शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

प्रार्थना - उपासना

एक पादरी जहाज से यात्रा कर रहे थे । जहाज ने एक द्वीप के पास लंगर डाला । पादरी ने सोचा इस द्वीप पर कोई होगा तो उसे प्रार्थना सिखा आयें । वहां उन्हें केवल तीन साधु मिले । उनसे पूछा,”कुछ प्रार्थना-उपासना करते हो ?” उन्होंने बताया-हाँ । हम तीनों ऊपर हाथ उठाकर कहते हैं, हम तीन हैं । तुम तीन हो । तुम तीनों हम तीनों की रक्षा करो । पादरी हंसे, बोले, क्या पागलपन करते हो, तुम्हें प्रार्थना करनी भी नहीं आती । भोले साधुओं ने प्रार्थना सिखाने का आग्रह किया । पादरी ने उन्हें बाइबिल के आधार पर प्रार्थना करना सिखाया । अभ्यास हो जाने पर वैसा ही करने को कहकर जहाज पर आ गये । जहाज चल पडा । दूसरे दिन पादरी जहाज के डेक पर टहल रहे थे । पीछे से आवाज सुनाई दी, ओ पवित्र आत्मा रूको । पादरी ने देखा वे तीनों साधु पानी पर बेतहाशा दौडते पुकारते चले आ रहे थे। आश्चर्य चकित पादरी ने जहाज रूकवाया,  उनसे इस प्रकार आने का कारण पूछा । वे बोले, आप हमें प्रार्थना सिखा आये थे, रात में हम सोये तो भूल गये । सोचा आपसे ठीक विधि पूछ लें, इसलिए दौड आये । पादरी ने पूछा, पर आप पानी पर कैसे दौड सके ? उन्होंने कहा, हमने भगवान से प्रार्थना की, कहा -हम अनजान हैं, पवित्र पादरी जो सिखा गये थे, भूल गये । दौड हम लेंगे, डूबने तुम मत देना । बस, इतना ही कहा था । पादरी ने घुटने टेक कर उनका अभिवादन किया और कहा, आप जैसी प्रार्थना करते हैं, वही सही है, मैं ही गलत समझा था । प्रभु आपसे प्रसन्न हैं । वे तीनों सन्तुष्ट होकर पादरी का आभार प्रकट करके जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये । सर्वव्यापी भगवान सबके भाव समझता है, उसी आधार पर मान्यता देता है ।

सच्चे संन्यासी

आलम बाजार मठ में नवीन संन्यासी संघ की स्थापना के समय स्वामी विवेकानंद ने सन्यासियों के लिए कुछ नियम बनाए (१८९८)। ये नियम आज भी उसी तरह पालन किए जाते हैं । आज समाज में संन्यासियों की भीड है । उसमें पलायनवादी, सुख की चाह में आए लोग ज्यादा हैं । यदि हम इन नियमों को देखें तो पता चलेगा कि उस महामानव की दृष्टि क्या थी ? स्वामी जी ने कहा था, आहारसंयम के बिना चित्तसंयम असंभव है । संन्यासी अतिभोजन से बचें । दृढतापूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है । प्रातःकाल जल्दी उठना, ध्यान, जप करना, तपस्वी जीवन में निरत रहना, बातचीत मात्र धर्म के विषयों पर ही करना-यह हर संन्यासी के लिए अनिवार्य है । समाचारपत्र पढना या गृहस्थों के साथ मेल-जोल ठीक नहीं । संन्यासी धनी लोगों के साथ कोई संबंध न रखें । उनका कार्य तो गरीबों के बीच है । हमारे देश के सभी संप्रदायों में धनिक लोगों की खुशामद, उन्ही पर निर्भर होने का भाव आ जाने से वे प्राणहीन हो चले हैं । किसी भी गृहस्थ को साधुओं के बिस्तर पर न बैठने दें । भोजन की व्यवस्था दोनों की अलग-अलग हो । जब भी तुम देखो कि तुम इस आदर्श से पिछड रहे हो, कठोर जीवन के अनुपयुक्त हो, तो बेहतर होगा कि पुनः गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर लो । संन्यास को कलुषित मत करना ।”

आज की परिस्थितियों में सच्चे संन्यासी ढूंढे जाने चाहिए ।

वास्तविक भूख

स्वामी विवेकानंद उन दिनों अमेरिका प्रवास में थे । वे अपना भोजन अधिकतर स्वयं ही पकाते थे । एक दिन उन्होंने अपना भोजन बनाकर तैयार किया । इतने में ही कुछ भूखे बालक उधर आ निकले । स्वामी जी ने सारा भोजन उन बालकों में बांट दिया और इससे उन्हें बडी प्रसन्नता हुई । पास ही एक अमेरिकन महिला खडी थी । उसने पूछा,”स्वामी जी । आपने बिना कुछ खाए ही सारा भोजन इन बालकों में क्यों बांट दिया ?” वे बोले, माता जी । पेट की भूख से बडी होती है आत्मा की भूख और आत्मा के तृप्त होने पर जीवन की समस्त क्षुधाएं एक बार में ही शांत हो जाती हैं । मैंने अपनी वास्तविक भूख शांत करने के लिए ही भोजन बच्चों में बांट दिया ।”


नरेन्द्र बना स्वामी विवेकानंद

रामकृष्ण परमहंस के पास नरेंद्र को आते काफी अवधि हो चुकी थी । एक दिन वे अपने शिष्यों से बोले, अब तक तो नरेंद्र के पास सब कुछ था, पर अब माँ इसे बहुत दुःख देंगी । क्यों ? क्योंकि उन्हें इसका विकास करना है । नरेंद्र को काफी दुःख-वेदनाएं सहन करनी होंगी । तब ही तो वह लोक-शिक्षण हेतु गढ पाएगा अपने आप को । उनने अपने शिष्यों को बताया कि दुःख ही भावशुद्धि करते हैं । दुःख ही व्यक्ति को अंदर से मजबूत बनाते हैं । नरेंद्र के ऊपर दुःखों की बाढ आ गई । सब कुछ छिन गया । रोटी के लिए तरस गए । कई गहरी पीडाएं एक साथ आईं । उनने अपनी बहन को आत्महत्या करते देखा, माँ का रूदन देखा । रामकृष्ण उनकी हर पीडा में दुःख भी व्यक्त करते थे, पर जानते थे, यह सब जरूरी है । सामयिक है । इसी ने नरेंद्र को स्वामी विवेकानंद बनाया । 

”भागो मत. सामना करो ।”

एक बार स्वामी विवेकानंद काशी में किसी जगह जा रहे थे । उस स्थान पर बहुत से बंदर रहते थे, जो आने-जाने वालों को अकारण ही तंग करने में बडे विख्यात थे । उनके साथ उन्होंने वही किया । स्वामी जी का रास्ते से गुजरना अच्छा न लगा । वे चिल्लाकर उनकी ओर दौडे और पैरों में काटने लगे । उनसे छूटकारा पाना असंभव प्रतीत हुआ । वे तेजी से भागे, पर वे जितना भागते, बंदर भी उतना दौडते और काटते । तभी एक अपरिचित स्वर सुनाई दिया, भागो मत । सामना करो । बस वे खडे हो गए और बंदरों को ऐसी जोर की डांट लगाई कि एक घुडकी में ही बंदर भाग खडे हुए । जीवन में जो कुछ भयानक है, उसका हमें साहसपूर्वक सामना करना पडेगा । परिस्थितियों से भागना कायरता है, कायर पुरूष कभी विजयी नहीं होगा । भय, कष्ट और अज्ञान का जब हम सामना करने को तैयार होंगे, तभी वे हमारे सामने से भागेंगे ।

जैसा बांटोगे, वैसा पाओगे

किसी गांव में एक किसान रहता था जो मक्का उगाता था. उसे हर साल सबसे अच्छे मक्का उगानेवाले किसान का पुरस्कार मिलता था. 

एक अखबार का रिपोर्टर उसका इंटरव्यू लेने के लिए आया और उसने किसान से बेहतरीन मक्का उगाने का राज़ पूछा. कई बातों के साथ किसान ने उसे यह भी बताया कि जिन बीजों से वह उत्कृष्ट मक्का उगाता है उन्हें वह अपने आसपास के किसानों में भी बांटता है.

रिपोर्टर को यह बात बहुत अजीब लगी. उसने आश्चर्य से किसान से पूछा – “आपके सबसे अच्छे बीजों के कारण ही तो आपको हर साल सबसे अच्छे मक्का उगाने वाले किसान का पुरस्कार मिलता है, उन्ही बीजों को साथी किसानों में बांट देने में भला कैसी अक्लमंदी है!?”

“लगता है आपको खेती करने के सबसे व्यावहारिक नियम के बारे में जानकारी नहीं है” – किसान ने कहा – “हवा पके हुए मक्का के परागकणों को दूर-दूर के खेतों तक लेकर जाती है। यदि मेरे पड़ोसी किसान घटिया मक्का उगाएंगे तो सहपरागण के कारण मेरे मक्का की गुणवत्ता प्रभावित होगी. अच्छी फसल उगानेवाले किसान को हमेशा इसी तरह दूसरे किसानों की मदद करनी चाहिए”.

कुछ करिए.

अपने चारों तरफ हर जगह दुःख, गरीबी, और बुराइयां देखकर एक दिन एक आदमी अपना आपा खो बैठा और आसमान की ओर देखते हुए धरती पीट-पीटकर उसने भगवान से कहा :- 

“देखो तुमने कैसी दुनिया बनाई है ! यहाँ दुःख और दर्द के सिवा कुछ नहीं है ! हर तरफ खूनखराबा और नफरत है ! हे ईश्वर ! ऐ मेरे भगवान तुम कुछ करते क्यों नहीं !?”

भगवान ने उसकी दर्दभरी पुकार सुनी ली, और कहा :-

“मैंने किया है. मैंने तुम्हें वहां भेजा है”.

कुछ करिए। जिम्मेदारी उठाइये. आपका अनिश्चय और अनिर्णय आपको कहीं नहीं ले जाएगा.
         

धैर्य

चीन के बांस को उगाना बड़ा दुरूह कर्म है. इसका छोटा सा बीज लेकर आप इस बोते हैं और साल भर तक इसे पानी और खाद देते हैं, लेकिन कुछ नहीं होता. दूसरे साल भी आप इसे पानी और खाद देते हैं, लेकिन कुछ नहीं होता.
तीसरे साल भी आप इसे पानी और खाद देना ज़ारी रखते हैं, लेकिन कुछ नहीं होता. अब आप झल्ला जाते हैं. चौथे साल भी आप इसे पानी और खाद देना ज़ारी रखते हैं, लेकिन कुछ नहीं होता. यह सब आपको बेहद उकता देता है.

पांचवें साल भी आप इसे पानी और खाद देना जारी रखते हैं। अब आपको कुछ हलचल प्रतीत होती है… देखते ही देखते आपका चीनी बांस का छौना छः हफ्तों में 90 फीट बढ़ जाता है. यह सच है!

सूर्यकांत त्रिपाठी ' निराला '



एक बार निराला को उनके एक प्रकाशक ने उनकी किताब की रायल्टी के एक हज़ार रुपये दिए। धयान दें, उन दिनों जब मशहूर फिल्मी सितारे भी दिहाडी पर काम किया करते थे, एक हज़ार रुपये बहुत बड़ी रकम थी। रुपयों की थैली लेकर निराला इक्के में बैठे हुए इलाहाबाद की एक सड़क से गुज़र रहे थे। राह में उनकी नज़र सड़क किनारे बैठी एक बूढी भिखारन पर पड़ी। ढलती उमर में भी बेचारी हाथ फैलाये भीख मांग रही थी। निराला ने इक्केवाले से रुकने को कहा और भिखारन के पास गए।

“अम्मा, आज कितनी भीख मिली?” – निराला ने पूछा। 
“सुबह से कुछ नहीं मिला, बेटा”।
इस उत्तर को सुनकर निराला सोच में पड़ गए। बेटे के रहते माँ भला भीख कैसे मांग सकती है? 

बूढी भिखारन के हाथ में एक रुपया रखते हुए निराला बोले – “माँ, अब कितने दिन भीख नहीं मांगोगी?”
“तीन दिन बेटा”।
“दस रुपये दे दूँ तो?”
“बीस दिन, बेटा”।
“सौ रुपये दे दूँ तो?
“छः महीने भीख नहीं मांगूंगी, बेटा”।

तपती दुपहरी में सड़क किनारे बैठी माँ मांगती रही और बेटा देता रहा। इक्केवाला समझ नहीं पा रहा था की आख़िर हो क्या रहा है! बेटे की थैली हलकी होती जा रही थी और माँ के भीख न मांगने की अवधि बढती जा रही थी। जब निराला ने रुपयों की आखिरी ढेरी बुढ़िया की झोली में उडेल दी तो बुढ़िया ख़ुशी से चीख पड़ी – “अब कभी भीख नहीं मांगूंगी बेटा, कभी नहीं!”

निराला ने संतोष की साँस ली, बुढ़िया के चरण छुए और इक्के में बैठकर घर को चले गए।

महाकवि कालिदास

मालव राज्य की राजकुमारी विद्योत्तमा अत्यंत बुद्धिमान और रूपवती थी. उसने यह प्रण लिया था कि वह उसी युवक से विवाह करेगी जो उसे शास्त्रार्थ में हरा देगा.

विद्योत्तमा से विवाह की इच्छा अपने मन में लिए अनेक विद्वान् दूर-दूर से आये लेकिन कोई भी उसे शास्त्रार्थ में हरा न सका. उनमें से कुछ ने अपमान और ग्लानि के वशीभूत होकर राजकुमारी से बदला लेने के लिए एक चाल चली. उन्होंने एक मूर्ख युवक की खोज प्रारंभ की. एक जंगल में उन्होंने एक युवक को देखा जो उसी डाल को काट रहा था जिसपर वह बैठा हुआ था.

विद्वानों को अपनी हार का बदला लेने के लिए आदर्श युवक मिल गया. उन्होंने उससे कहा – “यदि तुम मौन रह सकोगे तो तुम्हारा विवाह एक राजकुमारी से हो जायेगा”.

उन्होंने युवक को सुन्दर वस्त्र पहनाये और उसे शास्त्रार्थ के लिए विद्योत्तमा के पास ले गए. विद्योत्तमा से कहा गया कि युवक मौन साधना में रत होने के कारण संकेतों में शास्त्रार्थ करेगा.

विद्वानों ने युवक के मूर्खतापूर्ण सकेतों की ऐसी व्याख्या की कि विद्योत्तमा को अंततः अपनी हार माननी पड़ी और उसने युवक से विवाह कर लिया.

कुछ दिनों तक युवक मौन साधना का ढोंग करता रहा लेकिन एक दिन वह ऊँट को देखकर गलत उच्चारण कर बैठा. विद्योत्तमा को सच्चाई का पता चल गया कि उसका पति जड़बुद्धि है.

क्रोधित विद्योत्तमा ने अपने पति को प्रताड़ित और अपमानित करके महल से निकाल दिया. युवक ने संकल्प लिया कि वह उच्च कोटि का विद्वान बनकर ही महल में लौटेगा.

अपने संकल्प के अनुसार युवक ने विद्यारम्भ कर दिया और कठोर अध्ययन एवं परिश्रम के उपरांत महान विद्वान बना. कालांतर में यही युवक महाकवि कालीदास के नाम से प्रख्यात हुआ।

आइन्स्टीन

जब आइन्स्टीन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे तब एक दिन एक छात्र उनके पास आया। वह बोला – “इस साल की परीक्षा में वही प्रश्न आए हैं जो पिछले साल की परीक्षा में आए थे”। “हाँ” – आइन्स्टीन ने कहा – 
“लेकिन इस साल उत्तर बदल गए हैं”।
          आप भी जनमानस परिष्कार मंच के सदस्य बन कर युग निर्माण योजना को सफल बनायें।

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