शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

सेवा

1) यदि कोई आपको सफल होने में सहयोग देता हैं तो यह आपका भी कर्तव्य बन जाता हैं कि आप उसकी सच्ची सेवा करे।
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2) घर वालो की सेवा करने का पुण्य नही होता, क्योंकि पुण्य को ममता खा जाती है।
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3) इस युग को बदलेंगे कौन, जो कर सकते सेवा मौन।
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4) महत्व इसका नहीं हैं कि हमारे कितने सेवक हैं ? महत्व इसका हैं कि हममें कितना सेवाभाव हैं।
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5) जिसकी अंतरात्मा में विश्वमानव की सेवा करने, इस संसार को अधिक सुन्दर-सुव्यवस्थित एवं सुखी बनाने की भावनाएं उठती रहती हैं और इस मार्ग में चलने की प्रबल प्रेरणायें होती हैं, वस्तुत: सच्चा परमार्थी और ईश्वरभक्त वही है।
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6) जिसका स्वभाव बडो को प्रणाम करने, वृद्ध जनों की सेवा करने का हैं, ऐसे मनुष्य के चार पदार्थ बढते हैं-आयु, विद्या, यश और बल।
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7) नि:स्वार्थ सेवा से अहंकार टूटता हैं, व्यक्ति के अन्दर पवित्र भावना जन्म लेती है।
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8) निस्वार्थ सेवा करने में जिसे स्वयं की भी सुध न रहे उसके हितो की रक्षा स्वयं भगवान को करनी पडती है।
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9) हमें मनुष्य शरीर में आकर दो काम करने है-सेवा करना और भगवान् को याद रखना है।
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10) प्रसन्न रहना ईश्वर की सबसे बडी सेवा है।
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11) संसार में सबसे बडे अधिकार सेवा और त्याग से ही मिलते हैं।
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12) सेवा करके भूल जाओ।
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13) सेवा ही वह सीमेंट हैं जो लोगों को जीवन पर्यन्त स्नेह और साहचर्य में जोड़े रख सकती हैं।
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14) सेवा भाव से सन्तोष बढता हैं और अहसान के भाव से अहंकार पनपता है।
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15) सन्यासी के लिये सेवा कार्य छोडने की जरुरत नहीं हैं, अहंकार और आसक्ति छोडने की जरुरत है।
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16) उदारता, सेवा, सहानुभूति और मधुरता का व्यवहार ही परमार्थ का सार है।
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17) वृद्धों की सेवा से दिव्य ज्ञान होता है।
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18) तुम्हे दया और सेवा करने के लिये भेजा गया हैं, सताने और छीनने के लिये नहीं।
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19) जो हाथ सेवा के लिये आगे बढते हैं वे प्रार्थना करने वाले ओंठो से अधिक पवित्र है।
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20) जो सेवा करते नहीं, प्रत्युत सेवा लेते हैं, उनके लिये जमाना खराब आया है। सेवा करने वाले के लिये तो बहुत बिढया जमाना आया है।
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21) जो उदारता, त्याग, सेवा और परोपकार के लिए कदम नहीं बढा सकता, उसे जीवन की सार्थकता का श्रेय और आनन्द भी नहीं मिल सकता।
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22) जो लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश का इच्छुक हैं उसे साधक पहले बनना चाहिये।
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23) अहंकार को गलाने के लिये निष्काम सेवाभाव एकमात्र उपाय है।
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24) अपना सुधार संसार की सबसे बडी सेवा है।
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सत्य

1) यदि कुछ बोलने की इच्छा हो तो सदा सत्य और मधुर तथा हितकारी वचन बोलो।
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2) यह एक अनुभूत सत्य हैं कि सफलताएं हमेशा ही तप व पुण्य का परिणाम होती है।
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3) सिक्के से वस्तु, वस्तु से व्यक्ति, व्यक्ति से विवेक तथा विवेक से सत्य को अधिक महत्त्व देना चाहिये।
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4) जिसके साथ सत्य हैं वह अकेला होते हुए भी बहुमत में है।
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5) निर्मल अन्त:करण को जो प्रतीत हो, वही सत्य है।
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6) शान्ति से क्रोध को, भलाई से बुराई को, शार्य से दुष्टता को और असत्य को सत्य से जीते।
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7) सोते रहना ही कलियुग हैं, उंघते रहना ही द्वापर हैं, उठ बैठना त्रेता हैं और कार्य में लग जाना सतयुग है। इसलिये काम करो, काम करो।

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8) सच्चाई और इमानदारी से प्रेरित संघर्ष ही स्थायी प्रगति का आधार है। अकेला संघर्ष ही कॉफी नहीं, उसमें सत्य का समन्वय होगा, तो ही भीतरी शक्ति का आशीर्वाद मिलेगा।

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9) सत्य की प्राप्ति के लिये सत्यभाषण की बडी आवश्यकता है।

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10) सत्य की चेष्टा कभी व्यर्थ नहीं जाती।

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11) सत्य का सर्वश्रेष्ठ अभिनन्दन यह हैं कि हम उसको आचरण में लायें।

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12) सत्य के लिए सहना ही तप है।

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13) सत्य के सूर्य को कभी असत्य के बादल नहीं ढक सकते।

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14) सत्य परायण मनुष्य किसी से घृणा नहीं करता है।

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15) सत्य सरल और असत्य कठिन होता है।

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16) सत्य तक वे लोग पहुंचते हैं, जो सरल हैं, निश्छल हैं और शुद्ध भाव से प्रयत्न करते है।

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17) सत्य, प्रिय, मधुर, अल्प और हितकर भाषण कीजिये।

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18) सतयुग अब आयेगा कब, बहुमत जब चाहेगा तब।

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19) सत्-मार्ग के पथिक बनो।

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20) सत्कर्म की प्रेरणा देने से बढकर और कोई पुण्य हो ही नहीं सकता।

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21) सत्कर्म, सत्चर्चा, सिच्चन्तन और सत्संग- ये चार उत्तरोत्तर श्रेष्ठ साधन है।

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22) सतसंग का मतलब हैं-सत्य से गहरा सानिध्य।

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23) सन्देह में सज्जन के अन्त:करण की प्रवर्ति ही सत्य का निर्देशन करती है।

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24) दर्शन विश्वास हैं , परन्तु अनुभव नग्न सत्य है।

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प्रेम प्यार

1) मिलता हैं उसको प्रभु प्यार, जो करता हैं आत्म सुधार।
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2) हम प्यार करना सीखें,हममें,अपने आप में,अपनी आत्मा और जीवन में,परिवार में, समाज में और ईश्वर में,दसों-दिशाओं में प्रेम बिखेरना और उसकी लौटती प्रतिध्वनि का भाव-भरा अमृत पीकर धन्य हो जाना,यही जीवन की सफलता हैं।
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3) प्यार, प्यार और प्यार यही हमारा मन्त्र हैं। आत्मीयता, ममता, स्नेह और श्रद्धा यही हमारी उपासना है।
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4) सबको प्यार बॉटो, आत्मीयता दो।
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5) सत्कर्मों में डूबे रहना ही सही अर्थों में जिंदगी से प्यार करते रहना है।
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6) अधिकारों का वह हकदार, जिसको कर्तव्यों से प्यार।
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7) लोग प्यार करना सीखे। हममें, अपने आप में, अपनी आत्मा और जीवन में , परिवार में, समाज में, कर्तव्य में और ईश्वर में दसों दिशाओं में प्रेम बिखेरना और उसकी लौटती हुयी प्रतिध्वनि का भाव भरा अमृत पीकर धन्य हो जाना, यही जीवन की सफलता है।
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8) यदि पति-पत्नी के बीच प्रेम और विश्वास की प्रगाढता हैं तो परिवार में सर्वत्र प्रेम, स्नेह, श्रद्धा व सेवा की भावना बनी रहेगी।
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9) हृदय में प्रेम रहे, बुद्धि में विवेक रहे और शरीर उपकार में लगा रहे।
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10) इच्छा में सरलता और प्रेम में पवित्रता का विकास जितना अधिक होगा, उतनी ही अधिक श्रद्धा बलवान होगी। सरलता द्वारा परमात्मा की भावानुभूति होती हैं और पवित्र प्रेम के माध्यम से उसकी रसानुभूति । श्रद्धा दोनो का ही सम्मिलित स्वरुप हैं, उसमें भावना भी हैं और रस भी।
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11) मनुष्य की एक विशेशता हैं-मलिनता से घृणा और स्वच्छता से प्रेम।
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12) विपित्त तुम्हारे प्रेम की कसौटी है।
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13) विश्व प्रेम ही लोकतन्त्र हैं, अन्तर क्रान्ति महान् मन्त्र है।
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14) जिस प्रकार शरीर के क्रिया-कलाप में प्राणतत्व की महत्ता हैं, उसी प्रकार आत्मिक क्षेत्र में प्रेम-तत्त्व का आधिपत्य है।
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15) जिसमें प्रेम-भावना नहीं, वह न तो आस्तिक हैं और न ईश्वर भक्त, न भजन जानता हैं न पूजन। निष्ठुर, नीरस , निर्दय , सूखे , तीखे, स्वार्थी, संकीर्ण, कडुए, कर्कश, निन्दक प्रवृत्ति के मनुष्यों को आत्मिक दृष्टि से नास्तिक एवं अनात्मवादी ही कहा जायेगा, भले ही वे घण्टो पूजा-पाठ करते हो अथवा व्रत-उपासना, स्नान-ध्यान, तीर्थ-पूजन, कथा-कीर्तन करने में घण्टो लगाते रहे हो।
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16) जिसने प्रेम का विरह न जाना हो, जो प्रेम में रोया न हो, उसे तो प्रार्थना की तरफ इंगित भी नहीं किया जा सकता। इसलिये मैं प्रेम का पक्षपाती हूं, प्रेम का उपदेष्टा हू। कहता हूं खूब प्रेम करो। क्योकि प्रेम का निचोड एक दिन प्रार्थना बनेगा। प्रेम के हजार फूलो को निचोडोगे, तब कहीं प्रार्थना की एक बूंद, एक इत्र की बूंद बनेगा। ओशो।
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17) भगवान की भाषा प्रेम की हैं।
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18) पवित्र बनने के लिए प्रेम की ऑंख चाहिए। पुण्यवान बनने के लिए श्रद्धा की ऑंख चाहिए। प्रसन्न रहने के लिए आशा की ऑंख चाहिए। प्रभु दर्शन पाने के लिए प्रतीक्षा की ऑंख चाहिए।
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19) परमात्मा पूजा से नही, प्रेम से मिलता है।
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20) प्रेम की ही पराकाष्ठा प्रार्थना बन जाती है।
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21) प्रेम को जगाओ। और मै जानता हूँ कि तुम परमात्मा के प्रेम में एकदम नहीं पड सकते। तुमने अभी पृथ्वी का प्रेम भी नहीं जाना, तुम स्वर्ग का प्रेम कैसे जान पाओगे ? इसलिये मैं निरन्तर कह रहा हूँ कि मेरा संदेश प्रेम का हैं। पृथ्वी के प्रेम को तो जानो, तो फिर वही प्रेम तुम्हे परमात्मा के प्रेम की तरफ ले चलेगा। ओशो।।
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22) प्रेम के बिना ज्ञान बिना मल्लाह की नौका है।
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23) प्रेम में मनुष्य सब कुछ देकर भी यह सोचता हैं कि अभी कम दिया है।
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24) प्रेम में स्थिरता और दीर्घता लाने के लिए मनुष्य के पास विशाल मस्तिष्क भी होना चाहिये।
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मनुष्य

1) चिन्ताशील व्यक्ति खाली और खोखले होते हैं, तथा चिन्तनशील व्यक्ति खरे और स्वस्थ होते है।
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2) चिन्तन की उत्कृष्टता-निकृष्टता के आधार पर ही व्यक्ति देव और असुर बनता है।
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3) जिसे सीखने की भूख हैं वह प्रत्येक व्यक्ति और घटना से सीख लेता है।
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4) निखरा व्यक्तित्व अनायास ही आवश्यक साधन-सुविधा एवं सहायता दबोच लेता है।
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5) हर महान् व्यक्तित्व को प्रकृति ने आपदाओ और विषमताओं की छेनी-हथौडी से उन्हे गढा-निखारा और संवारा है।
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6) हर व्यक्ति की विशेषताओं को देखे और अपनी कमजोरियों को दूर करे।
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7) भूले वे हैं जो अपराध की श्रेणी में नहीं आती, पर व्यक्ति के विकास में बाधक है।
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8) पूर्णत: भले व्यक्ति सिर्फ दो हैं, एक वह जो मर गया और दूसरा वह जो अभी पैदा नहीं हुआ।
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9) प्राचीन समय में जब धरती का वातावरण सतयुगी था तो प्रत्येक व्यक्ति उत्कृष्ट चिन्तन और श्रेष्ठ आचरण वाला ऋषि पैदा हुआ करता था। तब उनकी जनसंख्या तैतीस करोड थी। इसी कारण कर्मकाण्डो में तैंतीस कोटि देवताओं के रुप में आज भी उनका आवाहन और स्थापन किया जाता हैं।

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10) प्रसन्नचित्त व्यक्ति अधिक जीते है।

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11) शब्द व्यक्ति की दरिद्रता को दर्शाते हैं, जबकि नि:शब्द अवस्था उसके अन्त:करण की महानता का द्योतक है।
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12) संसार में किसी भी व्यक्ति की बाहरी क्रिया को देखकर कृपया निर्णय मत करना वरना तुम उस व्यक्ति के अपराधी बन जाओगे।
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13) सद्भावना रखने वाला व्यक्ति सबसे भाग्यवान है।
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14) उत्तम व्यक्ति की यह खासियत होती हैं कि वे किसी कार्य को अधुरा नहीं छोड़ते।
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15) दूषित अन्त:करण का व्यक्ति चिन्ता की कालिमा से कलंकित रहता है।
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16) व्यक्ति की तीन तस्वीरे हैं (1)लोग उसे किस रुप में समझते हैं।(2)वह किस रुप में जीता हैं।(3)वह किस रुप में अपने आपको प्रस्तुत करता हैं। तीना चित्रों में से पहला मान्यता का हैं, दूसरा यथार्थ का हैं और तीसरा अयथार्थ का है।
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17) व्यक्ति के व्यवहार के यथार्थ कारण उसकी आंतरिक गहराइयों में छिपे होते है। व्यवहार की यदि जडें ढूंढनी हो तो निश्चित ही व्यक्ति के चरित्र एवं चिंतन की मिट्टी की परतों को खोदना होगा। चरित्र एवं चिंतन को सही ढंग से जाने बगैर व्यवहार की समग्र व्याख्या असंभव हैं।
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18) व्यक्तित्व की गरिमा आत्मिक महानता पर निर्भर है।
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19) व्यक्तित्व का प्रचार मत करो।
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20) जो व्यक्ति दूसरों का भला चाहता हैं उसने अपना भला पहले ही कर लिया।
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21) जो व्यक्ति अपने रहस्य को छिपाये रखता हैं, वह अपनी कुशलता अपने हाथ तें रखता है।
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22) अपने कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को बुधवार व शुक्रवार के अतिरिक्त अन्य दिनो में क्षौर कर्म नहीं करना चाहिए।
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23) आस्थाहीनता व्यक्ति को अपराध की ओर ले जाती है।
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24) आदमी वह ठीक हैं जिसका इरादा ठीक है।

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