिनता में भी सरलता नहीं छोड़ते जबकि दुष्ट सरलता में भी कठोर हो जाते हैं। सरलता में तनाव नहीं रहता। तनाव से बचने का एक मात्र उपाय सरलता पूर्ण जीवन है।'

बाबा तुलसीदास के रामचरितमानस में भगवान ने स्वयं ही कहा है -
निरमल मन जन सो मोहिं पावा।
मोहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

अचानक पलाश का मुख एक आध्‍यात्मिक दीप्ति से चमक उठा।

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