बुधवार, 23 दिसंबर 2009

मानवता की मॉंग


स्व. लाल बहादुर शास्त्री जब केंद्रीय गृह मंत्री थे, तब उनकी कोठी ऐसी थी जिसके दो दरवाजे थे, एक जनपथ रोड़ की ओर था दूसरा अकबर रोड़ की ओर। एक दिन सिर पर लकड़ी के बोझ रखे कुछ मजदूर स्त्रियॉं इधर आई और चक्कर से बचने के लिए शास्त्री जी के बंगले में घुस पड़ी। उन्हें देखा तो चौकीदार बिगड़ खड़ा हुआ। वह उन्हें वापस
लौटाने लगा, तो शास्त्री जा आ गये। स्थिति समझते देर न लगी। चौकीदार को शांत करते हुए उन्होंने कहा-``देखो, इनके सिर पर कितना बौझ हैं, यदि इन्हें यहॉं से निकल जाने में थोड़ी राहत होती हैं, तो तुम इन्हें क्यों राकते हो | 

राजनीति में भी सच्चाई

एक दिन ब्रजमोहन व्यास ने मदनमोहन मालवीय से राजनीति के संबंध में कहा कि, महाकवि माघ ने तो अपने एक ही छंद में राजनीति की व्याख्या कर दी हैं। उस छंद में उन्होंने कहा हैं कि अपना उदय और शत्रु का विनाश ही केवल राजनीति हैं। मालवीय जी की मुस्कान घृणा में बदल गई। बोले-छि: ! यह तो टुच्ची राजनीति हैं, सच्ची श्लाघनीय राजनीति तो वह हैं, जिसमें अपने साथ-साथ दूसरों का भी अभ्यूदय होता है।´´

छाता हैं किस काम के लिए ?

कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था और वर्षा की झड़ी लगी थी। एक-एक करके नेता लोग निकले चले जा रहे थे, एक कोने में खड़े श्री व्यंकटेशनारायण तिवारी वर्षा रूकने की प्रतीक्षा में थे, अनेक नेता छाता लगाए हुए, उनके सामने से गुजरे और सभी ने केवल एक बात पूछी-``क्यों व्यंकटेश छाता नहीं लाए ?´´ अंत में आए महामना मालवीय, सिमटे खड़े तिवारी को देखते हुए बोले-``अरे, व्यकटेश, तुम यहॉं खड़े हो, आओ, छाते में हो लो।´´ महामना ने उन्हें खींचकर अपने छाते में ले ही लिया और बोले-``आखिर यह छाता हैं, किस काम के लिए ?´´

स्वर्ग नरक के बीच

मरणासन्न डार्विन को थोड़ा होश हो गया। उन्होंने अपनी पुत्री से कहा-``बेटी, मैं न स्वर्ग जाना चाहता हूं न नरक। मैं तो यदि परलोक कहीं होता होगा, तो उसके द्वार पर अड़ा रहूंगा और इन पंडितो को न स्वर्ग में प्रवेश करने दूंगा और न नरक में। अन्यथा ये इस लोक की तरह परलोक में भी पाखंड फैलाए बिना न मानेंगे।´´

द्रष्टिकोण

एक दार्शनिक से पूछा गया-``आप इस दुखी और असंतुष्ट संसार के बीच सुखी और संतुष्ट कैसे रहते हैं ?´´ उन्होने उत्तर दिया-``मैं अपनी ऑंखो का सही उपयोग जानता हूँ । जब मैं ऊपर देखता हूं, तो मुझे स्वर्ग याद आता हैं, जहॉं मुझे जाना हैं। नीचे देखता हूं तो यह सोचता हूँ कि जब मेरी कब्र बनेगी, तो कितनी कम जगह लगेगी और जब मैं दुनिया में चारों तरफ देखता हूँ तो मुझे मालूम होता हैं कि करोड़ों मनुष्य ऐसे हैं, जो मुझसे भी दु:खी हैं। इसी तरह संतोष पाता हूँ ।´´

भीख नहीं चाहिये



दया भाव दिखाते हुए एक सज्जन ने एक डालर का सिक्का बच्चे के हाथ में रखा और कहा-जाओ बेटे कुछ खाकर अपनी भूख मिटा लो।´´

सिक्का लौटाते हुए बच्चे ने स्वाभिमानपूर्वक कहा-``साहब ! मैं भीख मॉंगने नहीं आया, आपसे विनय करने आया हूँ कि मुझे किसी स्कूल में भरती करा दो, जहॉं में पढ़ सकूं।´´

उन सज्जन ने बच्चे से प्रभावित होकर उसे एक स्कूल में दाखिल करा दिया। दोनों पॉंवों का लंगड़ा यह लड़का ही एक दिन कुशल हवाबाज सैंडर्स के नाम से विख्यात हुआ।

निस्वार्थ निष्काम

निस्वार्थ समाज सेवा का दम भरने वाले एक अधकचरे समाजसेवी अपना बड़प्पन प्रदर्शित कर रहे थे-``मैं समाज के लिए सब कुछ करके भी प्रतिदान में कुछ नहीं चाहता, यश भी नहीं ?

उनके वक्तव्य के बाद इनके सामने एक पर्चा आया। उस पर लिखा था``यह वक्तव्य देने में क्या आपका यशभाव नहीं हैं, कि लोग आपकी निस्वार्थ सेवा भावना का लोहा मान जाये ?´´

इस पर उस सज्जन को कुछ बोलते न बना। 

यहॉं धन गड़ा हैं

मृत्यु के समय बेबीलोन की रानी नोटीक्रिस ने अपनी कब्र पर निम्न पंक्तियॉं लिखने का संकेत किया-``यहॉं पर अपार धन गड़ा हुआ हैं, कोई भी निर्धन और अशक्त मनुष्य कब्र खोदकर धन प्राप्त कर सकता हैं।´´

बहुत लम्बे समय के पश्चात् ईरान के बादशाह डेरियस ने जब बेबीलोन को जीत लिया, तो उसने कब्र खोदने का कार्य आरंभ किया, पर उसे एक भी पैसा नहीं मिला, केवल एक पत्थर मिला, जिस पर लिखा हुआ था-``तू मनुष्य नहीं हैं, नही तो तू मरे हुए को नहीं सताता।´´

मेड इन हांगकांग

खेड़ा (गुजरात) की बात हैं, एक जापानी व्यापारी किसी खरीद के लिए आए थे, एक दिन जब वह सज्जन हिसाब लिख रहे थे, तो उनकी पेंसिल टूट गई। पास ही खड़े एक भारतीय महोदय ने उन्हें दूसरी पेंसिल दे दी। जापानी भाई ने पेंसिल ले तो ली, पर लिखने की अपेक्षा उसके अक्षर पढ़ने लगे, लिखा था-``मेड इन हांगकांग।´´ उस पेंसिल को लौटाते हुए उन्होंने कहा-``नहीं भाई ! यह जापान की बनी नहीं हैं।´´ और आगे का हिसाब उन्होंने तभी लिखा, जब बाजार में दूसरी ``मेड इन जापान´´ पेंसिल आई। उनके इस देश प्रेम से भारतीय बहुत प्रभावित हुए।

प्यास वहीं बुझाना

गुरू गोविंद सिंह ने अपने 16 वर्षीय बड़े पुत्र अजीत सिंह को आज्ञा दी कि तलवार लो और युद्ध में जाओ। पिता की आज्ञा पाकर अजीत सिंह युद्ध में कूद पड़ा और वहीं काम आया। इसके बाद गुरू ने अपने द्वितीय पुत्र जोझार सिंह को वही आज्ञा दी। पुत्र ने इतना ही कहा-``पिता जी प्यास लगी हैं, पानी पी लूं।´´ इस पर पिता ने कहा, ``तुम्हारे भाई के पास खून की नदियॉं बह रही हैं। वहीं प्यास बुझा लेना।´´ जोझार सिंह उसी समय युद्ध क्षेत्र को चल दिया और वह अपने भाई का बदला लेते हुए मारा गया। 

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