मंगलवार, 18 अगस्त 2009

सुभद्राकुमारी चौहान

सारे मनोरोग विषाद सें आरंभ होते है। कोई ऐसा विधान नही कि विषाद को योग बना दे। लेकिन श्रीमद्भगवद्गीता युगों-युगों से मानव मात्र को विषाद को योग में बदलना सिखाती आई है। पांडवों का सारा जीवन कष्टों मे ही बीता । और कौरवो का जीवन सुख में, ईश्र्या-द्वेष में, भाँति-भाँति के कुचक्रो में बीता । पाडंवो ने जो कुछ भी जीवन विद्या का शिक्षण लिया, वह अपने दु:ख के क्षणों में ही उन्हे मिला । महाभारत में उनके जीवन का अंतिम सोपान आता है, जब युद्ध आरंभ होते ही धनुर्धरश्रेष्ठ अर्जुन विषादग्रस्त हो जाता है- तनाव, अत्यधिक आत्मग्लानि एवं राग की पराकाष्ठा के क्षणों से गुजरता है। तब भगवान उसे मन की चंचल लता से जुझना सिखाते है। अपनी शरण में आने को कहते है। (मामेकं शरणं व्रज)। यह सब आज के अर्जुनो के लिए भी है। आज का युवा दिग्भ्रांत है। परीक्षा आते ही घबरा जाता है। कैसे जूझे ? सीखे गीता के योग से।

`वीरो का कैसा हो वसंत´ जैसी कविताओं की सृजेता सुभद्राकुमारी चौहान (1904-1948) प्रयाग में जन्मी थीं। चौदह वर्ष की अल्पायु में उनका विवाह खंडवा के ठाकुर लक्ष्मणसिंह चौहान के साथ हुआ। ठाकुर साहब स्वयं माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा प्रकाशित , संपादित राष्ट्रवादी पत्र `कर्मवीर´ के सहायक संपादक थे। उन्होने चाहा कि उनकी पत्नी की आगे बढने की इच्छा रोकी नही जानी चाहिए। उन्हें थियोसॉफिकल स्कूल में भरती कर दिया गया। बाद में वे स्वतंत्रता-संग्राम में भी कूद पड़ीं। जेल गई। लौटने पर खांडवा में पति के साथ रहते हुए माखनलाल जी के संमर्क मे आई । उन्होनें सुभद्रा जी की काव्य प्रतिभा को पहचाना । धीरे-धीरे उनकी कविता में देशभक्ति के अंगारे धधकने लगे । `खुब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी´ यह उनकी ही कविता थी । उनकी सरल, सुबोध, चुभती भाषा में लिखी कविताओं ने जन-जन को प्रभावित किया । ठाकुर साहब राष्ट्रदेव की सेवा में अपनी तरह लगे रहे। वे भी गृहस्थी सँभालतीं, साथ ही पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलनों में भाग लेती । वंसत पंचमी ,1948 को एक रोड एक्सीडेंट में वे चल बसी , पर नारी जगत के लिए प्रेरणास्त्रोत बन गई।







मन: स्थिति

बिंबसार महावीर के दर्शन करने गए। मार्ग में एक महात्मा का स्थान भी पड़ता था। वे एक साम्राज्य के स्वामी थे, पर सब छोड़कर कठोर तप कर रहे थे। उनके दर्शन कर महावीर के पास पहुँचे तो पूंछा कि वो दीर्धकाल से तप कर रहे है । उनकी गति क्या होगी , अंत क्या होगा , महावीर बोले-``इस क्षण यदि वो शरीर छोड़ दे तो सातवे नरक को प्राप्त होंगें।´´ बिंबसार स्तब्ध रह गए। पुन: कहा-``हाँ ,मै उन्ही के विषय में बता रहा हूँ। अभी मरे तो स्वर्ग लोक में जाएँगे।´´ बडी अजीब बात लगी बिंबसार को । फिर पूंछा-``फिर से देखिए-बताएँ क्या गति होगी -``अब वे सिद्धो के लोक को जाएँगे-अब वे मोक्ष को प्राप्त हो गए है।´´ रहस्य खोलते हुए महावीर ने कहा-``जिस पल तुमने पूंछा था, उस समय उसके पास राज्य पर शत्रु के हमले की खबर आई थी। मंत्री ने आकर कहा-`बहु मार दी गई´ उनके अंदर का क्षत्रिय जाग उठा था। `लाओ तलवार´, यह कह उठे थे। इसीलिए कहा था `नरक जाएँगे।´ दूसरे पल उनने सोचा, सिर पर जटाएँ है-किसका बेटा , किसकी बहु-कैसा राज्य, किसका बदला ! विकृति धुल गई । मै अपने रास्ते चलूँगा । फिर स्वर्ग सिद्धों के लोक की बात कही । कर्म की अंतिम पीड़ा वे भुगत चुके थे। अत: अशेष हो गए थे। इसलिए मैने कहा-मुक्त हो गए । जैसी मन: स्थिति में आप जीते हैं, वैसी ही गति होती है। ´´ 

आध्यात्मिक कार्य

स्वामी विवेकानंद अमेरिका से लौटकर मद्रास रुके थे। वहाँ उन्होने फरवरी, 1897 में `मेरी समर नीति´ ,`भारत के महापुरूष´, `राष्ट्रीय जीवन में वेदातं की उपयोगिता´ तथा `भारत का भविष्य´विषय पर व्याख्यान दिए। थकान के बावजूद विभिन्न विषयों पर स्वामी जी का इतना गूढ़ प्रतिपादन व उसकी श्रमशीलता देखकर आयोजक श्री सुंदरराम अय्यर ने पुछा कि उन्हे इतना परिश्रम करने के लिए शक्ति कहाँ से मिलती है " स्वामी जी ने कहा-``किसी भी भारतीय से पूंछकर देख लीजिए। आध्यात्मिक कार्य हेतु किसी भी भारतीय को कभी थकान का बोध नही होता ।´´

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