सोमवार, 30 नवंबर 2009

क्या करें, क्या न करें ? - 2

1. मल त्याग करते समय जोर-जोर से साँस नहीं लेनी चाहिये। (ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्म. 26/26)
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2. किसी जलाशय से बारह अथवा सोलह हाथ दूरी पर मूत्र-त्याग ओर उससे चार गुणा अधिक दूरी पर मल-त्याग करना चाहिये। (धर्मसिंधु 3 पू.आहिन्क)

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3. वृक्ष की छाया में मल-मूत्र का त्याग न करें। परन्तु अपनी छाया भूमि पर पड़ रही हो तो उसमें मूत्र-त्याग कर सकते हैं। (आपस्तम्बधर्मसूत्र 1/11/30/16-17)

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4. मल-मूत्र का त्याग करते समय ग्रहों, नक्षत्रों, चारों दिशाओं, सूर्य, चन्द्र और आकाश की ओर नहीं देखना चाहिये। अपने मल-मूत्र की ओर भी नहीं देखना चाहिये। (देवीभागवत 11/2/15, कूर्मपुराण उ.13/42)

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5. पेड़ की छाया में, कुएँ के पास, नदी या जलाशय में अथवा उनके तट पर, गौशाला में, जोते हुए खेत में, हरी-भरी घास में, पुराने (टूटे-फूटे) देवालय में, चौराहे में, श्मशान में, गोबर पर, जल के भीतर, मार्ग पर, वृक्ष की जड़ के पास, लोगों के घरों के आस-पास, खम्भे के पास, पुल पर, खेल-कूद के मैदान में, मंच (मचान) के नीचे, भस्म (राख) पर, देव मंदिर में या उसके पास, अग्नि या उसके निकट, पर्वत की चोटी पर, बाँबीपर, गड्ढे में, भूसी में, कपाल (ठीकरे या खप्पर) में, बिल में, अंगार (कोयले) पर, और लकड़ी पर मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिये। (ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्म. 26/19-24, गरूड़पुराण, आचार. 96/38)

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6. अग्नि, सूर्य, गौ, ब्राह्मण, गुरू, स्त्री, चन्द्रमा, आती हुई वायु, जल और देवालय-इनकी ओर मुख करके (इनके सम्मुख) मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिये। 

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7. जो स्त्री-पुरूष सूर्य, या वायु की ओर मुख करके पेशाब करते हैं, उनकी गर्भ में आयी हुई सन्तान गिर जाती है। (महाभारत, अनु. 125/64-65)

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8. सामने देवताओं का और दाहिने पितरों का निवास रहता हैं, अत: मुख नीचे करके कुल्ले को अपनी बायीं ओर ही फेंकना चाहिये। (व्याघ्रपादस्मृति 200)

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9. दूधवाले तथा काँटेवाले वृक्ष दातुन के लिये पवित्र माने गये हैं। (लघुहारितस्मृति 4/9)

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10. अपामार्ग, बेल, आक, नीम, खैर, गूलर, करंज, अर्जुन, आम, साल, महुआ, कदम्ब, बेर, कनेर, बबूल आदि वृक्षों की दातुन करनी चाहिये। परन्तु पलाश, लिसोड़ा, कपास, धव, कुश, काश, कचनार, तेंदू, शमी, रीठा, बहेड़ा,सहिजन, सेमल आदि वृक्षों की दातुन नहीं करनी चाहिये। (विश्वामित्रस्मृति 1/61-63)

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11. कशाय, तिक्त अथवा कटु रसवाली दातुन आरोग्यकारक होती हैं। (वृद्धहारीतस्मृति 4/24)

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12. महुआ की दातुन से पुत्रलाभ होता हैं। आक की दातुन से नेत्रों को सुख मिलता हैं। बेर की दातुन से प्रवचन की शक्ति प्राप्त होती हैं। बृहती (भटकटैया) की दातुन करने से मनुष्य दुष्टों पर विजय पाता हैं। बेल और खेर की दातुन से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती हैं। कदम्ब से रोगों का नाश होता हैं। अतिमुक्तक (कुन्द का एक भेद) से धन का लाभ होता हैं। आटरूशक (अड़ूसा) की दातुन से सर्वत्र गौरव की प्राप्ति होती हैं। जाती (चमेली) की दातुन से जाति में प्रधानता होती हैं। पीपल यश देता हैं। िशरीश की दातुन से सब प्रकार की सम्पत्ति प्राप्त होती हैं। (स्कन्दपुराण, प्रभास. 17/8-12)

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13. कोरी अंगुली से अथवा तर्जनी अंगुली से कभी दातुन नहीं करना चाहिये। कोयला, बालुका, भस्म (राख) नाख़ून, ईंट, ढेला और पत्थर से दातुन नहीं करना चाहिये। ( स्कन्दपुराण, प्रभास. 17/19)

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14. दातुन कनिश्ठका अंगुली के अग्रभाग के समान मोटी, सीधी तथा बारह अंगुल लम्बी होनी चाहिये। (वसिश्ठस्मृति-2, 6/18)

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15. दन्तधावन करने से पहले दातुन को जल से धो लेना चाहिये। दातुन करने के बाद भी उसे पुन: धोकर तथा तोड़कर पवित्र स्थान में फेंक देना चाहिये। (गरूड़पुराण, आचार. 205/50)

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16. सदा पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके दन्तधावन करना चाहिये। पश्चिम और दक्षिण की ओर मुख करके दन्तधावन नहीं करना चाहिये। (पद्मपुराण, सृिश्ट 51/125)
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17. प्रतिपदा, षष्टि , अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या के दिन शरीर पर तेल नहीं लगाना चाहिये। (ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्री कृष्ण 75/60)

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18. सिर पर लगाने से बचे हुए तेल को शरीर पर नहीं लगाना चाहिये। (कूर्मपुराण, उ.16/58)

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19. यदि नदी में स्नान कर रहे हो तो जिस ओर से उसकी धारा आती हो, उसी ओर मुँह करके तथा दूसरे जलाशयों में सूर्य की ओर मुँह करके स्नान करना चाहिये। (महाभारत, आश्व.92)

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20. बिना शरीर की थकावट दूर किये और बिना मुख धोये स्नान नहीं करना चाहिये। (चरकसंहिता, सूत्र. 8/11)

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21. सूर्य की धूप से सन्तप्त व्यक्ति यदि तुरन्त (बिना विश्राम किये) स्नान करता हैं तो उसकी दृष्टि मन्द पड़ जाती हैं और सिर में पीड़ा होती हैं। (नीतिवाक्यामृत 25/28)

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22. नग्न होकर कभी स्नान नहीं करना चाहिये। (मनुस्मृति 4/45)
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23. पुरूष को नित्य सिर के ऊपर से स्नान करना चाहिये। सिर को छोड़कर स्नान नहीं करना चाहिये। सिर के ऊपर से स्नान करके ही देवकार्य तथा पितृकार्य करने चाहिये। (वामनपुराण 14/53)

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