शनिवार, 4 जुलाई 2009

युग परिर्वतन के अग्रदूत

परमपूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीराम शर्मा अपने प्रवचन में कहा करते थे-``मै धरती का भाग्य-भविष्य बदलने आया हूँ। मै आना नही चाहता था, पर मुझे धकेला गया है । और विशिष्ट कार्यो के लिए भेजा गया है । लोग मुझे मनोकामना पूरी करने की मशीन मानते है । मै उनकी थोड़ी मानकर उन्हें बदलने का प्रयास करता हूँ । जो बदल जाते हैं, वे ही मेरे सैनिक-युग परिर्वतन के अग्रदूत बन जाते है ।

अपनी और दृष्टि

योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं-``जैसे पानी में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों में से मन जिस इंद्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरूष की बुद्धि को हर लेती है । इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य को बहुत सावधान रहना चाहिए । एक ही इंद्रिय काफी है, जो मनुष्य को पतन की ओर ले जा सकती है । द्वापर में एक असुर था। शंबरासुर नाम था । उसने प्रद्युम्न (श्रीकृष्ण के बड़े पुत्र-कामदेव के अवतार) का हरण कर लिया था । रति भी उसी के यहाँ कैद थी । शंबरासुर पाककला मे निपुर्ण स्त्रियों का ही अधिकतर हरण करता था । उसकी पाकशाला सदैव सजी रहती थी । उसे खाने का बड़ा शौक था । वह चाहता था कि पाकशाला मे बढ़िया से बढ़िया खाना बने और उसे खिलाया जाए । वह किसी स्त्री की खूबसूरती को नही देखता था, न ही उन्हे हाथ लगाता था , मात्र उसका पाक कला में पारंगत होना जरुरी होता था प्रद्युम्न ने उस असुर को मार कर अगणित स्त्रियों को मुक्त किया । मात्र एक इंद्रिय ही उस असुर के पतन का कारण बनी- सुस्वादु आहार का सेवन । दिन-रात उसी का चिंतन । हम भी अपनी और दृष्टि डालकर देखें।
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जाग्रत लोकमानस

पत्रिका के प्रेस में जाते समय एक ऐसा घटनाक्रम घट गया है, जिसने सारे राष्ट्र की सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई पर पड़ोसी देश पाकिस्तान के दुर्दांत आतंकवादियो ने मानो युद्ध छेड़ दिया है। जिस तरह से यह सुनियोजित हमला 26 नवंबर की रात्रि को हुआ, सारा देश सकते मे आ गया है । लगभग 150 से अधिक व्यक्ति मुंबइ के विभिन्न इलाको मे आतंकवादियों के हाथों मारे गए हैं एवं अगणित घायल बताए गए है। पूरी मुबंई के नगरवासियो ने पूरे धैर्य के साथ संकट का मुकाबला किया है,

पर यह कब तक चलेगा ? क्यों इस युद्ध जैसी घटना पर राजनीति की जा रही है ?

सांप्रदायिक उन्माद के नाम पर इन हमलों से कब तक भारतवासी आतंक में जिएँगें ?

क्या हमारा पूरा देश इस समय एक नही हो सकता ?

ऐसे घटनाक्रम फिर न हों, इसका आश्वासन हमें कौन देगा ?

संभवत: जाग्रत लोकमानस
, जो उन सभी को कड़ा जवाब दे, जो क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद , जातिवाद व वोट की राजनीति की रोटी खाते हे। `अखण्ड़ ज्योति´ एक आध्यात्मिक सामाजिक पत्रिका है, पर सबसे एक अपील करती हैं कि यह समय साहस रखने का है, सबकी एकजुटता का है । विश्वशांति के लिए हम सभी मिलकर प्रार्थना करे तो निश्चित ही भारतवासियों की पुकार भगवान सुनेंगें । हम राजनीति से परे चलें एवं एक अखंड राष्ट्र के लिए चिंतन करें । अधिक जागरुक बनें एवं महाकाल की सत्ता पर- दंड-विधान पर विश्वास रखे। सभी मृतात्माओ के लिए हम सभी की ओर से शांति की प्रार्थना ! सभी को शक्ति मिले , बल मिले , यही परमात्मा से प्रार्थना ।

           
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संघर्ष का सत्पथ

वर्ष 2009 के नवीन सूर्योदय ने संघर्ष का नया सत्पथ प्रकाशित किया है। जिन्हें महात्मा ईसा की याद है, उन्हे बरबस यह भी स्मरण हो आएगा कि महात्मा यीशु ने अपनी संपूर्ण आध्यात्मिक जीवन यात्रा में पल-पल कठिन संघर्ष किए, क्षण-क्षण दारुण यातनाएँ सहीं । जीवन के अंतिम समय के अंतिम संघर्ष में उन्हाने शूली की महायातना को लोकहित मे स्वीकारा । उनकी उपस्थिति एवं उनके अस्तित्व को बीते हुए आज 2009 वाँ वर्ष आ चुका है , परंतु उनका आध्यात्मिक संदेश आज भी शाश्वत है। लोकहित से ही आत्महित सधता है और आत्महित से ही पवित्रता, सत्यता, व्यापकता एवं उदारता में ही लोकहित के समिन्वत आध्यात्मिक यात्रा के प्रत्येक शिखर पर आरोहण संघर्ष के नए सत्पथ पर चलकर ही किया जाता है ।

वर्ष 2009 के प्रथम सूर्योदय की नई किरण के नवीन उजास में इसी सत्य का प्रकाश है। इस नव वर्ष की सूर्य-किरणों में आत्महित व लोकहित के समिन्वत अध्यात्म मार्ग पर चल पड़ने की प्रेरणा है, संघर्ष के सत्पथ पर निकल पड़ने का आह्वान है । इस नव वर्ष का प्रत्येक मास, प्रत्येक दिवस ,यहाँ तक कि प्रत्येक घड़ी ,क्षण पल अपने कोष में अनेक बहुमूल्य उपहार लिए हैं, किंतु ये उपहार पाने के लिए हममें से हर एक को संपूर्ण वर्ष सचेत,सचेष्ट रहना होगा, संघर्षों की नई-नई चुनौतियाँ स्वीकारनी होगी( शारीरिक-मानसिक यातनाओ का सामना हँसते-खिलखिलाते -मुस्काराते करना होगा । जो भी ऐसा कर पायेगा , उसके लिए यह वर्ष नई सफलताओं, नवीन समृद्धि का वरदान देगा । उसके पावँ जहा भी पड़ेंगे, वही स्थान आध्यात्मिक प्रकाश से पूर्ण हो जायेगा ।

संघर्ष का सत्पथ ही हमारे लिए विजय का द्वार है। वह श्रेय मार्ग है, जिसकी चर्चा वेदवाणी करती है, जिसे ऋषियों ने अपने द्वारा उच्चरित मंत्रो मे गाया है। अतीत व वर्तमान के सभी महामानवों ने इसी की प्रेरणा दी है । यही इस वर्ष का और हमारे अपने जीवन का सदा आध्यात्मिक सत्य है।


महापुरुष की वाणी


दन्तिदन्तसमानं हि नि:सृतं महतां वच: ।
कूर्मग्रीवेण नीचानां पुनरायाति याति च ।।

महापुरुष की वाणी हाथी के दाँत के समान एक बार निकलती है । जबकि दुर्जनों की वाणी कछुए की गरदन की तरह बार-बार अंदर-बाहर आती-जाती रहती है (अर्थात् सज्जन जो एक बार कह देते हैं, उस पर आरुढ़ रहते हैं और दुर्जन जो कहते हैं, उसे बार-बार बदलते रहते हैं) ।

पीरो से परदा ?

परदा प्रथा एक ऐसी सड़ी-गली परंपरा है, जो न्यूनाधिक रुप से समाज में चारों ओर व्याप्त है। इसके उन्मूलन हेतु इस सदी के प्रारंभ से ही प्रयास चलते आए हैं। महात्मा गांधी के जीवन की एक घटना है, जो बताती है इस प्रथा के प्रति आक्रोश महिलाओं की ओर से कैसे उभरकर आया ?


इलाहाबाद में एक सभा में मौलाना आजाद व गांधी जी दोनो को ही भाषण देना था। मुसलिम बहुल समाज था। महिलाओं के लिए अलग व्यवस्था की गई थी। उनके सामने चिक डाल दी गई , ताकि उनकी निगाह वक्ता व श्रोतागणों पर तथा श्रोताओं की निगाह उन पर न पड़े । बुरके और चिक के बाद भी सभा आयोजकों में असमंजस था कि कहीं महिलाओ का मुँह खुला न दीखे । वे बोले-``मौलाना आजाद व गांधी जी तब बोलें तो आँख पर पट्टी बाँध लें । इस हास्यास्पद सुझाव पर मौलाना ने कहा-``मैं महिलाओं की ओर पीठ कर लूँगा ´। गांधी जी बाले-``मैं नीचे निगाह करके बोलूँगा ।´´ मौलाना का भाषण तो समाप्त हुआ, पर जब गाँधी जी ने बोलना प्रारम्भ किया तो सारी मुसलिम महिलाएँ बुरका खोल, चिक हटाकर मंच के सामने बैठ गई । अग्रगामी स्त्रियों का कहना था-``पीरों से भी कोई परदा किया जाता है। ´´

यह अपने आप में एक क्रांतिकारी आरंभ था, जो बाद में आंदोलन रुप लेकर बड़ा बना । बाद में राजर्षि टंड़न ने कहा-`` यदि सभी महिलाएँ पुरुषों को पीर (महात्मा) व पुरूष स्त्रियों को देवी स्वरुप मानने लगे। तो इस प्रथा को आमूलचूल नष्ट हाने में काई देर न लगे।´´
                                                                                                                                                                आप भी जनमानस परिष्कार मंच के सदस्य बन कर युग निर्माण योजना को सफल बनायें।

त्रुटियों को समझने और सुधारने का क्रम

एक बाप ने बेटे को भी मूर्तिकला ही सिखाई । दोनों हाट में जाते और अपनी-अपनी मूर्तियाँ बेचकर आते। बाप की मूर्ति डेढ़-दो रुपये की बिकती, पर बेटे की मूर्तियों का मूल्य केवल आठ-दस आने से अधिक न मिलता । हाट से लौटने पर बेटे को पास बैठाकर बाप, उसकी मूर्तियों में रही त्रुटियों को समझाता और अगले दिन उन्हें सुधारने के लिए कहता । यह क्रम वर्षों चलता रहा । लड़का समझदार था। उसने पिता की बातें ध्यान से सुनीं और अपनी कला में सुधार करने का प्रयत्न करता रहा ।

कुछ समय बाद लड़के की मूर्तिया भी डेढ़ रुपये की बिकने लगीं । बाप भी उसी तरह समझाता और मूर्तियों में रहने वाले दोषों की ओर उसका ध्यान खींचता । बेटे ने और अधिक ध्यान दिया तो कला भी अधिक निखरी । मूर्तियाँ पाँच-पाँच रुपये की बिकने लगी। सुधार के लिए समझाने का क्रम बाप ने तब भी बंद न किया । एक दिन बेटे ने झुँझलाकर कहा - ``आप तो दोष निकालने की बात बंद ही नही करते। मेरी कला अब तो आप से भी अच्छी है, मुझे मूर्ति के पाँच रुपये मिलते है जबकि आप को दो ही रुपये।´´

बाप ने कहाँ-``पुत्र ! जब मै तुम्हारी उम्र का था, तब मुझे अपनी कला की पूर्णता का अहंकार हो गया और फिर सुधार की बात सोचना छोड़ दिया । तब से मेरी प्रगति रुक गई और दो रुपये से अधिक की मूर्तियाँ न बना सका । मैं चाहता हूँ वह भूल तुम न करो । अपनी त्रुटियों को समझने और सुधारने का क्रम सदा जारी रखो, ताकि बहुमुल्य मूर्तियाँ बनाने वाले श्रेष्ठ कलाकारों की श्रंणी में पहुँच सको।´´



श्रद्धापूर्वक

समुद्र से जल भरकर लौट रहे मरुत्गणों को विंध्याचल शिखर ने बीच में ही रोक दिया । मरुत् विंध्याचल के इस कृत्य पर बड़े कुपित हुए और युद्ध ठानने को तैयार हो गए।

विंध्याचल ने बडे़ सौम्य भाव से कहा-`` महाभाग ! हम आपसे युद्ध करना नहीं चाहते, हमारी तो एक ही अभिलाषा है कि आप यह जो जल लिए जा रहे हैं, वह आपको जिस उदारता के साथ दिया गया हैं। आप भी इसे उसी उदारता के साथ प्यासी धरती को पिलाते चलें तो कितना अच्छा हो ? ´´ मरुत्गणों को अपने अपमान की पड़ी थी, सो वे शिखर से भिड़ गए, पर जितना युद्ध उन्होनें किया , उतना ही उनका बल क्षीण होता गया और धरती को अपने आप जल मिल गया । मनुष्य न चाहे तो भी ईश्वर अपना काम करा ही लेता है , पर श्रद्धापूर्वक करने का तो आनंद ही कुछ और है।




कबीर

कबीर की ख्याति चारों ओर सिद्ध पुरूष की थी । दूर-दूर से जिज्ञासु आते, तब भी वे पहले की तरह कपड़ा बनाते और सत्संग चलाते । एक शिष्य ने पूछा-``आप जब साधारण थे तब कपड़ा बुनना ठीक था, पर अब आप एक सिद्ध पुरूष है और निर्वाह की भी कमी नहीं, फिर कपड़ा क्यों बुनते हैं ?

कबीर ने सरल भाव से कहा-``पहले मैं पेट पालने के लिए बुनता था, पर अब मैं जनसमाज में समाए भगवान का तन ढकने और अपना मनोयोग साधने के लिए बुनता हूँ । ´´ कार्य वही हो, पर दृष्टिकोण भिन्न हो तो सकता है ! यह जानकर शिष्य का समाधान हो गया ।
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विवेक रहित अंधानुकरण

विवेक रहित अंधानुकरण सदैव हानिकारक ही सिद्ध होता है। जनमानस अज्ञानवश सुधरना तो दूर, बहिरंगी स्वरुप को देखकर जो चला आ रहा है, उसे ही श्रेयस्कर मानता व तदनुसार चलता रहता है। यहाँ तक तीर्थ-स्नान आदि पुण्य प्रयोजनों का बाहृ आडम्बर वाला स्वरुप भी शाश्वत चला आ रहा है।

मणियार ईश्वरभक्त था, किंतु उनका वैयक्तिक जीवन कुविचार और बुरे आचरणों में ग्रस्त होने के कारण अशांत था। उनकी धर्मपत्नी अबुर्द ने कहा-``स्वामी दु:ख और अशांति का कारण अस्वच्छ मन है। आप ज्ञान के प्रकाश से पहले अंतरतम को धो लें, तभी शांति मिलेगी।´´ मणियार ने कहा-``नहीं ! हम लोग तीर्थ-स्नान करने चलेंगे । तीर्थ-स्नान से मन पवित्र हो जाता है।´´

अबुर्द स्त्री थी, झुकना पड़ा । तीर्थयात्रा पर चलने से पूर्व उसने एक पोटली में कुछ आलू बाँध लिए । जहाँ-जहाँ मणियार ने स्नान किया, उसने इन आलूओं को भी स्नान कराया । घर लौटते-लौटेत आलू सड़ गए । अबुर्द ने उस दिन भोजन की थाली में वह आलू भी रख दिए, उनकी दुर्गंध पाकर मणियार चिल्लाया - `` यह दुर्गंध कहा से आ रही है ? ´´ अबुर्द ने हँसकर कहा - `` ये आलू तो तीर्थ-स्नान करने आए हैं, फिर भी दुर्गंध है क्या ?´
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