रविवार, 9 अगस्त 2009

चरित्र

1) करते वहीं राष्ट्र उत्थान, जिन्हे निज चरित्र का ध्यान।
-------------------
2) भाग्य पर नहीं चरित्र पर निर्भर रहो।

-------------------
3) श्रेष्ठ चिन्तन की सार्थकता तभी हैं, जब उससे श्रेष्ठ चरित्र बने और श्रेष्ठ चरित्र तभी सार्थक हैं, जब वह श्रेष्ठ व्यवहार बन कर प्रकट हो।

-------------------
4) सद्चिन्तन से ही सद्चरित्रता हस्तगत हो सकती है।

-------------------
5) सुन्दर चेहरा आकर्षक भर होता हैं, पर सुन्दर चरित्र की प्रामाणिकता अकाट्य है।

-------------------
6) दर्पण मे अपना चेहरा देखों, चेहरे में अपना चरित्र देखो।

-------------------
7) चरित्र बल महान् बल है।

-------------------
8) चरित्र की सुन्दरता ही असली सुन्दरता है।

-------------------
9) चरित्र का परिवर्तन या उत्कर्ष वर्जन से नहीं, योग से होता है।

-------------------
10) चरित्र से बढकर और कोई उत्तम पूंजी नहीं।

-------------------
11) चरित्र जीवन में शासन करने वाला तत्व हैं और वह प्रतिभा से उच्च है।

-------------------
12) चारित्रिक समर्थता के बिना भौतिक प्रगति एवं सुव्यवस्था के दिवास्वप्न देखना उपयुक्त नहीं।

-------------------
13) जहॉं शासक चरित्र विहीन, वहॉं आपदा नित्य नवीन।

-------------------
14) अपमान को निगल जाना चरित्र पतन की आखिरी सीमा है।

-------------------
15) अपनी गलती मान लेना महान् चरित्र का लक्षण है।

भोजन

1) द्वेष करने वाला अपने भोजन को विषाक्त कर देता है। 
----------------------
2) भोजन करके करिये मूत्र, गुर्दा स्वस्थ रहे ये सूत्र। 

----------------------
3) भोजन स्वास्थ्य की जरुरत हैं, स्वाद की नहीं। 

----------------------
4) पैरो को धाने के बाद ही भोजन करें , किन्तु पैरो को धोकर ( गीले पैर ) शयन न करे। 

----------------------
5) दाहिने स्वर भोजन करें, बॉये पीवे नीर। ऐसा संयम जब करे, सुखी रहें शरीर। 

----------------------
6) दूसरों से पूर्व भोजन समाप्त कर उठों नही, और यदि उठ जाये तो उनसे क्षमा मॉगनी चाहिये। 

----------------------
7) जो अपने हिस्से का काम किये बिना ही भोजन पाते हैं वे चोर है। 

----------------------
8) आधा भोजन दुगुना पानी, तिगुना श्रम, चौगुनी मुस्कान। 

----------------------
9) हे पुरुष श्रेष्ठ ! खाते हुये कभी भी शंका न करें ( कि यह अन्न मुझे पचेगा या नही ) 

----------------------
10) जैसा अन्न खाते हैं, मन बुद्धि का निर्माण भी वैसा ही होता है। 

----------------------
11) प्राणी नित्य जैसा अन्न खाता हैं, उसकी वैसी ही सन्तति होती है। 

बालक

1) बालक प्रकृति की अनमोल देन हैं, सुन्दरतम कृति हैं, सबसे निर्दोष वस्तु हैं। बालक मनोविज्ञान का मूल हैं, शिक्षक की प्रयोगशाला है। बालक मानव-जगत् का निर्माता हैं। बालक के विकास पर दुनिया का विकास निर्भर हैं। बालक की सेवा ही विकास की सेवा है।
--------------------
2) जिन बालकों का तपस्यामय वातावरण में विकास होता हैं, वे ही बडे होकर महापुरुषों के रुप में सर्वतोमुखी उन्नति करके नर-रत्नो के रुप में संसार के समक्ष आकर जगमगाते है।

--------------------
3) जो बचपन और जवानी में भजन नहीं करते, वे बुढापे में भजन नहीं कर सकते।

--------------------
4) जो बच्चों को सिखाते हैं, उन पर बडे खुद अमल करे तो यह संसार स्वर्ग बन जाये।

--------------------
5) बचपन:- यह शब्द हमारे सामने नन्हे-मुन्नों की एक ऐसी तस्वीर खिंचता हैं, जिनके हृदय में निर्मलता, ऑखों में कुछ भी कर गुजरने का विश्वास और क्रिया-कलापो में कुछ शरारत तो कुछ बडों के लिए भी अनुकरणीय करतब।

--------------------
6) बच्चों को पहला पाठ आज्ञापालन का सिखाना चाहिये।

--------------------
7) बच्चे वे चमकते वे तारे हैं जो भगवान के हाथ से छूटकर धरती पर आये हे।

--------------------
8) मॉ का हृदय बच्चे की पाठशाला है।

--------------------
9) जिस समय अनाथ बच्चा ऑसू बहाता हैं, उस समय वह ऑसू सीधे परमेश्वर के हाथ में जा पडता है।

--------------------
10) देश के भविष्य की संभावना देखनी हैं, तो आज के बच्चों का स्तर देखो।

--------------------
11) दूसरा बच्चा होवे कब, पहला स्कूल जाए तब।

--------------------
12) जो हम बच्चों को सिखलाते, उसे स्वयं कितना अपनाते।

--------------------
13) गरीब बच्चों को मिठाई खिलाओ तो शोक-चिन्ता मिट जायेंगे।

--------------------

14) ईश्वर कभी-कभी अपने बच्चों की ऑखों को ऑसुओं से धोता हैं, ताकि वे उसकी कुदरत और उसके आदेशो को सही पढ सके।

अवगुण

1) केवल एक `` भय ´´ को अन्त:करण से निकाल फेंकने से अनेक अवगुण स्वयं विनष्ट हो जाते है।
--------------*******---------------
2) मानव को विवेक का आश्रय लेना चाहिये। विवेक द्वारा मनुष्य दुर्गुणों से विमुख होकर सद्गुणो की ओर उन्मुख होता है।

--------------*******---------------
3) जिस इन्सान के अन्दर पाप बसा हुआ है, वहीं दूसरों के दोष देखता हैं।

--------------*******---------------
4) भीतरी दोषो को दूर करो।

--------------*******---------------
5) स्वयं के दुर्गुणों को चिन्तन व परमात्मा के उपकारों का स्मरण ही सच्ची प्रार्थना है।

--------------*******---------------
6) दोष बतलाने वाले का गुरु-तुल्य आदर करना चाहिये, जिससे भविष्य में उसे दोष बतलाने में उत्साह हो।

--------------*******---------------
7) दोष दृष्टि करने से मुफ्त में पाप हो जाता है।

--------------*******---------------
8) दुर्गुण त्यागो बनो उदार, यही मुक्ति सुरपुर का द्वार।

--------------*******---------------
9) दुर्गुण जीवन के लिये साक्षात् विष हैं। उनसे अपने को इस प्रकार बचाये रहना चाहिये, जैसे मॉ बच्चे को सर्तकता पूर्वक आग से बचाये रखती है।

--------------*******---------------
10) दूसरों के गुण और अपने अवगुण ढूँढो ।

--------------*******---------------

11) जो दूसरों के अवगुणो की चर्चा करता हैं वह अपने अवगुण प्रकट करता है।

--------------*******---------------
12) न अशुभ सोचें, न दोष ढूंढे, न अन्धकार में भटके।

--------------*******---------------

13) अपने दोष-दुर्गुण खोजें एवं उसे दूर करे।

--------------*******---------------
14) अपने दोषो की ओर से अनभिज्ञ रहने से बडा प्रमाद इस संसार में और कोई नहीं हो सकता।

--------------*******---------------
15) अपने दोषो को सुनकर चित्त में प्रसन्नता होनी चाहिये।

--------------*******---------------
16) अपने दोष ही अंतत: विनाशकारी सिद्ध होते है।

--------------*******---------------
17) अन्त:करण की पवित्रता दुर्गुणों को त्यागने से होती है।

--------------*******---------------
18) एक क्षण तक प्रज्वलित रहना अच्छा है, किन्तु सुदीर्घ काल तक धुआ छोडते रहना अच्छा नही है।

अहंकार

1) मनुष्य जितना छोटा होता हैं, उसका अहंकार उतना ही बडा होता है।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
2) मनुष्य अहंकार को मार कर ही परमात्मा के द्वार तक पहुंच पाता है।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
3) स्वार्थ, लापरवाही और अहंकार की मात्रा का बढ जाना ही किसी व्यक्ति के पतन का कारण होता है।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
4) जहॉं व्यक्ति का मिथ्या अहंकार समाप्त हो जाता हैं, वहीं उसकी गरिमा आरम्भ होती है।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
5) अहंकार विहीन प्रतिभा जब अपने चरमोत्कर्ष को छूती हैं तो वहॉं ऋषित्व प्रकट होता है।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
6) अहंकार समस्त महान् गलतियों की तह में होता है।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
7) अहंकारी और अधिकार के मद में चूर व्यक्ति कभी किसी को प्रेरणा नहीं दे पाता है।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
8) अहंता बडप्पन पाने की आकांक्षा को कहते हैं, दूसरों की तुलना में अपने को अधिक महत्व, श्रेय, सम्मान, मिलना चाहिये। यही हैं अहंता की आकांक्षा।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
9) अहम् का त्याग होने पर व्यक्तित्व नहीं रहता।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
10) अच्छाई के अहं और बुराई की आसक्ति दोनो से उपर उठ जाने में ही सार्थकता है।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
11) ध्यान रहे, चिन्तन स्वयं के चरित्र को विनिर्मित करने के लिये होता हैं, न कि दूसरे को तर्क से पराजित करके स्वयं के अहं की तुष्टि करने के लिये।

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
12) अहं की भावना रखना एक अक्षम्य अपराध है।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin