मंगलवार, 11 अगस्त 2009

समय का महत्त्व

अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन समय के बड़े पाबंद थे । एक बार उन्होने कुछ विशिष्ट अतिथियों को तीन बजे अपराहृ भोजन के लिए आमंत्रित किया । साढे़ तीन बजे उन्हें सैनिक कमांडरों की आवश्यक बैठक में भाग लेना था। ठीक तीन बजे भोजन तैयार था। टेबल पर लग चुका था, पर मेहमान नही आए । प्रतिक्षा करने के बजाए राष्ट्रपति ने अकेले भोजन प्रारम्भ कर दिया । आधा भोजन समाप्त हो गया, तब मेहमान पहुँचे । उन्हे दु:ख था और अप्रसन्नता भी थी, पर वे भोजन में शामिल हो गए। वाशिंगटन ने समय पर अपना भोजन समाप्त किया एवं उनसे विदा लेकर बैठक में चलें गए। यह घटना `टाइम मैनेजमेंट´ के महत्व को बताती है। आज इसी की सबसे अधिक उपेक्षा होती है। हो सकता है किसी को यह घटना अतिरंजित लगे, पर उस दिन सभी ने अपने राष्ट्रपति की सफलता का मर्म एवं समय का महत्त्व जान लिया ।


`भारतमाता की जय´

18 वर्ष के तरूण स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी हेमू कलानी पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगा। मुकदमा चला। अँगरेज न्यायाधीश के हर प्रश्न का उसने निर्भीक होकर जवाब दिया । सैनिक मुख्यालय हैदराबाद (सिंध) के कमांडर ने आजीवन करावास की सजा को फाँसी में बदल दिया। फैसला सुनाने से दंड मिलने तक उसका वजन लगभग 8 पौंड बढ़ गया था । 21 जनवरी, 1943 को उसे फाँसी पर चढा़या जाना था। `भारतमाता की जय´-`इंकलाब जिंदाबाद´ का नारा लगाता हेमू फाँसी पर चल पड़ा । जब उससे अंतिम इच्छा पूछी गई और पूरी की जाने का आश्वासन मिल गया तो वचनबद्ध जिला मजिस्ट्रेट (ब्रिटिश) को भी `भारतमाता की जय´ बोलनी पड़ी । यह है क्रांतिकारी जज्बा।

चोकर की उपयोगिता

गेहूँ के आटे को छानकर जो चोकर अलग किया जाता है, वह कितना गुणकारी है, यह जानना जरूरी है। यह कब्ज की अद्वितीय प्राकृतिक औषधि है। यह आँतों में उत्तेजना पैदा नही करता तथा कैन्सर से दूर रखता है ( यह प्रयोग द्वारा प्रमाणित हो गया है।) अमाशय के घाव (पेप्टिक अल्सर),आँतों के विभिन्न रोग, उच्च कोलेस्टेरॉल से भी यह बचाता है। चोकर खाने वालों को कभी पाइल्स, भगंदर या मलाशय का कैन्सर नही होता है। मोटापा घटाने के लिए चोकर एक नीरापद औषधि है। मधुमेह निवारण में भी चोकर मदद करता है। चोकर मिश्रित आटा रोटी को और भी स्वादिष्ट बना देता है । गेहूं का चोकर एक आदर्श रेशा (फाइबर डाइट) है। हम आज कि जीवन शैली में मैदे वाली रोटी खाते हैं एवं चोकर के इतने लाभों को पाने से बचे रहते है। 


मांटेस्सरी शिक्षा प्रणाली

मरिया मांटेस्सरी(MONTESSORY) रोम में जन्मी थीं। वे इटली की प्रथम महिला चिकित्सक बनीं। किशोरावस्था के अपराधियों, पागलखानो को देखकर जड़ों मे जाने की उनकी इच्छा जागी । उन्होंने स्कूलों की शिक्षा पद्धति का विश्लेशण किया, पाया कि वहीं पर गड़बड़ है। उन्होने देखा कि बच्चे चुपचाप सुनते रहते हैं। उन्हे अपने विचार अभिव्यक्त करने पर डाँटा जाता है। एक परिष्कृत शिक्षा-प्रणाली को विकसित करने की बात उनके जेहन में आई । पहला प्रयोग एक गंदी बस्ती लोरेंजो से किया । यहीं जन्मी मांटेस्सरी शिक्षा प्रणाली, जो आज सारे विश्व में बाल शिक्षण का आधार है। 1913 में उन्होंने इस पद्धति पर पहली पुस्तक प्रकाशित की । इस पुस्तक को प्राय: सभी देशो ने अपना लिया गया । आज सभी श्रद्धा से उस महिला को याद करते हैं, जिसने एक युगप्रवर्तक शिक्षण पद्धति दी। 

मिलेंगें ऐसे लोग हमें आज ?

आज जिस उपाधि की हम बात करते हैं-भारत की सर्वोच्च उपाधि `भारत रत्न´ , उसका विधान पं0 गोविंन्द वल्लभ पंत (भारत के दूसरे गृहमंत्री ) के समय में चला था। प्रथम व द्वितीय के बाद अगले की बारी आई तो सर्वसम्मति से भाई जी हनुमानप्रसाद पोद्दार का नाम चुना गया । वे गीता प्रेस, गोरखपुर के संस्थापक-गीता आंदोलन के प्रणेता थे । उन तक बात पहुँची । उन्होने पंत जी से कहा-`` हम इस योग्य नही है। देश बड़ा है। कई सुयोग्य व्यक्ति होगें । हमने कुछ किया भी है तो किसी पुरस्कार की आशा से नही किया । आप किसी और को दे दें ।´´ नेहरू जी को पता चला तो उन्होने पंत जी से कहा-``जाओ और मिलो । आदर सत्कार से बात करो । कोई बात हो सकती है। पता लगाओ।´´ पंत जी ने आकर बात की । पुन: भाई जी बोले-``हम स्वयं को इस लायक मानते ही नहीं । हमने भक्तिभाव से परमात्मा की आराधना मानकर ही सब कुछ किया है। ´´ ऐसा ही हुआ । सरकार को इरादा बदलना पड़ा । मिलेंगें ऐसे लोग हमें आज ? आज तो पद के लिए लड़ाई और उपाधि पर संघर्ष चलता है। वस्तुत: भाई जी जिस भाव और भूमिका मे जीते थे, वह लोक की प्रतिष्ठा से परे-और भी ऊपर थी । उन्हें दैवी सत्ताओं का अनुग्रह सहज ही प्राप्त था। फिर लोक क्या प्रभावित करता उन्हें ! 

सच्चा ब्रह्मचर्य

चैतन्य महाप्रभु न्याशास्त्र के विद्वान थे । परमज्ञानी थे। पत्नी विष्णुप्रिया थीं। दोनो का जीवन ठीक ही चल रहा था, पर श्री कृष्ण में भक्ति जगी तो जबरदस्त वैराग्य जागा । दिनो दिन खाना नहीं खाते। `कृष्ण कृष्ण' कहकर पड़े रहते । ऐसी स्थिति हो गई कि घर वालो ने कहा- ``ऐसी स्थिति में शरीर छूटे , उससे अच्छा है कि संन्यास दिला दें । ´´ गुरू के पास ले गए । उनने कहा कि हम परीक्षा लेंगें । गुरू ने जीभ पर शक्कर के दाने रखे । वे उड़ गए। गले नही । मन उर्ध्वगामी हो चुका था। वृत्ति भागवताकार हो चुकी थी । गुरू भारती तीर्थ बोले- ``यह तो बडी उच्चस्तरीय आत्मा है। यह शिष्य नहीं, हमारे गुरू होने योग्य है। हमारा अहोभाग्य है। ऐसा व्यक्ति नही देखा , जो इतना ईश्वरोन्मुख हो । यही सच्चा ब्रह्मचर्य है। ´´

श्री अरविंद

पांडिचेरी आकर रह रहे योगी श्री अरविंद पूर्ण रूप से साधना मे संलग्न रहते थे, कभी घर से बाहर भी नही निकलते, पर अँगरेज सरकार के जासूस उनके पीछे ही पडे़ रहते थे । ऐसे ही किसी व्यक्ति ने पांड़िचेरी पुलिस को सुचना दी कि दो क्रांतिकारियों की सहायता लेकर श्री अरंविद आपत्तिजनक साहित्य तैयार कर रहे है , जिसका सम्बन्ध भारत से भागकर फ्रांस में रह रहे क्रांतिकारी नेताओ से है । एक फ्रांसीसी पुलिस ऑफीसर श्री अरंविद के आश्रम में तलाशी लेने आया । उसने वहाँ जो आध्यात्मिक साहित्य पर ग्रीक, लैटिन फ्रेंच भाषा की पांडुलिपियाँ देखी , तो वह योगीराज का मित्र बन गया । फिर किसी को उधर आँख उठाकर देखने नही दिया । पॉल रिचार्ड एवं मिर्रा रिचार्ड पहले कुछ दिन के लिए एवं बाद में 1920 में पांडिचेरी स्थायी रूप से आ गए । फिर श्री अरविंद का पूरा ध्यान मिर्रा रिचार्ड रखने लगी । बाद में वही आश्रम की श्री माताजी कहलाई । एक क्रांतिकारी के रूप मे जीवन आरंभ करने वाले श्री अरविंद का जीवन एक महानायक की शिखर यात्रा का प्रतीक है, जिसमें वे आध्यात्मिकता की ऊँचाइयों तक पहुँचने एवं अतिमानस के अवतरण की घोषणा कर गए । 

झाँसी की रानी

महारानी लक्ष्मीबाई केवल 24 वर्ष जीवित रहीं,पर इस अवधि में उन्होने ऐसे शौर्यपरक कार्य कर दिखाए, जिनकी याद आज डेढ़ सौ वर्ष बीतने पर भी अगणितों को प्रेरणा देती रहती है । लक्ष्मीबाई झाँसी की रानी के नाम से प्रसिद्ध है । भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम रुपी रणयज्ञ की वे प्रथम व विशिष्ट होता कही जाती है। कहा जाता है-``रहिमन साँचे सुर कौ बैरिहु करें बखान ।´´ -सच्चे शुरवीर का उसके शत्रु भी गुणगान करते है। अँगरेजो को जिस तरह लक्ष्मीबाई ने नाकों चने चबवाए , जिस तरह से वह उनसे लडी , वे भी उनकी तारीफ पर विवश हुए। झाँसी, कालपी, ग्वालियर , इन तीनो क्षेत्रो मे उन्होने वीरतापुर्वक युद्ध किया । अस्त्र-संचालन , घुडसवारी में नाना साहब के साथ हुए प्रशिक्षण ने लक्ष्मीबाई को वीरांगना एवं देशभक्त बना दिया । वे पुणे से विवाहोपंरात झाँसी आ गई । 1851 में उनके एक पुत्र हुआ , जिसकी अकालमृत्यु हो गई । बाद में 1856 में उनने एक बालक को दत्तक पुत्र बना लिया, पर अँगरेजो को को यह रूचा नहीं । देश में विद्रोह का वातावरण बन रहा था। यह संयोग ही था कि कानपुर , मेरठ , झाँसी से यह आगे सारे देश मे फैली । धार्मिक स्वाभाव की विधवा रानी ने एक सेनापति की भूमिका निभाई और संघर्ष करते हुए ग्वालियर के पास शहीद हो गई । धन्य हैं ऐसी वीरांगनाएँ !

ऐसे जन्मा पंचतंत्र

विष्णु शर्मा की `पंचतंत्र´ की कहानियाँ आज से 18000 वर्ष पूर्व लिखी गई थीं। ये सभी जीव-जंतु, पशु-पक्षियों को पात्र बनाकर रची गई है। इससे इसकी रोचकता एवं सर्वग्राहृता बढ़ जाती थी । इसके पीछे भी एक इतिहास है। दक्षिण भारत में अमरशक्ति नामक एक राजा था । उसके तीन पुत्र थे -मंदबुद्धि, नटखट व बडे उपद्रवी । नाम था बहुशक्ति, उग्रशक्ति, अनंतशक्ति । उन्हे देखकर राजा बहुत दुखी हुआ । सभासदो के समक्ष उसने अपनी चिंता रखी । विष्णु शर्मा वहाँ उपस्थित थे। उन्होने कहा-``इन्हे आप मेरे घर भेज दें। छ माह में राजनीति में निपुण बनाकर भेज दूगाँ । ´´ राजा ने स्वीकार कर लिया । तीनो की मनोवृति का अध्ययन कर विष्णु ने सोचा कि इन्हे रोचक कथाओं द्वारा शिक्षण दिया जाना चाहिए । खेल-खेल में ये सीख लेंगें । कोई गंभीर शिक्षण यह ग्रहण नही कर सकेगें । उन्होने पशु-पक्षी-पर्यावरण आदि को लक्ष्य कर रोचक कहानियो द्वारा नीति की शिक्षा देना आरंभ किया । तीनों बडे़ चाव से इन कहानियों को सुनते । इन कथाओं में राजनीति का पूरी तरह समावेश किया गया था । धीरे-धीरे उनकी बुद्धि का विकास होता गया एंव छह माह में राज-व्यवहार के नियम समझ गए। ऐसे जन्मा पंचतंत्र, जो आज भी बच्चों में उतना ही लोकप्रिय है। 

धर्मयुद्ध है यह।

अर्जुन ने जब खांडव वन को जलाया , तब अश्वसेन नामक सर्प की माता बेटे को निगलकर आकाश में उड़ गई , मगर अर्जुन ने उसका मस्तक बाणों से काट डाला । सर्पिणी तो मर गई, पर अश्वसेन बचकर भाग गया। उसी वैर का बदला लेने वह कुरुक्षेत्र की रण भूमि में आया था। उसने कर्ण से कहा-``मै विश्रुत भुजंगो का स्वामी हूँ । जन्म से पार्थ का शत्रु हूँ। तेरा हित चाहता हूँ। बस एक बार अपने धनुष पर चढाकर मेरे महाशत्रु तक पहुँचा दे । तू मूझे सहारा दे, मै तेरे शत्रु को मारुंगा ।´´ कर्ण हँसे बोले- जय का मस्तक साधन नर की बाँहों में रहता है, उस पर भी मैं तेरे साथ मिलकर-साँप के साथ मिलकर मनुज से युंद्ध करुँ, निष्ठा के विरुद्ध आचरण करुँ ! मै मानवता को क्या मुँह दिखाऊँगा ?´´

इसी प्रसंग पर रामधारी सिंह`दिनकर ´ने अपने प्रसिद्ध काव्य `रिश्मरथी´ में लिखा है -

``रे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज है , छिपे नरों में भी, सीमित वन में ही नही, बहुत बसते पुर-ग्राम-घरों में भी ।´´

सच ही है, आज सर्प रुप में कितने अश्वसेन मनुष्यों के बीच बैठे हैं-राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लीन, आतंकवाद के समर्थक । महाभारत की ही पुनरावृत्ति है आज । धर्मयुद्ध है यह।


जड़े मजबूत रखना

एक रात भयंकर तूफान आया । सैकड़ों विशालकाय पुराने वृक्ष धराशायी हो गए। अनेक किशोर वृक्ष भी थे, जो बच गए थे, पर बुरी तरह सकपकाए खड़े थे। प्रात:काल आया, सूर्य ने अपनी किरणें धरती पर फैलाई । ड़रे हुए वृक्षों को देखकर किरणों ने पूछा-``तात! तुम इतना सहमे हुए क्यों हो ? ´´ किशोर वृक्षों ने कहा-``देवियो! ऊपर देखो ,हमारे कितने पुरखे धराशायी पड़े हैं ।रात के तूफान ने उन्हें उखाड़ फेंका । न जाने कब यही स्थिति हमारी भी आ बने।´´ किरणें हँसी और बोलीं-``तात! आओ, इधर देखो ! यह वृक्ष तूफान के कारण नही, जड़े खोखली हो जाने के कारण गिरे। तुम अपनी जड़े मजबूत रखना तुफान तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ पायेगा।´´ 

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