मंगलवार, 7 जुलाई 2009

जे. कृष्णमूर्ति

जे कृष्णमूर्ति से धर्म और दर्शन का अंत होता है। दुनिया को बेहतर बनाने के लिए जरूरी है यथार्थवादी और स्पष्ट मार्ग पर चलना। आपके भीतर कुछ भी नहीं होना चाहिए तब आप एक साफ और सुस्पष्ट आकाश होने के लिए तैयार हो। धरती का हिस्सा नहीं, आप स्वयं आकाश हैं। जे. कृष्णमूर्ति का कहना है कि यदि आप कुछ भी है तो फिर आप कुछ नहीं।

कृष्णमूर्ति की शिक्षा जो उनके गहरे ध्यान, सही ज्ञान और श्रेष्ठ व्यवहार की उपज है ने दुनिया के तमाम दार्शनिकों, धार्मिकों और मनोवैज्ञानिकों को प्रभावित किया। उनका कहना था कि आपने जो कुछ भी परम्परा, देश और काल से जाना है उससे मुक्त होकर ही आप सच्चे अर्थों में मानव बन पाएँगे। जीवन का परिवर्तन सिर्फ इसी बोध में निहित है कि आप स्वतंत्र रूप से सोचते हैं कि नहीं और आप अपनी सोच पर ध्यान देते हैं कि नहीं।

कृष्णमूर्ति के विचारों के जन्म को उसी तरह माना जाता है जिस तरह की एटम बम का अविष्कार के होने को। कृष्णमूर्ति अनेकों बुद्धिजीवियों के लिए रहस्यमय व्यक्ति तो थे ही साथ ही उनके कारण विश्व में जो बौद्धिक विस्फोट हुआ है उसने अनेकों विचारकों, साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों को अपनी जद में ले लिया। उनके बाद विचारों का अंत होता है। उनके बाद सिर्फ विस्तार की ही बातें हैं।

जन्म :अपने माता-पिता की आठवीं संतान के रूप में उनका जन्म हुआ था इसीलिए उनका नाम कृष्णमूर्ति रखा गया। कृष्ण भी वासुदेव की आठवीं संतान थे। कृष्णमूर्ति का जन्म 1895 में आंध्रप्रदेश के मदनापाली में मध्‍यवर्ग ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता थियोसौफिस्ट थे। उन्होंने कृष्णमूर्ति और उनके छोटे भाई नितिया को थियोसौफिकल सोसाइटी की अध्यक्ष डॉ. एनी बेसेन्ट को सौंप दिया था। 

सच तो एक अंजान पथ :एनी बेसेन्ट के एक सहयोगी डब्ल्यू लीडबीटर ने, जो दिव्य ‍दृष्टि वाले व्यक्ति थे, देखा की कृष्णमूर्ति में कुछ बात है ‍जो उन्हें सबसे अलग करती है तब कृष्णमूर्ति 13 वर्ष के थे। थियोसॉफिकल सोसाइटी के सिद्धों ने अपने शिष्यों को निर्देश दे रखा था कि वह हर बच्चे पर अपनी दृष्टि रखें क्योंकि उन्हें पूर्वाभास हुआ था कि दुनिया में कोई महापुरुष अवतरित होगा।

सभी को लगने लगा की कृष्णमूर्ति ही वह बालक है और एनी बेसेंट ने उन्हें 'मुक्तिदाता' के रूप में चुना। यहाँ तक ही उन्होंने उनके लिए 'आर्डर ऑफ दि स्टार' की स्थापना भी कर दी। एनी चाहती थी कि कृष्णमूर्ति में वे संभावनाएँ है जिससे बुद्ध की चेतना उन में उतर कर कार्य करें, लेकिन 'आर्डर ऑफ दि स्टार' के हॉलेंड स्थित एक कैम्प में जहाँ दुनिया भर के लोग एकत्रित हुए थे वहाँ भरी सभा में कृष्णमूर्ति ने यह कहकर सभी को चौंका दिया कि 'सच तो एक अंजान पथ है। कोई भी संस्था, कोई भी मत सच तक रहनुमाई नहीं कर सकता।'

एक अलग मार्ग :उन्होंने 'आर्डर ऑफ दि स्टार' को भंग करते हुए कहा कि 'अब से कृपा करके याद रखें कि मेरा कोई शिष्य नहीं हैं, क्योंकि गुरु तो सच को दबाते हैं। सच तो स्वयं तुम्हारे भीतर है।..सच को ढूँढने के लिए मनुष्य को सभी बंधनों से स्वतंत्र होना आवश्यक है।'

कृष्णमूर्ति ने बड़ी ही फुर्ती और जीवटता से लगातार दुनिया के अनेकों भागों में भ्रमण किया और लोगों को शिक्षा दी और लोगों से शिक्षा ली। उन्होंने पूरा जीवन एक शिक्षक और छात्र की तरह बिताया। मनुष्य के सर्व प्रथम मनुष्य होने से ही मुक्ति की शुरुआत होती है। किंतु आज का मानव हिंदू, बौद्ध, ईसाई, मुसलमान, अमेरिकी, अरबी या चाइनी है।

उन्होंने कहा था कि संसार विनाश की राह पर आ चुका है और इसका हल तथाकथित धार्मिकों और राजनीतिज्ञों के पास नहीं है। उन्होंने 91 वर्ष की आयु में 1986 को अमेरिका में देह छोड़ दी। लेकिन आज भी दुनियाभर की लाइब्रेरी में कृ‍ष्णमूर्ति उपलब्ध हैं।

भगवान झूलेलाल

भारतीय धर्मग्रंथों में कहा गया है कि जब-जब अत्याचार बढ़े हैं, नैतिक मूल्यों का क्षरण हुआ है तथा आसुरी प्रवृत्तियाँ हावी हुई हैं, तब-तब किसी न किसी रूप में ईश्वर ने अवतार लेकर धर्मपरायण प्रजा की रक्षा की। संपूर्ण विश्व में मात्र भारत को ही यह सौभाग्य एवं गौरव प्राप्त रहा है कि यहाँ का समाज साधु-संतों के बताए मार्ग पर चलता आया है। 

ऐसी ही एक कथा भगवान झूलेलालजी के अवतरण की है। शताब्दियों पूर्व सिन्धु प्रदेश में मिर्ख शाह नाम का एक राजा राज करता था। राजा बहुत दंभी तथा असहिष्णु प्रकृति का था। सदैव अपनी प्रजा पर अत्याचार करता था। इस राजा के शासनकाल में सांस्कृतिक और जीवन-मूल्यों का कोई महत्व नहीं था। पूरा सिन्ध प्रदेश राजा के अत्याचारों से त्रस्त था। उन्हें कोई ऐसा मार्ग नहीं मिल रहा था जिससे वे इस क्रूर शासक के अत्याचारों से मुक्ति पा सकें। 

लोककथाओं में यह बात लंबे समय से प्रचलित है कि मिर्ख शाह के आतंक ने जब जनता को मानसिक यंत्रणा दी तो जनता ने ईश्वर की शरण ली। सिन्धु नदी के तट पर ईश्वर का स्मरण किया तथा वरुण देव उदेरोलाल ने जलपति के रूप में मत्स्य पर सवार होकर दर्शन दिए। तभी नामवाणी हुई कि अवतार होगा एवं नसरपुर के ठाकुर भाई रतनराय के घर माता देवकी की कोख से उपजा बालक सभी की मनोकामना पूर्ण करेगा। 

समय ने करवट ली और नसरपुर के ठाकुर रतनराय के घर माता देवकी ने चैत्र शुक्ल 2 संवत्‌ 1007 को बालक को जन्म दिया एवं बालक का नाम उदयचंद रखा गया। इस चमत्कारिक बालक के जन्म का हाल जब मिर्ख शाह को पता चला तो उसने अपना अंत मानकर इस बालक को समाप्त करवाने की योजना बनाई। बादशाह के सेनापति दल-बल के साथ रतनराय के यहाँ पहुँचे और बालक के अपहरण का प्रयास किया, लेकिन मिर्ख शाह की फौजी ताकत पंगु हो गई। उन्हें उदेरोलाल सिंहासन पर आसीन दिव्य पुरुष दिखाई दिया। सेनापतियों ने बादशाह को सब हकीकत बयान की। 

उदेरोलाल ने किशोर अवस्था में ही अपना चमत्कारी पराक्रम दिखाकर जनता को ढाँढस बँधाया और यौवन में प्रवेश करते ही जनता से कहा कि बेखौफ अपना काम करे। उदेरोलाल ने बादशाह को संदेश भेजा कि शांति ही परम सत्य है। इसे चुनौती मान बादशाह ने उदेरोलाल पर आक्रमण कर दिया। बादशाह का दर्प चूर-चूर हुआ और पराजय झेलकर उदेरोलाल के चरणों में स्थान माँगा। उदेरोलाल ने सर्वधर्म समभाव का संदेश दिया। इसका असर यह हुआ कि मिर्ख शाह उदयचंद का परम शिष्य बनकर उनके विचारों के प्रचार में जुट गया।

उपासक भगवान झूलेलालजी को उदेरोलाल, घोड़ेवारो, जिन्दपीर, लालसाँईं, पल्लेवारो, ज्योतिनवारो, अमरलाल आदि नामों से पूजते हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता के निवासी चैत्र मास के चन्द्रदर्शन के दिन भगवान झूलेलालजी का उत्सव संपूर्ण विश्व में चेटीचंड के त्योहार के रूप में परंपरागत हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। 

चूँकि भगवान झूलेलालजी को जल और ज्योति का अवतार माना गया है, इसलिए काष्ठ का एक मंदिर बनाकर उसमें एक लोटी से जल और ज्योति प्रज्वलित की जाती है और इस मंदिर को श्रद्धालु चेटीचंड के दिन अपने सिर पर उठाकर, जिसे बहिराणा साहब भी कहा जाता है, भगवान वरुणदेव का स्तुतिगान करते हैं एवं समाज का परंपरागत नृत्य छेज करते हैं। 

झूलेलाल उत्सव चेटीचंड, जिसे सिन्धी समाज सिन्धी दिवस के रूप में मनाता चला आ रहा है, पर समाज की विभाजक रेखाएँ समाप्त हो जाती हैं। यह सर्वधर्म समभाव का प्रतीक है।

शौर्य पुरुष परशुराम

 सतयुग और त्रेतायुग के संधिकाल में राजाओं की निरंकुशता से जनजीवन त्रस्त और छिन्न-भिन्न हो गया था। दीन और आर्तजनों की पुकार को कोई सुनने वाला नहीं था। ऐसी परिस्थिति में महर्षि ऋचिक के पुत्र जमदग्नि अपनी सहधर्मिणी रेणुका के साथ नर्मदा के निकट पर्वत शिखर पर जमदग्नेय आश्रम (अब जानापाव) में तपस्यारत थे। उन्होंने पराशक्ति का आह्वान किया, उपासना की तब लोक मंगल के लिए वैशाख शुक्ल तृतीया को पराशक्ति, परमात्मा, ईश्वर का मध्यरात्रि को अवतरण हुआ। आश्रम में उत्साह का वातावरण फैला।

ज्योतिष एवं नक्षत्रों की यति-मति-गति अनुसार बालक का नाम 'राम' रखा गया। बालक अपने ईष्ट शिव का स्मरण करते हुए ब़ड़ा होने लगा। राम का अपने ईष्ट शिव से साक्षात्कार हुआ। अमोघ शस्त्र परशु (फरसा) और धनुष प्राप्ति के साथ शक्ति अर्जन हेतु माँ पराम्बा, महाशक्ति त्रिपुर सुंदरी की आराधना का आदेश भी प्राप्त किया। परशुधारी परशुराम को शास्त्र विद्या का ज्ञान जमदग्नि ऋषि ने दे दिया था, किंतु शिव प्रदत्त अमोघ परशु को चलाने की कला सीखने के लिए महर्षि कश्यप के आश्रम में भेजा।

परशुराम शस्त्र कला में पारंगत होने के बाद गुरु से आशीर्वाद प्राप्त कर पिता के आश्रम लौटे। वहाँ पिता का सिर ध़ड़ से अलग, आश्रम के ऋषि, ब्राह्मण और गुरुकुल के बालकों के रक्तरंजित निर्जीव शरीर का अंबार प़ड़ा मिला। परशुराम हतप्रभ हो गए। इसी बीच माता की कराह और चीत्कार सुनाई दी। दौ़ड़कर माता के निकट पहुँचे। माता ने 21 बार छाती पीटी। 

परशुराम ने सब जान लिया कि कार्तवीर्य (सहस्रबाहु) के पुत्र एवं सेना ने तांडव मचाया है। परशुराम वायु वेग से माहिष्मति पहुँचे। उन्होंने कार्तवीर्य की सहस्र भुजाओं को अपने प्रखर परशु से एक-एक कर काट दिया। अंत में शीश भी काटकर धूल में मिला दिया। इतना ही नहीं, परशुराम का परशु चलता ही रहा और एक-एक अनाचारी को खोज-खोजकर नष्ट कर दिया। परशुरामजी से यह कृत्य लोकहित में ही हुआ है किंतु कतिपय लोगों ने उन्हें आवेशी करार दिया है।

परशुरामजी में आवेश का प्रादुर्भाव कभी नहीं हुआ। परिस्थितिजन्य स्थिति में कोमल भी कठोर हो जाता है। परशुरामजी के कोमल मन में आवेश नहीं, कठोरता का प्रादुर्भाव अवश्य होता रहा है। यदि हम पुराणों का अध्ययन करें तो ज्ञात होगा कि ब्राह्मण जाति और सर्व समाज के हितैषी भगवान परशुराम दया, क्षमा, करुणा के पुंज हैं, साथ ही उनका शौर्य प्रताप हम में ऊर्जा का संचार करने में समर्थ है। आवश्यकता है उनको पूजने की, उनकी आराधना करने की।

श्रीमद् आद्यशंकराचार्य

कल्यादौ द्विसहस्रान्ते लोकानुग्रहकाम्ययाः
चतुर्भिः सह शिस्यैस्तु शंकरोऽवतरिष्यति॥

जैसा कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जब-जब अधर्म की वृद्धि और धर्म की ग्लानि होती है, तब-तब मैं साधुता के परित्राण (सदाचरण) की रक्षा के लिए और छल, छद्म आदि दुष्कर्मों के समूलोच्छेदार्थ अवतार करता हूँ। 2518 वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ल पंचमी कलि सं. 2593 में एक बार पुनः यह अमोघ नाद श्रीमद् आद्यशंकराचार्य के रूप में चरितार्थ हुआ। 

आद्यशंकराचार्य के प्रादुर्भाव का काल भारत के सांस्कृतिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण काल माना जाता है। उस समय वैदिक परंपराएँ एवं मानवता निष्प्राण हो गई थीं। सर्वत्र अराजकता और अनाचार व्याप्त था। परमेश्वर निर्मित सनातन धर्म, संस्कृति विच्छिन्न हो रही थी। सर्वत्र वेद, ईश्वर, वर्णाश्रम, सदाचार की निंदा तथा अनाचार-पापाचार का प्रचार था। राजनीति स्वार्थ का केंद्र बन गई थी।

अवैदिक मतावलंबियों की जितनी आस्था अपने धर्म में नहीं थी, उससे अधिक उनका उत्साह वैदिक धर्म के खंडन में था। वैदिक धर्मावलंबियों की अत्यंत विषादमय स्थिति हो गई थी, फिर भी अपने धर्म के पुनरुत्थान हेतु प्राणपण चेष्टाशील थे।

भगवत्पाद आद्यशंकराचार्य चाहते थे जगत का समाधान। वेद विरोधी आसुरी तत्वों से वेद की अंतः-बाह्य रक्षा। सनातन वैदिक धर्म-संस्कृति प्रतिष्ठा और वेद-विद्या का यथार्थ प्रकाश। लोक में शांति स्थापना तथा प्राणियों में निर्वेरता।

भारत राष्ट्र की मूलभूत एकता को व्यावहारिक रूप देने वाले आद्यशंकराचार्य ही हुए हैं जिन्होंने संकीर्णता, दुर्बलता, मत-मतांतर, प्रांताभिमान आदि बाह्याडंबरों में फँसी भारतीय जनता को ज्ञान आलोक से दैदीप्यमान किया। उनकी अंतर्दृष्टि एवं संगठन शक्ति के कारण भारत विश्व में तेजोदीप्त हुआ। भारत के चारों कोनों में स्थापित चारों धाम बदरी, जगन्नाथ, रामेश्वरम, द्वारका तथा उपासना-पीठ कांची कामकोटि आज भी भारतीय आस्था के केंद्र हैं। उनके अश्रान्त-श्रम प्रयत्नों के परिणामस्वरूप भारत वर्ष एक ओर तो रूढ़िवादी, कर्मकांड और दूसरी ओर नास्तिकवादी जड़वाद के गर्त में गिरने से बच गया। आचार्य शंकर ने भारतवर्ष का सांगोपांग उद्धार किया।

आद्यशंकराचार्य का आदर्श था त्याग और निर्वेरता! हिंसारहित, एक बूँद रक्त बहाए बिना शांति-स्थापना। आद्यजगद्गुरु शंकराचार्य ने मात्र 32 वर्ष, 6 माह, 10 दिन के जीवनकाल में अपने संदेशों एवं कृत्यों के माध्यम से भारत राष्ट्र को एक सांस्कृतिक सूत्र में बाँधने का जो प्रयास किया, वह उनकी राष्ट्रधर्म-सर्वोपरि मानने की धारणा को ही व्यक्त करता है।

यही कारण है कि आज क्षेत्रवाद और आतंकवाद के बीच आद्यशंकर की दिव्य-चेतना हमें राष्ट्रीय एकात्मता, ब्रह्मात्मैक्य बोध एवं आत्मप्रेम के साथ राष्ट्र-गौरव संवर्द्धन की सतत प्रेरणा दे रही है। विश्व-शांति और राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में आद्यशंकराचार्य सदैव आलोकित रहने वाले एक ऐसे ज्योतिर्पुंज हैं, जो मानव-जगत में सदैव प्रासंगिक रहेंगे।

आज हम देशवासियों का पुनीत कर्तव्य है कि श्रीमद् आद्यजगद्गुरु शंकराचार्यजी की जयंती तिथि 'वैशाख शुक्ल पंचमी' को एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में आयोजित कर उनके पावन संदेश को आत्मसात करें।

श्रुति स्मृति पुराणानामालयं करुणालयम्‌
नमामि भगवत्पादं शंकरं लोकशंकरम्‌॥

शंकराचार्य

शंकरो शंकर: साक्षात्'।
शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को व्यवस्थित करने का भरपूर प्रयास किया। उन्होंने हिंदुओं की सभी जातियों को इकट्ठा करके 'दसनामी संप्रदाय' बनाया और साधु समाज की अनादिकाल से चली आ रही धारा को पुनर्जीवित कर चार धाम की चार पीठ का गठन किया जिस पर चार शंकराचार्यों की परम्परा की शुरुआत हुई।

लेकिन हिंदुओं के साधुजनों और ब्राह्मणों ने मिलकर सब कुछ मटियामेट कर दिया। अब चार की जगह चालीस शंकराचार्य होंगे और उन सभी की अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियाँ और ठाठ-बाट है क्योंकि उनके पीछे चलने वाले उनके चेले-चपाटियों की भरमार है जो उनके अहंकार को पोषित करते रहते हैं।

शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण के यहाँ हुआ। मात्र बत्तीस वर्ष की उम्र में वे निर्वाण प्राप्त कर ब्रह्मलोक चले गए। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने भारतभर का भ्रमण कर हिंदू समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए चार मठों ही स्थापना की। चार मठ के शंकराचार्य ही हिंदुओं के केंद्रिय आचार्य माने जाते हैं, इन्हीं के अधिन अन्य कई मठ हैं। चार प्रमुख मठ निम्न हैं:-

1. वेदान्त ज्ञानमठ, श्रृंगेरी (दक्षिण भारत)।
2. गोवर्धन मठ, जगन्नाथपुरी (पूर्वी भारत)
3. शारदा (कालिका) मठ, द्वारका (पश्चिम भारत)
4. ज्योतिर्पीठ, बद्रिकाश्रम (उत्तर भारत)

शंकराचार्य के चार शिष्य: 1. पद्मपाद (सनन्दन), 2। हस्तामलक 3. मंडन मिश्र 4. तोटक (तोटकाचार्य)। माना जाता है कि उनके ये शिष्य चारों वर्णों से थे।

ग्रंथ: शंकराचार्य ने सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों पर तथा गीता पर भाष्यों की रचनाएँ की एवं अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों स्तोत्र-साहित्य का निर्माण कर वैदिक धर्म एवं दर्शन को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए अनेक श्रमण, बौद्ध तथा हिंदू विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया।

दसनामी सम्प्रदाय: शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे।

दसनामी सम्प्रदाय के साधु प्रायः गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते। कठिन योग साधना और धर्मप्रचार में ही उनका सारा जीवन बितता है। दसनामी संप्रदाय में शैव और वैष्णव दोनों ही तरह के साधु होते हैं।

यह दस संप्रदाय निम्न हैं: 1.गिरि, 2।पर्वत और 3.सागर। इनके ऋषि हैं भ्रगु। 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती। इनके ऋषि हैं शांडिल्य। 7.वन और 8.अरण्य के ऋषि हैं काश्यप। 9.तीर्थ और 10. आश्रम के ऋषि अवगत हैं।

हिंदू साधुओं के नाम के आगे स्वामी और अंत में उसने जिस संप्रदाय में दीक्षा ली है उस संप्रदाय का नाम लगाया जाता है, जैसे- स्वामी अवधेशानंद गिरि।

शंकराचार्य का दर्शन: शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। शंकराचार्य के गुरु दो थे। गौडपादाचार्य के वे प्रशिष्य और गोविंदपादाचार्य के शिष्य कहलाते थे। शकराचार्य का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। उन्होंने ही इस ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि 'ब्रह्म ही सत्य है और जगत माया।' आत्मा की गति मोक्ष में है।

अद्वैत वेदांत अर्थात उपनिषदों के ही प्रमुख सूत्रों के आधार पर स्वयं भगवान बुद्ध ने उपदेश दिए थे। उन्हीं का विस्तार आगे चलकर माध्यमिका एवं विज्ञानवाद में हुआ। इस औपनिषद अद्वैत दर्शन को गौडपादाचार्य ने अपने तरीके से व्यवस्थित रूप दिया जिसका विस्तार शंकराचार्य ने किया। वेद और वेदों के अंतिम भाग अर्थात वेदांत या उपनिषद में वह सभी कुछ है जिससे दुनिया के तमाम तरह का धर्म, विज्ञान और दर्शन निकलता है।

कृष्ण भक्त वल्लभाचार्य

सगुण और निर्गुण भक्ति धारा के दौर में वल्लभाचार्य ने अपना दर्शन खुद गढ़ा था लेकिन उसके मूल सूत्र वेदांत में ही निहित हैं। उन्होंने रुद्र सम्प्रदाय के प्रवर्तक विष्णु स्वामी के दर्शन का अनुसरण तथा विकास करके अपना शुद्धद्वैत मत या पुष्टिमार्ग प्रतिष्ठित किया था।

सोमयाजी कुल के तैलंग ब्राह्मण लक्ष्मण भट्ट के यहाँ जन्मे वल्लभाचार्य का अधिकांश समय काशी, प्रयाग और वृंदावन में ही बीता। उनकी माता का नाम इलम्मागारू था। उनकी पत्नी का नाम महालक्ष्मी था। उनके दो पुत्र थे गोपीनाथ और श्रीविट्ठलनाथ।

जब इनके माता-पिता मुस्लिम आक्रमण के भय से दक्षिण भारत जा रहे थे तब रास्ते में छत्तीसगढ़ के रायपुर नगर के पास चंपारण्य में 1478 में वल्लभाचार्य का जन्म हुआ।

बाद में काशी में ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई और वहीं उन्होंने अपने मत का उपदेश भी दिया। रुद्र संप्रदाय के विल्वमंगलाचार्यजी द्वारा इन्हें अष्टादशाक्षरगोपालमंत्र की दीक्षा दी गई और त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्रतीर्थ से प्राप्त हुई। 52 वर्ष की आयु में उन्होंने सन 1530 में काशी में हनुमानघाट पर गंगा में प्रविष्ट होकर जल-समाधि ले ली।

प्रसिद्ध ग्रंथ: ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य इसे ब्रह्मसूत्र भाष्य अथवा उत्तरमीमांसा कहते हैं, श्रीमद् भागवत पर सुबोधिनी टीका और तत्वार्थदीप निबंध। इसके अलावा भी उनके अनेक ग्रंथ हैं।

वल्लभाचार्य के शिष्य: ऐसा माना जाता है कि वल्लभाचार्य के चौरासी शिष्य थे जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, कृष्णदास, कुम्भनदास और परमानन्द दास।

वल्लभाचार्य का दर्शन: वल्लभाचार्य अनुसार तीन ही तत्व हैं ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा। अर्थात ईश्वर, जगत और जीव। उक्त तीन तत्वों को केंद्र रखकर ही उन्होंने जगत और जीव के प्रकार बताए और इनके परस्पर संबंधों का खुलासा किया। उनके अनुसार भी ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है जो सर्वव्यापक और अंतर्यामी है। कृष्ण भक्त होने के नाते उन्होंने कृष्ण को ब्रह्म मानकर उनकी महिमा का वर्णन किया है।

वल्लभाचार्य के अद्वैतवाद में माया का संबंध अस्वीकार करते हुए ब्रह्म को कारण और जीव-जगत को उसके कार्य रूप में वर्णित कर तीनों शुद्ध तत्वों की साम्यता प्रतिपादित की गई है। इसी कारण ही उनके मत को शुद्धद्वैतवाद कहते हैं।

कृष्ण भक्त वल्लभाचार्य

सगुण और निर्गुण भक्ति धारा के दौर में वल्लभाचार्य ने अपना दर्शन खुद गढ़ा था लेकिन उसके मूल सूत्र वेदांत में ही निहित हैं। उन्होंने रुद्र सम्प्रदाय के प्रवर्तक विष्णु स्वामी के दर्शन का अनुसरण तथा विकास करके अपना शुद्धद्वैत मत या पुष्टिमार्ग प्रतिष्ठित किया था।

सोमयाजी कुल के तैलंग ब्राह्मण लक्ष्मण भट्ट के यहाँ जन्मे वल्लभाचार्य का अधिकांश समय काशी, प्रयाग और वृंदावन में ही बीता। उनकी माता का नाम इलम्मागारू था। उनकी पत्नी का नाम महालक्ष्मी था। उनके दो पुत्र थे गोपीनाथ और श्रीविट्ठलनाथ।

जब इनके माता-पिता मुस्लिम आक्रमण के भय से दक्षिण भारत जा रहे थे तब रास्ते में छत्तीसगढ़ के रायपुर नगर के पास चंपारण्य में 1478 में वल्लभाचार्य का जन्म हुआ।

बाद में काशी में ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई और वहीं उन्होंने अपने मत का उपदेश भी दिया। रुद्र संप्रदाय के विल्वमंगलाचार्यजी द्वारा इन्हें अष्टादशाक्षरगोपालमंत्र की दीक्षा दी गई और त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्रतीर्थ से प्राप्त हुई। 52 वर्ष की आयु में उन्होंने सन 1530 में काशी में हनुमानघाट पर गंगा में प्रविष्ट होकर जल-समाधि ले ली।

प्रसिद्ध ग्रंथ: ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य इसे ब्रह्मसूत्र भाष्य अथवा उत्तरमीमांसा कहते हैं, श्रीमद् भागवत पर सुबोधिनी टीका और तत्वार्थदीप निबंध। इसके अलावा भी उनके अनेक ग्रंथ हैं।

वल्लभाचार्य के शिष्य: ऐसा माना जाता है कि वल्लभाचार्य के चौरासी शिष्य थे जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, कृष्णदास, कुम्भनदास और परमानन्द दास।

वल्लभाचार्य का दर्शन: वल्लभाचार्य अनुसार तीन ही तत्व हैं ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा। अर्थात ईश्वर, जगत और जीव। उक्त तीन तत्वों को केंद्र रखकर ही उन्होंने जगत और जीव के प्रकार बताए और इनके परस्पर संबंधों का खुलासा किया। उनके अनुसार भी ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है जो सर्वव्यापक और अंतर्यामी है। कृष्ण भक्त होने के नाते उन्होंने कृष्ण को ब्रह्म मानकर उनकी महिमा का वर्णन किया है।

वल्लभाचार्य के अद्वैतवाद में माया का संबंध अस्वीकार करते हुए ब्रह्म को कारण और जीव-जगत को उसके कार्य रूप में वर्णित कर तीनों शुद्ध तत्वों की साम्यता प्रतिपादित की गई है। इसी कारण ही उनके मत को शुद्धद्वैतवाद कहते हैं।

रामानुजाचार्य

वैष्णव आचार्यों में प्रमुख रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में ही रामानंद हुए थे जिनके शिष्य कबीर और सूरदास थे। रामानुज ने वेदांत दर्शन पर आधारित अपना नया दर्शन विशिष्ट द्वैत वेदान्त गढ़ा था।

रामानुजाचार्य ने वेदांत के अलावा सातवीं-दसवीं शताब्दी के रहस्यवादी एवं भक्तिमार्गी अलवार सन्तों से भक्ति के दर्शन को तथा दक्षिण के पंचरात्र परम्परा को अपने विचार का आधार बनाया। 

1017 ई। में रामानुज का जन्म दक्षिण भारत के तिरुकुदूर क्षेत्र में हुआ था। बचपन में उन्होंने कांची में यादव प्रकाश गुरु से वेदों की शिक्षा ली। रामानुजाचार्य आलवन्दार यामुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। गुरु की इच्छानुसार रामानुज ने उनसे तीन काम करने का संकल्प लिया था:- ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबंधनम की टीका लिखना। उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्यागकर श्रीरंगम के यदिराज संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ली।

मैसूर के श्रीरंगम से चलकर रामानुज शालग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। रामानुज ने उस क्षेत्र में बारह वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया। फिर उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए पूरे देश का भ्रमण किया। 1137 ई। में वे ब्रह्मलीन हो गए।

मूल ग्रन्थ: ब्रह्मसूत्र पर भाष्य 'श्रीभाष्य' एवं 'वेदार्थ संग्रह'।

विशिष्टाद्वैत दर्शन: रामनुजाचार्य के दर्शन में सत्ता या परमसत् के सम्बन्ध में तीन स्तर माने गए हैं:- ब्रह्म अर्थात ईश्वर, चित् अर्थात आत्म, तथा अचित अर्थात प्रकृति। 

वस्तुतः ये चित् अर्थात् आत्म तत्त्व तथा अचित् अर्थात् प्रकृति तत्त्व ब्रह्म या ईश्वर से पृथक नहीं है बल्कि ये विशिष्ट रूप से ब्रह्म का ही स्वरूप है एवं ब्रह्म या ईश्वर पर ही आधारित हैं यही रामनुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त है।

जैसे शरीर एवं आत्मा पृथक नहीं हैं तथा आत्म के उद्देश्य की पूर्ति के लिए शरीर कार्य करता है उसी प्रकार ब्रह्म या ईश्वर से पृथक चित् एवं अचित् तत्त्व का कोई अस्तित्व नहीं हैं वे ब्रह्म या ईश्वर का शरीर हैं तथा ब्रह्म या ईश्वर उनकी आत्मा सदृश्य हैं।

भक्ति से तात्पर्य: रामानुज के अनुसार भक्ति का अर्थ पूजा-पाठ या कीर्तन-भजन नहीं बल्कि ध्यान करना या ईश्वर की प्रार्थना करना है। सामाजिक परिप्रेक्ष्य से रामानुजाचार्य ने भक्ति को जाति एवं वर्ग से पृथक तथा सभी के लिए संभव माना है।

संत तरुणसागरजी

मध्यप्रदेश के दमोह जिले के प्रतापचंदजी और शांतिदेवी जैन के यहाँ 26 जून 1967 को बालक पवन का जन्म हुआ। पवन छठी कक्षा में प़ढ़ते वक्त स्कूल से घर जाते हुए जलेबी खाने होटल में रुके। मुँह में रसपूर्ण जलेबी अभी आई ही थी कि कानों में आवाज पड़ी 'तुम भी भगवान बन सकते हो।' पास ही के मंदिरजी में मुनिश्री पुष्पदंतसागरजी का प्रवचन चल रहा था और पवन जीवन के रस छोड़कर भगवान बनने की राह पर निकल पड़े। गुरु के पीछे-पीछे ब्रह्मचारी/क्षुल्लक/ ऐलक... ये साधुत्व के पड़ाव पार करते 20 जुलाई 1988 में राजस्थान में बने मुनिश्री 108 तरुणसागर। 

जैनत्व के दो हजार वर्ष के इतिहास में आचार्य कुंद-कुंद के बाद इतनी कठोर साधना करने वाले वे प्रथम योगी हैं। भूमि शयन, दिन में सिर्फ एक बार अंजुली में अन्न-जल ग्रहण तथा संयम से मन को साधना और कठोर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के साधुत्व के पड़ाव उन्होंने पार किए हैं।

वर्ष 2003 में इंदौर में सरकार द्वारा मुनिश्री को 'राष्ट्रसंत' की उपाधि से विभूषित किया गया। मप्र, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र ने उन्हें राजकीय अतिथि का सम्मान दिया। टीवी के माध्यम से भारत सहित 22 देशों में अहिंसामयी 'महावीर-वाणी' का प्रसारण करने वाले वे प्रथम जैन संत हैं। 

दिल्ली के लालकिले से उन्होंने 1 जनवरी 2000 को नई सदी की पहली सुबह को गोहत्या और पशु मांस निर्यात के खिलाफ अहिंसात्मक राष्ट्रीय आंदोलन छेड़ा और ऐतिहासिक 'अहिंसा-महाकुंभ' संपन्न हुआ। मुनिश्री भारतीय सेना को संबोधन करने वाले प्रथम जैन संत हैं।

मप्र, गुजरात, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र की धरा पर मुनिश्री ने गहन पदयात्रा, जनयात्रा की है। मुनिश्री आजकल महाराष्ट्र में हैं। मुनिश्री ने तीन दर्जन से अधिक किताबें लिखी हैं। जिनकी 15 लाख से ज्यादा प्रतियाँ लोगों के बीच पहुँच चुकी हैं। उनकी पुस्तक 'कड़वे प्रवचन' का छः भाषाओं में अनुवाद हुआ है

जगतगुरु स्वामी रामानंदाचार्य

रामानंद अर्थात रामानंदाचार्य ने हिंदू धर्म को संगठित और व्यवस्थित करने के अथक प्रयास किए। उन्होंने वैष्णव सम्प्रदाय को पुनर्गठित किया तथा वैष्णव साधुओं को उनका आत्मसम्मान दिलाया। रामानंद वैष्णव भक्तिधारा के महान संत हैं। सोचें जिनके शिष्य संत कबीर और रविदास जैसे संत रहे हों तो वे कितने महान रहे होंगे।

बादशाह गयासुद्दीन तुगलक ने हिंदू जनता और साधुओं पर हर तरह की पाबंदी लगा रखी थी। हिंदुओं पर बेवजह के कई नियम तथा बंधन थोपे जाते थे। इन सबसे छुटकारा दिलाने के लिए रामानंद ने बादशाह को योगबल के माध्यम से मजबूर कर दिया। अंतत: बादशाह ने हिंदुओं पर अत्याचार करना बंद कर उन्हें अपने धार्मिक उत्सवों को मनाने तथा हिंदू तरीके से रहने की छूट दे दी।

जन्म : माघ माह की सप्तमी संवत 1356 अर्थात ईस्वी सन 1300 को कान्यकुब्ज ब्राह्मण के कुल में जन्मे श्री रामानंदजी के पिता का नाम पुण्य शर्मा तथा माता का नाम सुशीलादेवी था। वशिष्ठ गोत्र कुल के होने के कारण वाराणसी के एक कुलपुरोहित ने मान्यता अनुसार जन्म के तीन वर्ष तक उन्हें घर से बाहर नहीं निकालने और एक वर्ष तक आईना नहीं दिखाने को कहा था।

दीक्षा : आठ वर्ष की उम्र में उपनयन संस्कार होने के पश्चात उन्होंने वाराणसी पंच गंगाघाट के स्वामी राघवानंदाचार्यजी से दीक्षा प्राप्त की। तपस्या तथा ज्ञानार्जन के बाद बड़े-बड़े साधु तथा विद्वानों पर उनके ज्ञान का प्रभाव दिखने लगा। इस कारण मुमुक्षु लोग अपनी तृष्णा शांत करने हेतु उनके पास आने लगे।

प्रमुख शिष्य : स्वामी रामानंदाचार्यजी के कुल 12 प्रमुख शिष्य थे: 1। संत अनंतानंद, 2. संत सुखानंद, 3. सुरासुरानंद , 4. नरहरीयानंद, 5. योगानंद, 6. पिपानंद, 7. संत कबीरदास, 8. संत सेजा न्हावी, 9. संत धन्ना, 10. संत रविदास, 11. पद्मावती और 12. संत सुरसरी।

संवत्‌ 1532 अर्थात सन्‌ 1476 में आद्य जगद्‍गुरु रामानंदाचार्यजी ने अपनी देह छोड़ दी। उनके देह त्याग के बाद से वैष्ण्व पंथियों में जगद्‍गुरु रामानंदाचार्य पद पर 'रामानंदाचार्य' की पदवी को आसीन किया जाने लगा। जैसे शंकराचार्य एक उपाधि है, उसी तरह रामानंदाचार्य की गादी पर बैठने वाले को इसी उपाधि से विभूषित किया जाता है।

वर्तमान में इस गादी पर स्वामी श्रीनरेंद्राचार्य महाराज को 21 अक्टूबर 2005 को अनंत विभूषित 'जगद्‍गुरु रामानंदाचार्य' इस पद पर नियुक्त किया गया है। दक्षिण भारत के लिए श्रीक्षेत्र नाणिज को वैष्णव पीठ रूप में घोषित कर इसका नाम 'जगद्‍गुरु रामानंदाचार्य पीठ, नणिजधाम' रखा गया है।

आचार्य श्री तुलसी

जैन समुदाय के तेरापंथ संप्रदाय में नौवें पट्टधर एवं अणुव्रत आंदोलन के प्रवर्तक आचार्य श्री तुलसी विलक्षण प्रतिभा के धनी और प्रखर शक्ति के पुँज थे। आचार्य श्री तुलसी के मन में बचपन से ही धर्म के प्रति आस्था रही और ग्यारह वर्ष की अल्पायु में उन्होंने मुनि दीक्षा ले ली। बाईस वर्ष की अवस्था में तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्री कालूगणी ने उन्हें आचार्य पद सौंपा। 

जबसे वे अपने धर्म-संघ के आचार्य पद पर आसीन हुए, उन्होंने अनेक क्रांतिकारी कदम उठाए। उन्होंने आजीवन आत्मसाधना तो की ही, साथ ही अपनी संवेदना के पटल को व्यापक किया। समाज की आधार अमुक इकाई मनुष्य है। जब तक मनुष्य अच्छा नहीं बनेगा, समाज अच्छा हो नहीं सकता। उनकी इस मान्यता में से अणुव्रत की गंगोत्री का उदय हुआ।

अणुव्रत में जात-पाँत, छोटे-बड़े, धनी-निर्धन इत्यादि का कोई भेदभाव नहीं है। अणु का अर्थ है छोटा अर्थात छोटे-छोटे व्रतों से संकल्प शक्ति के विकास द्वारा क्रमशः जीवन को निर्मल करना। संयम, इच्छा परिमाण, अनावश्यक हिंसा से विरति आदि व्रतों का पालन करना, शराब तथा मादक द्रव्यों का त्याग करना, दहेज और अन्य सामाजिक बुराइयों को छोड़ना, राजनीति को नीतियुक्त बनाना, व्यवसाय में बेईमानी न करना, मिलावट, भ्रष्टाचार, चोरी-डकैती आदि से बचाव, पर्यावरण की सुरक्षा यह सब अणुव्रत के अभीष्ट हैं। 

संक्षेप में कहें तो 'अणुव्रत' मानवीय मूल्यों की वह न्यूनतम आचार संहिता है जिसे पालन करके कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या सम्प्रदाय का हो अणुव्रती बन सकता है, लाखों-लाखों व्यक्ति अणुव्रती बने भी हैं।

आचार्य श्री तुलसी समग्र मानव मात्र के कल्याण के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहे। अणुव्रत को सहज ग्रहणीय, प्रभावी व व्यावहारिक बनाने के लिए उन्होंने उसमें प्रेक्षाध्यान और जीवन-विज्ञान का भी समावेश किया। उनके इंगित पर उनके शिष्य एवं उत्तराधिकारी आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा अनुसंधानिक प्रेक्षाध्यान अंतःकरण के परिशोधन की एक अत्यंत प्रभावशाली प्रक्रिया है। जीवन-विज्ञान शिक्षा द्वारा जीवन निर्माण की प्रेरणा देता है। जिसमें बाल्यावस्था से ही मूल्यपरक शिक्षा द्वारा संस्कारों को अंतर की गहराइयों में पहुँचाने की क्षमता है। 

लगभग साढ़े आठ सौ साधु-साध्वियों, समण-समणियों के विशाल संगठन के संचालक रहे, देश-विदेश में उनकी प्रतिष्ठा थी, लेकिन गोस्वामी तुलसीदास की इस उक्ति के वे चरितार्थ हैं कि 'प्रभुता पाय काहि मद नाही'। मद या अभिमान उन्हें छू तक नहीं गया। उनमें अभिमान नहीं था, पर स्वाभिमान उच्च दर्जे का था। आज आचार्यश्री हमारे बीच नहीं है किंतु उनके सक्षम प्रतिनिधि अहिंसा यात्रा प्रणेता युगप्रधान आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के सक्षम नेतृत्व में उनका अणुव्रत आंदोलन सतत गतिमान है। जिसने मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन के आगे समाधान का उर्ध्वगामी मार्ग प्रशस्त किया है।

मुनिश्री आचार्य महाप्रज्ञ

कवि, वक्ता, साहित्यकार एवं प्रेक्षाध्यान पद्धति के प्रस्तोता आचार्य महाप्रज्ञ तेरापंथ जैन समाज के प्रखर प्रज्ञासंपन्न आचार्य है। आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान के रूप में एक विशिष्ठ वैज्ञानिक साधना-पद्धति का विकास किया। इस साधना-पद्धति के द्वारा सैकड़ों व्यक्ति मानसिक विकृति को दूर हटाकर आध्यत्मिक ऊर्जा एवं शांति प्राप्त करते हैं। 

जन्म : आचार्य महाप्रज्ञ का जन्म विक्रम संवत 1977 (1920) में आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी को राजस्थान के टमकोर के चोरड़िया परिवार में हुआ। पिता का नाम तोलारामजी एवं माता का नाम बालूजी था। आपका जन्म नाम नथमल था। बचपन में ही पिता का देहांत हो जाने के कारण माता बालूजी ने ही उनका पालन-पोषण किया। माता धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं इसी कारण उनमें धार्मिक चेतना का उदय हुआ।

दीक्षा : 29 जनवरी 1939 अर्थात विक्रम संवत 1987 के माघ शुक्ल की दशमी को सरदार शहर में नथमल ने अपनी माता के साथ संत श्रीमद कालूगणी से दस वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण की। इसके पश्चात्य उनकी पहचान धीरे-धीरे मुनि नथमल के रूप में होने लगी।

आचार्य तुलसी : उनके श्रीमद कालूगणी की आज्ञा के चलते उन्होंने मुनि आचार्य तुलसी को गुरु बनाया और उन्ही के सानिध्य में रहकर विद्या अध्ययन किया। दर्शन, न्याय, व्याकरण, कोष, मनोविज्ञान, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिस पर प्रज्ञासागर जी की पकड़ न हो।

गहन अध्ययन : जैनागमों के अध्ययन के साथ उन्होंने भारतीय एवं भारतीयेत्तर सभी दर्शनों का अध्ययन किया है। संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार है। वे संस्कृत भाषा के सफल आशु कवि भी है। आपने संस्कृत भाषा के सर्वाधिक कठिन छंद 'रत्रग्धरा' में 'घटिका यंत्र' विषय पर आशु कविता के रूप में श्लोक बनाकर प्रस्तुत किए। संस्कृत भाषा में संबोधि, अश्रुवीणा, मुकुलम्, अतुला-तुला आदि तथा हिन्दी भाषा में 'ऋषभायण' कविता को आपके प्रमुख ग्रंथ माने जाते हैं। आपने जैन आगम, बौद्ध ग्रंथों, वैदिक ग्रंथों तथा प्राचीन शास्त्रों का गहन अध्ययन किया है। जैनों के सबसे प्राचीन एवं अबोधगम्य 'आचारांग सूत्र' पर संस्कृत भाषा में भाष्य लिखकर आचार्य महाप्रज्ञ ने प्राचीन परंपरा को पुनरुज्जीवित किया है। आपके विभिन्न विषयों पर लगभग 150 ग्रंथ है।

महाप्रज्ञ की उपाधि : आचार्यश्री तुलसी ने महाप्रज्ञ जी को 1144 में अग्रगण्य एवं ईस्वी सन् 1965 विक्रम संवत 2022 माद्य शुक्ला सप्तमी को हिंसार (हरियाणा) में निकाय सचिव नियुक्त किया। उनकी अंतः प्रज्ञा व गहन ज्ञान से प्रभावित होकर गंगाशहर में आचार्यश्री तुलसी ने उन्हें महाप्रज्ञ की उपाधि से अंलकृत किया। 

आचार्य पद : विक्रम संवत 2035 राजलदेसर (राजस्थान) मर्यादा महोत्सव के अवसर पर आचार्यश्री तुलसी ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में उनकी घोषणा की। विक्रम संवत 2050 सुजानगढ़ मर्यादा महोत्सव के ऐतिहासिक समारोह के मध्य आचार्यश्री तुलसी ने अपनी उपस्थिति में अपने आचार्य पद का विर्सजन कर युवाचार्य महाप्रज्ञ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। 

अन्य उपलब्धियाँ : 23 अक्टूबर 1999 को नीदरलैड इंटर कल्चरल ओपन युनिवर्सिटी ने साहित्य के लिए डी.लिट् उपाधि से सम्मानित किया। मानवता के क्षेत्र में महाप्रज्ञ की अनगिनत एवं उल्लेखनीय सेवाओं एवं योगदानों के संदर्भ में उन्हें युगप्राधान पद से सम्मानित किया गया। यह पद उन्हें 1995 में दिया गया।

स्वामी विवेकानंद

विवेकानंदजी का जन्म 12 जनवरी सन्‌ 1863 को हुआ। उनका घर का नाम नरेंद्र दत्त था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेंद्र को भी अंगरेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे। नरेंद्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले ब्रह्म समाज में गए किंतु वहाँ उनके चित्त को संतोष नहीं हुआ।

सन्‌ 1884 में श्री विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेंद्र पर पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। कुशल यही थी कि नरेंद्र का विवाह नहीं हुआ था। अत्यंत गरीबी में भी नरेंद्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रातभर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते।

रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनके पास पहले तो तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंसजी ने देखते ही पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार है। परमहंसजी की कृपा से इनको आत्म-साक्षात्कार हुआ फलस्वरूप नरेंद्र परमहंसजी के शिष्यों में प्रमुख हो गए। संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हुआ। 

स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की परवाह किए बिना, स्वयं के भोजन की परवाह किए बिना गुरु सेवा में सतत हाजिर रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यंत रुग्ण हो गया था। कैंसर के कारण गले में से थूंक, रक्त, कफ आदि निकलता था। इन सबकी सफाई वे खूब ध्यान से करते थे।

एक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और लापरवाही दिखाई तथा घृणा से नाक भौंहें सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को गुस्सा आ गया। उस गुरुभाई को पाठ पढ़ाते हुए और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर पूरी पी गए । 

गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को वे समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक खजाने की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा।

25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र दत्त ने गेरुआ वस्त्र पहन लिए। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की।

सन्‌ 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानंदजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुँचे। योरप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किंतु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए।

फिर तो अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ। वहाँ इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे।

'अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा' यह स्वामी विवेकानंदजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।

4 जुलाई सन्‌ 1902 को उन्होंने देह त्याग किया। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया।

स्वामी विवेकानन्द

१- विवेकानन्द के विचारों का संगीत शास्त्र, गुरु और मातृभूमि– इन तीन स्वर लहरियों से निर्मित हुआ है। इन्हीं से उनको वे उपकरण मिले, जिनसे विश्व-विकार को दूर करने वाले आध्यात्मिक वरदान की विशल्यकरणी उन्होंने प्रस्तुत की। हम उनके इन्हीं प्रखर विचारों के लिए उनको जन्म देनेवाली पुण्यभूमि को, तथा जिन अदृश्य शक्तियों ने उन्हें विश्व में भेजा, उनको धन्य कहते हैं और स्वीकार करते हैं कि उनके महान संदेश की व्यापकता और सार्थकता का मर्म जानने में हम अभी तक असमर्थ रहे हैं। - भगिनी निवेदिता
-------------
२- जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो–उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो। दुर्बलता को कभी प्रश्रय मत दो। सत्य की ज्योति ‘बुद्धिमान’ मनुष्यों के लिए यदि अत्यधिक मात्रा में प्रखर प्रतीत होती है, और उन्हें बहा ले जाती है, तो ले जाने दो–वे जितना शीघ्र बह जाएँ उतना अच्छा ही है।
-------------
३- तुम अपनी अंत:स्थ आत्मा को छोड़ किसी और के सामने सिर मत झुकाओ। जब तक तुम यह अनुभव नहीं करते कि तुम स्वयं देवों के देव हो, तब तक तुम मुक्त नहीं हो सकते।
-------------
४- ज्ञान स्वयमेव वर्तमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है।
-------------
५- मानव-देह ही सर्वश्रेष्ठ देह है, एवं मनुष्य ही सर्वोच्च प्राणी है, क्योंकि इस मानव-देह तथा इस जन्म में ही हम इस सापेक्षिक जगत् से संपूर्णतया बाहर हो सकते हैं–निश्चय ही मुक्ति की अवस्था प्राप्त कर सकते हैं, और यह मुक्ति ही हमारा चरम लक्ष्य है।
-------------
६- जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ेगा। वह जिस युग में जन्मा है, उससे उसे बहुत आगे जाना पड़ेगा, किन्तु साधारण लोग किसी तरह रेंगते-रेंगते ही आगे बढ़ सकते हैं।
-------------
७- जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं।
-------------
८- मन का विकास करो और उसका संयम करो, उसके बाद जहाँ इच्छा हो, वहाँ इसका प्रयोग करो–उससे अति शीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो, और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्त को प्राप्त करता है, वह अंश को भी प्राप्त कर सकता है।
-------------
९- सभी मरेंगे- साधु या असाधु, धनी या दरिद्र- सभी मरेंगे। चिर काल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और संपूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ। भारत में घोर कपट समा गया है। चाहिए चरित्र, चाहिए इस तरह की दृढ़ता और चरित्र का बल, जिससे मनुष्य आजीवन दृढ़व्रत बन सके।
-------------
१०- संन्यास का अर्थ है, मृत्यु के प्रति प्रेम। सांसारिक लोग जीवन से प्रेम करते हैं, परन्तु संन्यासी के लिए प्रेम करने को मृत्यु है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम आत्महत्या कर लें। आत्महत्या करने वालों को तो कभी मृत्यु प्यारी नहीं होती है। संन्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर आत्मत्याग करते हुए धीरे-धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाना।
-------------
११- उठो, जागो और तब तक रुको नही जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाये ।
-------------
१२- किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो। (वि।स.४/३२०)
-------------
१३- मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्न्त बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा- मैं कहता हूँ, अवश्य बनना होगा। आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना -- इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता। (वि।स.६/३५२)
-------------
१४- मन और मुँह को एक करके भावों को जीवन में कार्यान्वित करना होगा। इसीको श्री रामकृष्ण कहा करते थे, "भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये।" सब विषओं में व्यवहारिक बनना होगा। लोगों या समाज की बातों पर ध्यान न देकर वे एकाग्र मन से अपना कार्य करते रहेंगे क्या तुने नहीं सुना, कबीरदास के दोहे में है- "हाथी चले बाजार में, कुत्ता भोंके हजार साधुन को दुर्भाव नहिं, जो निन्दे संसार" ऐसे ही चलना है। दुनिया के लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देना होगा। उनकी भली बुरी बातों को सुनने से जीवन भर कोई किसी प्रकार का महत् कार्य नहीं कर सकता। (वि।स.३/३८१)
-------------
१५- शक्तिमान, उठो तथा सामर्थ्यशाली बनो। कर्म, निरन्तर कर्म; संघर्ष , निरन्तर संघर्ष! अलमिति। पवित्र और निःस्वार्थी बनने की कोशिश करो -- सारा धर्म इसी में है। (वि।स.१/३७९)
-------------
१६- शत्रु को पराजित करने के लिए ढाल तथा तलवार की आवश्यकता होती है। इसलिए अंग्रेज़ी और संस्कृत का अध्ययन मन लगाकर करो। (वि।स.४/३१९)
-------------
१७- बच्चों, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है। जो केवल प्रभु-प्रभु की रट लगाता है, वह नहीं, किन्तु जो उस परम पिता के इच्छानुसार कार्य करता है वही धार्मिक है। यदि कभी कभी तुमको संसार का थोडा-बहुत धक्का भी खाना पडे, तो उससे विचलित न होना, मुहूर्त भर में वह दूर हो जायगा तथा सारी स्थिति पुनः ठीक हो जायगी। (वि।स.१/३८०)
-------------
१८- जब तक जीना, तब तक सीखना' -- अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है। (वि.स.१/३८६)
-------------
१९- पवित्रता, दृढता तथा उद्यम- ये तीनों गुण मैं एक साथ चाहता हूँ। (वि।स.४/३४७)
-------------
२०- पवित्रता, धैर्य तथा प्रयत्न के द्वारा सारी बाधाएँ दूर हो जाती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि महान कार्य सभी धीरे धीरे होते हैं। (वि।स.४/३५१)
-------------
२१- साहसी होकर काम करो। धीरज और स्थिरता से काम करना -- यही एक मार्ग है। आगे बढो और याद रखो धीरज, साहस, पवित्रता और अनवरत कर्म। जब तक तुम पवित्र होकर अपने उद्देश्य पर डटे रहोगे, तब तक तुम कभी निष्फल नहीं होओगे -- माँ तुम्हें कभी न छोडेगी और पूर्ण आशीर्वाद के तुम पात्र हो जाओगे। (वि।स.४/३५६)
-------------
२२- महाशक्ति का तुममें संचार होगा -- कदापि भयभीत मत होना। पवित्र होओ, विश्वासी होओ, और आज्ञापालक होओ। (वि।स.४/३६१)
-------------
२३- ईर्ष्या तथा अंहकार को दूर कर दो -- संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो। (वि।स.४/२८०)
-------------
२४- पक्षपात ही सब अनर्थों का मूल है, यह न भूलना। अर्थात् यदि तुम किसी के प्रति अन्य की अपेक्षा अधिक प्रीति-प्रदर्शन करते हो, तो याद रखो उसीसे भविष्य में कलह का बिजारोपण होगा। (वि।स.४/३१२)
-------------
विकिसूक्ति से साभार

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin