मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

sign of success

1- "Worrying doesn't reduce yesterday's sorrows, But It empties 2day's strength.."So don't evr worry. 
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2- Beautiful picture r developed by negatives in a dark room. So if U see darkness in ur life that GOD is making a beautiful picture for u. 
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3- Beautful truth against law of gravity:-
The heart feels LIGHT wen some1 is in it.
But it feels HEAVY wen some1 leaves it! 
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4- Argument is bad but, Discussion is good; Bcoz Argument is to find out 'WHO' is right ! And Discussion is to find out 'WHAT' is right ! 
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5- Dont keep ur dreams in ur eyes, they may fall as tears.  Keep them in d heart so dat every heart beat remind u to fulfill dreams. 
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6- Evry tear is sign f commitment Evry silence is sign f compromise Evry smile is sign f attachment & Evry +ve thinking is sign f success.. 
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7- Everybody is special if u think so.Every moment is memorable if u feel so.Everyone is unique if u see so.Life is beautiful if u live so
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8- Every test in UR life makes U bitter or better. Every problem comes to make or break u. Choice is yours, Whether U become victim or victor! 
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9- Don't participate in Rat race ! As even if u wins. U r still a Rat ! Always run with Lions ! No matter even if u r defeated, U r still a Lion. 
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10- God asked, "what is FORGIVENESS"? A little boy gave this lovely reply, It's d wonderful smell that a flower gives when its being crushed.
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11- Don't judge a person by what others say. D person may b true 2 u bt not 2 others. Bcoz d same sun vich melts d ice,also hardn d clay too. 
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12- Don't get upset with problems in life.  Life is like a road & problems are like speed breakers... They save us from bigger accidents. 
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13- Listen & Silent r 2 words with same alphabets & very important 4 friendship bcoz only a true friend can listen 2 u wen u r silent..
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14- Definition of a HUMAN BEING: 
A creature that cuts trees, makes papers and writes "save Trees" on it.. strange but true.. 
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15- Comparison is d best way to judge our progress. but not with others, compare ur yesterday with ur today
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16- Bina Mehnat kiye mili safalta kabhi yogyta nahi ban sakti. 
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17- if u have d spirit of understanding everything & taking it in proper way, U wil enjoy every sec of life whether it is pleasurable or painfull. 
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18- Kisi Ne Pucha- 
Wo Kon Si Jagah Hai Jaha-Har Galati Har Jurm Or Har Gunah Maaf Ho Jata Hai? 
A Little Child Smiled & Said- 
"My Mom's Heart"
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19- If u ever feel in life that all doors r closed, remembr this. A closed door is not always locked. So giv it a push at least. 
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20- If u can't find d brighter side of life. Polish d Darker side.
Attitud of adjustment is d Only instrumnt 2 Liv a Happy Lyf.... 
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21- If everything is going according to ur wish then u r lucky.. If it is not going, then u r too lucky bcoz it is going according to God's wish! 
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22- How strange is the logic of our mind? 
We look for compromise when we r wrong & we look for justice when others r wrong. 
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23- Heated Gold becomes ornament, Beated Copper becomes Wires, Depleted Stone becomes Statue, So d more pain u get in life u become more 'VALUABLE. 
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24- Heart is Not a DUSTBIN to Dump All d Worries of ur Life It is a Golden Pot 4 Collection of Sweet Moments of ur Life so Always Be Happy.
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Sajal Shrdha Prakhar Praghya

Sajal Shrdha Prakhar Praghya

Sajal Shrdha Prakhar Praghya

ज्ञान यज्ञ की मशाल

ज्ञान यज्ञ की मशाल

ज्ञान यज्ञ की मशाल

Yuwa Kranti

Guruji Mataji

Guruji

Guruji

Guruji

Didi & Dr. Sb

Guruji Mataji

Guruji

Guruji

Guruji

Guruji

Guruji

Sajal Shrdha Prakhar Praghya

Mantra

Mataji

Maa

Didi

Didi

Guruji

Dr. Sahab

Respected Kalam Sahab

Didi

Dr. Sahab

Guruji

Jago Shakti Swarupa NARI

Dr. Sahab

4 sutra

Mataji

Jai Gou Mata

Mataji

Guruji Mataji

Mashal

Paisa

Beta

Ek Rasta

O Maa Mujhe Bachao

स्वस्थ मन का रहस्य

जो अपनी जिंदगी मे कुछ करने मे असफल रहते है, वे प्रायः आलोचक बन जाते है |दूसरो की कमिया देखना, निंदा करना उनका स्वभाव बन जाता है | यहाँ तक की ऐसे लोग अपनी कमियों-कमजोरियों का दोष भी दूसरो के सर मढ़ देते है | सच, यही है की जीवन-पथ पर चलने में जो असमर्थ है, वे राह के किनारे खड़े होकर औरो पर पत्थर फेंकने लगते है | ध्यान रहे स्वस्थ मन वाला व्यक्ति कभी किसी की निंदा मे सलंगन नही होता है |

लोकमान्य तिलक से किसी ने आश्चर्यचकित होते हुऐ पूंछा - " कई बार आपकी बहुत निन्दापूर्ण आलोचनाये होती है, लेकिन आप तो कभी विचलित नही होते | " उत्तर मे लोकमान्य तिलक मुस्कराए और बोले- " निंदा ही क्यों कई बार लोग प्रशंषा भी करते है|" ऐसा कह कर उन्होंने पूंछने वाले की आँखों मे गहराई से झाँका और बोले-"यह तो मेरी जिन्दगी का रहस्य है, पर मे आपको बता देता हूँ | निंदा करने वाले मुझे शैतान समझते है और प्रशंसक मुझे भगवान का दर्जा देते है, लेकिन सच मे जानता हूँ और वह सच यह है कि मै न तो शेतान हूँ और न भगवान | मै तो एक इन्सान हूँ, जिसमे थोड़ी कमिया है और थोड़ी अच्छाइया और मै अपनी कमियों को दूर करने एवम् अच्छाइयों को बढ़ाने मे लगा रहता हूँ |"

" एक बात और भी है " _ लोकमान्य ने अपनी बात आगे बढाई | जब अपनी जिन्दगी को मै ही अभी ठीक से नही समझ पाया तो भला दूसरे क्या समझेंगे | इसलिये जितनी झूंठ उनकी निंदा है, उतनी ही उनकी प्रशंसा है | इसलिए मै उन दोनों बातो की परवाह न करके अपने आप को और अधिक सँवारने-सुधारने की कोशिश करता रहता हूँ |" सुनने वाले व्यक्ति को इन बातो को सुनकर लोकमान्य तिलक के स्वस्थ मन का रहस्य समझ मे आया | उसे अनुभव हुआ की स्वस्थ मन वाला व्यक्ति न तो किसी की निंदा करता है और न ही किसी निंदा अथवा प्रशंशा से प्रभावित होता है |

करुणा से खिलता है प्रेम

एक फूल को मे प्रेम करता हूँ, इतना प्रेम करता हूँ की मुझे डर लगता है कि कही सूरज की रोशनी मे कुम्हला न जाए, मुझे डर लगता है की कही जोर की हवा आए तो इसकी पंखुडिया गिर न जाए | मुझे डर लगता है की कोई जानवर आकर इसे चर न जाए| मुझे डर लगता है की पडोसी के बच्चे इसको उखाड़ न ले, अतः मे फूलो के पोधे को मय गमले के तिजोरी मे बंद करके ताला लगा देता हूँ | प्रेम तो मेरा बहुत है, लेकिन करुणा मेरे पास नही हैं |

मैंने पोधे को बचाने के सब प्रयास किए| धूप से बचा लिया, हवा से, जानवरों से| मजबूत तिजोरी खरीदी, ताला लगाकर पोधे को बंद कर दिया, लेकिन अब यह पोधा मर जायगा| मेरा प्रेम इसे बचा नही सकेगा | हो सकता था बाहर हवाए थोड़ी देर लगती और हो सकता था, इतनी जल्दी न भी आते तथा सूरज की किरणे फूल को इतनी जल्दी मुरझा न देती, लेकिन तिजोरी मे बंद पोधा जल्दी ही मर जाएगा | मेरा प्रेम तो पूरा था,लेकिन करुणा जरा भी न थी |

जगत मे प्रेम भी रहा है , दया भी रही है, लेकिन करुणा नही | करुणा का अनुभव ही नही रहा है| करुणा का अनुभव आए तो हम जीवन को बदलेंगे और करुणा से अगर दया निकले, तो वह दया नकारात्मक न रह जायेगी | वह सिर्फ़ इतना न कहेगी की दुःख मत दो, वह यह भी कहेगी कि दुःख मिटाओ भी, दुःख से बचाओ भी, दुःख से मुक्त भी करो,सुख को भी लाओ | करुणा से प्रेम निकले, तो प्रेम मुक्तिदायी हो जाएगा, बंधनकारी नही रह जाएगा |

सदगुरु का प्रेम ऐसा ही है | इन वासंती क्षणों मे करुना की महक बह रही है | यह महक है सदगुरु की करुणा की | शिष्यवत्सल गुरुवर का प्रेम करुणा से आपूरित है | वह हमारी सामान्य मानवीय दोष-दुर्बलताओ से मुक्त है | प्रेम की सम्पूर्ण उर्वरता इसमे मोजूद है| इसमे संघर्ष है तो सृजन भी है | प्रगति व विकास के बहुमुखी छोर इसमे है |व्यक्तित्व के बहुआयामी विकास की चमक इसमे है | करुणा से आपूरित गुरुप्रेम वसंतपर्व के इन पावन क्षणों मे हम सबको सहज याद आता है एवम् गुरुस्मरण से सहज उपलब्ध भी है |

धर्म का तत्त्व

धर्म के विस्तार एवम् विविधता की खोज अनावश्यक है | आवश्यक है धर्म के तत्त्व की खोज, इसकी अनेकता मे एकता की खोज, इसके परम सार की खोज | यह खोज जितनी अनिवार्य एवम् पवित्र है, इसकी विधि उतनी ही रहस्यमय और आश्चर्यपूर्ण है |इसे न समझने वाले जीवन के भंवरो की भटकन मे भटकते रहते है | धर्म को खोजते हुऐ स्वयम् को खो देते है , क्योंकि वे धर्म के तत्त्व को नही उसके विस्तार एव म्विविधता को खोजते है 

धर्म के तत्त्व की खोज तो स्वयम् की खोज मे पूरी होती है | स्वयम् का सत्य मिलने पर धर्म अपने आप ही मिल जाता है| यह तत्त्व शास्त्रों मे नही है | शास्त्रों मे तो जो है, वह केवल संकेत है | धर्मग्रंथो मे जो लिखा है, वह तो बस चंद्रमा की और इशारा करती हुई अंगुली भर है | जो इस अंगुली को चंद्रमा समझने की भूल करता है, वह अंगुली को तो थाम लेता है, पर चंद्रमा को हमेशा के लिए खो देता है |

शास्त्रों की भांति सम्प्रदाय भी है | धर्म का तत्त्व इन सम्प्रदायों मे भी नही है | सम्प्रदायतो विभिन्न उपासना पद्धतियों पर टिके संघटन है | यह सुव्यस्थित रीति से अपने मत का प्रचार करते है | बहुत हुआ तो धर्म की और रूचि पैदा करते है | अधिक से अधिक उसकी और उन्मुख कर देते है | धर्म का तत्त्व तो निज की अत्यन्त निजता में है |उसके लिए स्वयम् के बाहर नही, भीतर चलना आवश्यक है |

धर्म का तत्त्व तो स्वयं की श्वास-श्वास मे है | बस उसे उघाड़ने की द्रष्टि नही है | धर्म कातत्त्व स्वयम् के रक्त की प्रत्येक बूंद मे है | बस उसे खोजने का साहस और संकल्प नही है | धरम का तत्त्व तो सूर्य की भांति स्पष्ट है, लेकिन उसे देखने के लिए आँख खोलने की हिम्मत तो जुटानी होगी |

धरम का यही तत्त्व तो अपना सच्चा जीवन है, लेकिन इसकी अनुभूति तभी हो सकेगी,जब हम देह की कब्रों से बाहर निकल सकेंगे | देहिक आसक्ति एवम् भोग-विलास केआकर्षण से छुटकारा पा सकेंगे | यह परम सत्य है की धर्म की यथार्थता जड़ता मे नही,चेतन्यता मे है | इसलिए सोओ नही जागो और चलो | परन्तु चलने की दिशा बाहर की और नही, अन्दर की और हो | अंतर्गमन ही धर्म के तत्त्व को खोजने और पाने का राजमार्ग है |

अखंड ज्योति मई २००२

बोध

बोध का परिणाम है त्याग | जो अंतस मे बोध के घटित हुऐ बिना त्याग करता है, उनका जीवन केवल आडम्बर बन कर रह जाता है | अंतर्भावों की घुटन, बैचेनी उन्हें निरन्तर सालती रहती है | एक युवक भगवान तथागत के पास पहुँचा | उसके चेहरे पर विजय का भाव था | अपने भावों को व्यक्त करते हुऐ उसने शास्ता से कहा-'' उसने गृहत्याग करने की सारी तैयारिया पूरी कर ली है | अब वह भिक्षु बनने के योग्य हो गया है|" उस युवक के इस दर्प भरे कथन पर भगवान हँस दिए |

महात्मा बुद्ध की इस हँसी को वहां पास बैठे सारिपुत्र मे देखा | युवक के चले जाने के बाद उन्होंने भगवान से हँसी का रहस्य जानना चाहा | उत्तर मे सारिपुत्र की और देखते हुऐ बुद्ध बोले-" संसार की तैयारियो की बात तो सुनी थी, पर सन्यास की तैयारिया क्या है ?यह कथन समझ मे नही आया | संसार से सन्यास मे परिवर्तन-चित्त मे बोध - क्रांति के बिना घटित नही हो सकता | त्याग करना, सन्यास लेना, भिक्षु होना न तो वेश परिवर्तन है और न गृह परिवर्तन है | यह तो विशुद्ध द्रष्टि परिवर्तन है | त्याग के लिए तो चित्त का समग्र परिवर्तन चाहिए |"

शास्ता के इन शाश्वत वचनों ने सारिपुत्र के अंतःकरण को छुआ, पर इनसे अछुता वह युवक फिर से एक दिन बुद्ध के पास आया और थोड़ा चिंतित स्वर मे बोला-"त्याग की सारी तैयारियों मे एक कसर बाकी रह गई है | अभी चीवर की व्यवस्था जुटानी है |"उसके कथन पर बुद्ध विहंस कर बोले- " युवक ! सारा सामान छोड़ने के लिए ही कोई भिक्षु होता है, तू उसी को जुटाने के लिए परेशान है | जा अपनी दुनिया मे लोट जा, तू अभी भिक्षु होने योग्य नही है| इसके लिए तो बोध की सम्पदा चाहिए, जो विवेक-वैराग्यके बिना नही मिलती | "

अखंड ज्योति २००८

क्षण में शाश्वत की पहचान

क्षण मे शाश्वत छुपा है और अणु मे विराट | अणु को जो अणु मानकर छोड़ दे, वह विराट को ही खो देता है | इसी तरह जिसने क्षण का तिरस्कार किया, वह शाश्वत से अपना नाता तुडा लेता है | क्षुद्र को तुच्छ समझने की भूल नही करनी चाहिए, क्योंकि यही द्वार है परम का | इसी मे गहरे-गहन अवगाहन करने से परम की उपलब्धि होती है |

जीवन का प्रत्येक क्षण महत्वपूर्ण होता है | किसी भी क्षण का मूल्य, किसी दूसरे क्षण से न तो ज्यादा है और न ही कम है | आनन्द को पाने के लिए किसी विशेष समय की प्रतीक्षा करना व्यर्थ है | जो जानते है, वे प्रत्येक क्षण को ही आनन्द बना लेते है और जो विशेष समय की, किसी खास अवसर की प्रतीक्षा करते रहते है, वे समूचे जीवन के समय और अवसर को ही गँवा देता है |

जीवन की कृतार्थता इकट्ठी और राशिभूत नही मिलती | उसे तो बिन्दु-बिन्दु औरक्षण-क्षण मे ही पाना होता है | प्रत्येक बिन्दु सच्चिदानंद सागर का ही अमृत अंश है और प्रत्येक क्षण अपरिमेय शाश्वत का सनातन अंश | इन्हे जो गहराइयों से अपना सका, वही अमरत्व का स्वाद चख पता है |

एक फ़कीर के महानिर्वाण पर जब उनके शिष्यों से पूंछा गया की आपके सदगुरु अपने जीवन मे सबसे श्रेष्ट और महत्वपूर्ण बात कोन सी मानते थे ? इसके उत्तर मे उन्होंने कहा था, " वही जिसमे किसी भी क्षण वे सलंगन होते थे | "

बूंद-बूंद से सागर बनता है और क्षण-क्षण से जीवन | बूंद को जो पहचान ले, वह सागरको जान लेता है और क्षण को जो पा ले, वह जीवन को पा लेता है | क्षण मे शाश्वत की पहचान ही जीवन का आध्यात्मिक रहस्य है |

अखंड ज्योति जून २००१

मानव की मौलिक स्वतंत्रता

मानव मौलिक रूप से स्वतंत्र है | प्रकृति ने तो उसे मात्र सम्भावनाये दी है | उसका स्वरूप निर्णीत नही है | वह स्वयं का स्वयं ही सृजन करता है | उसकी श्रेष्टता अथवा निकृष्टता स्वयं उसी के हाथो मे है | मानव की यह मौलिक स्वतंत्रता गरिमामय एवम महिमापूर्ण है, किंतु वह चाहे तो इसे दुर्भाग्य भी बना सकता है और दुःख की बात यही है कि ज्यादातर लोगो के लिए यह मौलिक स्वतंत्रता दुर्भाग्य ही सिद्ध होती है | क्योंकि सृजन की क्षमता मे विनाश की क्षमता और स्वतंत्रता भी तो छिपी है | ज्यादातर लोगइसी दूसरे विकल्प का ही उपयोग कर बैठते है |

निर्माण से विनाश हमेशा ही आसान होता है | भला स्वयं को मिटाने से आसन औरक्या हो सकता है ? स्व-विनाश के लिए आत्म सृजन न लगना ही काफी है | उसके लिए अलग से और कुछ भी करने की आवश्यकता नही होती | जो जीवन मे ऊपर की और नही उठ रहा है, वह अनजाने और अनचाहे ही पीछे और नीचे गिरता चला जाता है |

एक बार ऐसी ही चर्चा महर्षि रमण की सत्संग सभा मे चली थी | इस सत्संग सभा मे कुछ लोग कह रहे थे की मनुष्य सब प्राणियो मे श्रेष्ट है, किंतु कुछ का विचार था की मनुष्य तो पशुओ से भी गया-गुजरा है | क्योंकि पशुओ का भी संयम और बर्ताव कई बार मनुष्य से अनेको गुना श्रेष्ट होता है | सत्संग सभा मे महर्षि स्वयं भी उपस्थित थे |दोनों पक्ष वालो ने उनसे अपना निर्णायक मत देने को कहा | महर्षि कहने लगे, " देखो,सच यही है की मनुष्य मृण्मय और चिन्मय का जोड़ है | जो देह का और उसकी वासनाका अनुसरण करता है, वह नीचे-से-नीचे अंधेरो मे उतरता जाता है और जो चिन्मय के अनुसन्धान मे रत होता है, वह अंतत सच्चिदानंद को पाता और स्वयं भी वही हो जाता है | " ठीक ही तो है | प्रज्ञा पुराण भी तो यही कहता है |
अखंड ज्योति जुलाई 2001

भारतमाता

भारतमाता का आँचल हिमालय के श्वेत हिम शिखरों से लेकर केरल की हरियाली तक फैला हुआ है। कन्याकुमारी के महासागर की तरंगो मे इसकी तिरंगी आभा लहराती है।माता अपने आँचल मे अपनी सभी सौ करोड़ संतानों को समेटे हुऐ है | सभी जातिया,सभी वर्ण, सभी वंश इसी की कोख से उपजे है। माता अपनी छाती चीरकर सभी के लिए पोषण की व्यवस्था जुटाती है। संतानों का सुख ही इस माँ का सुख है, संतानों का दुःख ही इसकी पीड़ा है।

इस प्रेममयी जननी ने अपने पुत्रो के लिए, पुत्रियों के लिए बहुत कुछ सहा है। परायो के आघात ने इसे कष्ट तो दिया, पर इसके धेर्य को डिगा नही पाए।

यह क्षमामयी माता बिलखी तो तब, तड़पी तो तब, जब अपनों ने ही मीरजाफर ,जयचंद बन कर इस पर वार किए। माँ की ममता को छला, इसकी भावनाओ को आहत किया, कोख को लजाया। आज भी जब इसके अपने बच्चे परायो के बहकावे मे आकर अपने को आतंकित करते है, क्रूरता के कुकृत्य करते है तो इस धैयॅमयी का धीरज रो पड़ता है। समझ मे नही आता की यह किससे कहे, कैसे कहे अपनी पीड़ा ! कहाँ बांटे अपना दरद !

हालाँकि भारतमाता के सत्पुत्रो-सत्पुत्रियो की भी कमी नही है। वीर शिवाजी, महाप्रतापी राणा प्रताप, झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई, इसके यश को दिगंतव्यापी बनाने वाले विवेकानंद, इस पर अपने सुखो को निछावर करने वाले सुभाष-गाँधी, इसके दुखों को मिटाने के लिए सदा-सवर्दा तप मे रत युग ऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा आदि मात्तृ भक्तो ने ही तो इसे गुलामी से मुक्त करा कर गोरवान्वित किया। आज माता ने फ़िर से अपनी संतानों की संवेदना को पुकारा है, जो इसकी कोख का मन रखे, इसके आँचल की अखंडता बनाये रखे।

अखंड ज्योति - अगस्त २००६

क्या हम मनुष्य है ?

क्या हम मनुष्य है ? अटपटे से लगने वाले इस सवाल का जवाब बड़ा सीधा है। संवेदना मे जितनी हमारी गहराई होगी, मनुष्यता मे उतनी ही ऊंचाई होगी और संग्रह मे जितनी ऊंचाई होगी, मनुष्यता मे उतनी ही नीचाई होगी। संवेदना और संग्रह जिन्दगी की दो दिशाए है। संवेदना सम्पूर्ण हो तो संग्रह शून्य हो जाता है और जिनके चित्त संग्रह की लालसा से घिरे रहते है, संवेदना वहाँ अपना घर नही बसाती।

अरब देश की एक मलिका ने अपनी मौत के बाद कब्र के पत्थर पर निम्न पंक्तियालिखने का हुक्म जारी किया-" इस कब्र मे अपार धनराशि गडी हुई है, जो व्यक्तिअत्यधिक निर्धन, दीन-दरिद्र और अशक्त हो, वह इसे खोद कर प्राप्त कर सकता है। "कब्र बनाये जाने के बाद से हजारो दरिद्र और भिखमंगे उधर से गुजरे, लेकिन उनमे से कोई भी इतना दरिद्र नही था कि धन के लिए किसी मरे हुई व्यक्ति की कब्र खोदे।

आखिरकार वह इन्सान भी आ पहुँचा, जो उस कब्र को खोदे बिना नही रह सका। अचरज की बात तो यह थी कि कब्र खोदने वाला यह व्यक्ति स्वयं एक सम्राट था। उसने कब्र वाले इस देश को अभी-अभी जीता था। अपनी जीत के साथ ही उसने बिना समय गँवाए उस कब्र की खुदाई का काम शुरू कर दिया, लेकिन कब्र की गहराई मे उसे अपार धनराशि के बजे एक पत्थर मिला, जिस पर लिखा हुआ था- ऐ कब्र खोदने वाले इन्सान, तू अपने से सवाल कर-" क्या तू सचमुच मनुष्य है ? "

निराश व अपमानित वह सम्राट, जब कब्र से वापस लौट रहा था तो लोगो ने कब्र के पास रहने वाले बुढे भिखमंगे को जोर से हंसते देखा। वह कह रहा था-" मैं सालो से इंतजार कर रहा था, अंततः आज धरती के सबसे अधिक निर्धन, दरिद्र एवम् अशक्त व्यक्ति का दर्शन हो ही गया ! " सचमुच संवेदना जिस ह्रदय मे नही है, वही दरिद्र, दीन और अशक्त है। जो संवेदना के अलावा किसी और संपत्ति के संग्रह के फेर मे रहता है, एक दिन उसकी सम्पदा ही उससे पूँछती है-क्या तू मनुष्य है ? और आज हम पूंछे अपने आप से-क्या हम मनुष्य है ?

अखंड ज्योति दिसम्बर २००५

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