बुधवार, 19 अगस्त 2009

नरसी महता

अंतकाल में महापुरूषों को देह की पीड़ा तो रहती है, पर मन कभी विकल नहीं होता । वे मन से प्रसन्न रहकर कष्ट को सहन करते हैं। अपने सारे भोग काट कर ही जाते है। नरसी महता की पत्नी मरी । लोगों ने आकर देखा-वे कीर्तन कर रह थे। खूब प्रसन्न थे। लोगो ने सोचा वियोग में पागल हो गए हैं, बहुत स्नेह करते थे अपनी पत्नी को, लेकिन वो प्रसन्न-मुक्त हो गई। इस तथ्य को संसारी आदमी नही समझ सकते।

नियमित उपासना

नियमित उपासना का काई न कोई उपक्रम बैठा लिया जाए तो उसके बड़े ही चमत्कारी सत्परिणाम सामने आते है। श्री कंदकरि बीरेश लिंगम् ने जिस दिन से दीक्षा संस्कार ग्रहण किया, उसी दिन से निष्ठापूर्वक एक सौ बार गायत्री मंत्र का जप नित्य नियमित रूप से करने का दृढ निश्चय कर लिया। उपासना में श्रद्धा और नियमितता अपनी शक्ति होती है। श्री बीरेश लिंगम् की माँ भूत-प्रेतों का नाम सुनकर ही भयभीत हो जाती थी । उन्ही दिनों उनके यहाँ एक तांत्रिक योगी आता था। जो अपने को प्रेतविद्या का निष्णात मानता और भूत भगाने का आश्वासन देता था। उसकी माता जी को उस तांत्रिक के प्रति गहरी श्रद्धा थी । यह एक प्रकार का अंधविश्वास ही था। बीरेश लिंगम् इस अंध मान्यता को कहाँ स्वीकार करने वाले थे। उनने उस तांत्रिक को घर में आने से मना कर दिया । तांत्रिक क्रोधित होकर उनके उपर आक्रमण करने पर उतारू हो गया और बुरे से बुरा शाप देने लगा।

नियमित रुप से गायत्री उपासना करने वाले पर उसकी धमकी का काई प्रभाव नहीं पड़ा , वरन् `शिकारी खुद शिकार बन गया´ वाली उक्ति ही चरितार्थ होती देखी गई । तांत्रिक बीरेश लिंगम् की गरजना को सुनकर बीमार पड़ गया और दिन-प्रतिदिन दुर्बल होता चला गया । उस महान उपासक के हृदय में करुणा कूट-कूट कर भरी थी, इसलिए उस तांत्रिक को कुछ आर्थिक सहायता प्रदान कर उसे वापस घर भेज दिया । उस दिन से तांत्रिक ने भी उपासना का महत्व समझ लिया और संकल्प किया कि आज से मैं गायत्रीसाधक के साथ कोई ऐसी हरकत नहीं करुँगा, एक साधक की तरह ही रहूँगा।


राष्ट्र धर्म

राष्ट्र हम में से हरेक के सम्मिलित अस्तित्व का नाम है। इसमें जो कुछ आज हम है, कल थे और आने वाले कल में होंगें, सभी कुछ शामिल है। हम और हम में से हरेक के हमारेपन की सीमाएँ चाहे जितनी भी विस्तृत क्यो न हों, राष्ट्र की व्यापकता में स्वयं ही समा जाती है। इसकी असीम व्यापकता में देश की धरती, गगन, नदियाँ, पर्वत , झर-झर बहते निर्झर , विशालतम सागर और लघुतम सरोवर, सघन वन , सुरभित उद्यान, इनमें विचरण करने वाले पशु, आकाश में विहार करने वाले पक्षी, सभी तरह के वृक्ष व वनस्पतियाँ समाहित है। प्रांत, शहर , जातियाँ, यहाँ तक कि रीति-रिवाज, धर्म-मजहब , आस्थाएँ-पंरपराएँ राष्ट्र के ही अंग-अवयव है।

राष्ट्र से बड़ा अन्य कुछ भी नही हैं। भारतवासियों की एक ही पहचान है-भारत देश, भारत मातरम् । हम में से हरेक का एक ही परिचय है-राष्ट्रध्वज, अपना प्यारा तिरंगा। इस तिरंगे की शान में ही अपनी शान है। इसके गुणगान में ही अपने गुणो का गान हैं । हमारी अपनी निजी मान्यताएँ, आस्थाएँ, परंपराएँ, यहाँ तक कि धर्म, मजहब की बातें वहीं तक कि इनसे राष्ट्रीय भावनाएँ पोषित होती है( जहाँ तक कि ये राष्ट्र धर्म का पालन करने में , राष्ट्र के उत्थान में सहायक है। राष्ट्र की अखंड़ता, एकजुटता और स्वाभिमान के लिए अपनी निजता को निछावर कर देना प्रत्येक राष्ट्रवासी का कर्तव्य है।

राष्ट्र धर्म का पालन प्रत्येक राष्ट्रवासी के लिए सर्वोपरि है। यह हिंदू के लिए भी उतना ही अनिवार्य है, जितना कि सिख, मुसलिम या ईसाई के लिए। यह गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब या तमिल, तैलंगाना की सीमाओं से कही अधिक है। इसका क्षेत्र तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक सर्वत्र व्याप्त है। राष्ट्र धर्म के पालन का अर्थ है- राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु व परिस्थिति के लिए संवेदशील होना, कर्तव्यनिष्ठ होना( राष्ट्रीय हितो के लिए, सुरक्षा के स्वाभिमान के लिए अपनी निजता, अपने सर्वस्व का सतत बलिदान करते रहना । )

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