बुधवार, 24 जून 2009

जीवन

1) उतावलापन जीवन को असफल बनाने वाला एक भयंकर खतरा है।
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2) व्यावहारिक जीवन की उलझनों का समाधान किन्ही नयी कल्पनाओं में ही मिलेगा, उन्हें ढूँढौ ।
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3) तृष्णा मनुष्य जीवन की सबसे नीची तह हैं, इससे नीचे कोई उतर नहीं सकता।
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4) तात्कालिक लाभ की पूर्ति में जीवन जीना कलियुग है।
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5) जब आप अपने जीवन का महत्व समझेंगे तो दूसरे भी आपको महत्व देंगे।
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6) जहॉं स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता हैं, वहीं मनुष्यता प्रारम्भ होती है।
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7) जीवन एक नाटक हैं, यदि हम इसके कथानक को समझ ले तो सदैव प्रसन्न रह सकते है।
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8) जीवन बहुमूल्य हैं, उसे निरर्थक प्रयोजनों के लिये खर्च मत करो।
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9) जीवन बहुत तथ्य जानने से नहीं, बल्कि सत्य की एक छोटी सी अनुभूतिसे ही बदल जाता है।
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10) जीवन की मंजिल पर रो-रो कर चलना पौरुष का अपमान है।
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11) जीवन की हार और जीत को भी खेल समझ कर खेले।
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12) जीवन की सबसे बडी सफलता सद्बुद्धि को प्राप्त करना है।
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13) जीवन की सभी आवश्यकताओं के लिये परमात्मा पर्याप्त है।
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14) जीवन का सच्चा सदुपयोग ही जीवन का महामन्त्र है।
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15) जीवन को नियम के अधीन कर देना आलस्य पर विजय पाना है।
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16) जीवन में दो ही व्यक्ति असफल होते हैं , एक वे जो सोचते हैं, पर करते नहीं। दूसरे वे जो करते हैं पर सोचते नहीं।
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17) जीवन में जागरुकता पैदा करना तनाव का पहला और अमूल्य वरदान है।
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18) जीवन में नींद न हो तो मनुष्य रोता-रोता मर जाए। मनुष्य के सोने से उसकी पीड़ा भी कुछ देर को सो जाती है।
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19) जीवन कितना ही बड़ा हो, पर वह समय की बरबादी से बहुत छोटा रह जाता है।
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20) जीवन संवेदना का पर्याय हैं। संवेदना के अंकुरण, प्रस्फुटन एवं अभिवर्द्धन के अनुरुप ही इसका विकास होता है। जीवन विद्या के मर्मज्ञ-नारद।
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21) जीवन संगीत संयम के साज पर बजता हैं। संयम अतियों से उबरने एवं मध्यम में ठहरने का नाम है।
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22) जीवन वृक्ष केवल प्रसन्न रहने वालों के लिए ही विकसित होता है।
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23) जीवन अवसर हैं जिसे गंवा देने पर सब कुछ हाथ से गुम हो जाता है।
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24) जीवन अन्त तक लडते रहने, प्रभावशाली युद्ध नीति और विजयी परियोजनाओं से असफलता को सफलता में बदल देने का खेल है। असफल लोग तय करले तो संघर्ष का दूसरा मौका सामने होगा।

जीवन

1) निराशा से जीवन के बहुमूल्य तत्व नष्ट हो जाते है।
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2) निराशा से जीवन के बहुमूल्य अवसर खो जाते है।
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3) निर्दोषता जीवन का आहार हैं और दोष जीवन का विकार हैं आहार लो, विकार त्याग दो। निर्दोषता ही पोषण हैं, वही जीवन है।
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4) हमारा परिधान सभी को इस बात की सूचना दे सके कि हम राजनीतिक रुप से ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक रुप से भी स्वतंत्र हैं और हमारी भारतीय जीवन मूल्यों में आस्था है।
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5) भय जीवन का सबसे बडा शत्रु है।
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6) भविष्य में जीवन खोजने वाले अपने वर्तमान से हमेशा असंतुष्ठ, असंतृप्त बने रहते है।
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7) भाग्योदय के लिए सबसे अच्छा अवसर यही हैं कि अपने जीवन की एक-एक घड़ी का ठीक उपयोग किया जाए।
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8) पडित/संत-जो शास्त्रों के पीछे दौडता हैं, वह पंडित है। और जो सत्य के पीछे दौडता है, वह संत है। पंडित शास्त्रो के पीछे दौडता है। जबकि संत के पीछे शास्त्र दौडतें हैं। शास्त्र पढकर जो बोले वह पंडित और सत्य पाकर जो बोले वह संत हैं। पंडित जीभ से बोलता है, संत जीवन से बोलता हैं, जिसका जीवन बोलने लगे, वह जीवित भगवान है।
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9) प्रमादपूर्ण जीवन संसार की सारी बुराइयों और व्यसनों का जन्मदाता है।
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10) प्रामाणिकता मानव जीवन की सबसे बडी उपलब्धि है। वह उत्तरदायित्व निबाहने, मर्यादाओ का पालन करने और कर्तव्यपालन में सतत् जागरुक रहने वालो को ही मिलती है।
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11) प्राचीन महापुरुषों की जीवन से अपरिचित रहना जीवन भर निरन्तर बाल्य अवस्था में रहना है।
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12) श्रेष्ठ स्मृतियों का बटन आपके हाथ में हो, तो जीवन आनन्दमय बन जाएगा।
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13) सयम बर्बाद मत करो क्योंकि जीवन उससे ही बना है।
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14) संसार की सर्वोत्कृष्ट विभूति सद्बुद्धि एवं सत् प्रवर्ति हैं उसे प्राप्त किये बिना किसी का जीवन सफल नहीं हो सकता है।
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15) संतुलित रहने वालों की जीवन-यात्रा सहज गति में चलती है।
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16) समय और श्रम जीवन देवता की सौपी अमूल्य अमानते है।
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17) सपने आपके जीवनदाता द्वारा आपके लिए निर्धारित किए गए लक्ष्य है।
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18) स्वावलम्बन और सहयोगात्मक उ़द्योग दोनो नागरिक जीवन की कुन्जी है।
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19) सुगन्ध के बिना पुष्प, तृप्ति के बिना प्राप्ति, ध्येय के बिना कर्म व प्रसन्नता के बिना जीवन व्यर्थ है।
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20) सत्संग जीवन का कल्प वृक्ष है।
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21) सत्तातन्त्र का भटकाव देशवासियों को राष्ट्रीय जीवन के प्रति हताशा उत्पन्न करता है।
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22) उद्योग, साहस धैर्य, बुद्धि शक्ति और पराक्रम - से छ: गुण जिस व्यक्ति के जीवन में हैं, देव उसकी सहायता करते है।
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23) उस जीवन को नष्ट करने का हमें कोई अधिकार नहीं हैं जिसको बनाने की शक्ति हममें न हो।
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24) उत्कृष्ट जीवन का स्वरुप हैं - दूसरों के प्रति नम्र और अपने प्रति कठोर।

जीवन

1) धैर्य और संतोष जीवन-नौका के वह पतवार हैं जो उसे मंजिल तक ले जाते है।
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2) यदि हमारे जीवन में सच्चाई हैं तो उसका असर अपने-आप लोगो पर पड़ेगा।
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3) यदि आस्तिकता कभी जीवन में फलित होगी तो व्यक्ति कर्तव्य पालन को सबसे पहले महत्व देगा।
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4) यहॉ वरिष्ठता की एक ही कसौटी हैं- विनम्रता, स्वयं पर अंकुश व कर्मनिष्ठ जीवनचर्या।
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5) यज्ञ हमारा तभी सफल, जब जन जीवन बने बिमल।
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6) कर्मकाण्ड और पूजा पाठ की श्रेणी में साधक तभी आता हैं, जब उसका जीवन क्रम उत्कृष्टता की दिशा में क्रमबद्ध रीति से अग्रसर हो रहा हो और क्रिया कलाप में उस रीति-नीति का समावेश हो जो आत्मवादी के साथ आवश्यक रुप से जुडे रहते है।
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7) कायर अपने जीवन काल में ही अनेक बार मरते हैं, वीर लोग केवल एक बार ही मरते है।
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8) महान् व्यक्तियों के लिऐ सम्मान और गौरव जीवन से कहीं अधिक मूल्यवान होता है।
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9) मानव जीवन का मन्थन करने पर जो अमृत निकलता हैं, उसका नाम आत्म गौरव है।
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10) मानव जीवन का परम पुरुषार्थ हैं-अपनी निकृष्ट मानसिकता से त्राण पायें।
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11) मनुष्य बुद्धिमानी का गर्व करता हैं, पर किस काम की वह बुद्धिमानी, जिससे जीवन की साधारण कला, हंस खेल कर जीने की प्रक्रिया भी हाथ न आये।
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12) मनुष्य जीवन का लक्ष्य ईश सत्ता में प्रवेश करना है।
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13) मनुष्य जीवन के समय को अमूल्य और क्षणिक समझ कर उत्तम से उत्तम काम में व्यतीत करना चाहिये। एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये।

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14) मनुष्य के सारे मोक्ष-प्राप्ति के साधन बेकार ही सिद्ध होंगे, यदि उसने जीवन में सद्गुणों का विकास नहीं किया।
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15) किसी सद्उद्धेश्य के लिये जीवन भर कठिनाइयों से जूझते रहना ही महापुरुष होना है।

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16) किसी आदर्श के लिये हंसते-हंसते जीवन का उत्सर्ग कर देना सबसे बडी बहादुरी है।
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17) किवदंतिया वे ही बनते हैं, जो जीवन के प्रत्येक क्षण से सीखने की क्षमता रखते है।
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18) विषमताओं का यदि समुचित सदुपयोग किया जा सके तो जीवात्मा पर चढें हुए जन्म-जन्मांतर के कषाय-कल्मष धुलते है। प्रवृतियॉं का परिष्कार होता हैं - आंतरिक शक्तियों में निखार आता हैं । इसलिए जीवन में विषम क्षणों के उपस्थित होने पर इनसे घबराने की बजाय इनके सदुपयोग की कला सीखनी चाहिए।
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19) विश्वास जीवन हैं, संशय मौत है।
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20) चिन्ताओं से दूर भाग्यशाली ही इस जीवन का आनन्द ले सकता है।
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21) चिन्तन बहुतों ने सिखाया हैं, पर ऐसे बहुत कम मिले, जो चिन्तन को जीवन में उतारना सिखा पाते।
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22) जिसकी दिनचर्या अस्त-व्यस्त हैं वह अपने जीवन में भी भूला-भटका रहता है।
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23) निरुद्धेश्य जीवन काट डालना लज्जा एवं कलंक भरी बात है।
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24) नियमित और संयमित जीवन, हमको देता हैं चिरयोवन।

ईश्वर

1) बुद्धिमान मनुष्य कहलाता हैं और दयावान भगवान।
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2) करने में सावधान और होने में प्रसन्न रहें। करना तो अपना हैं, पर होना भगवान् की कृपा से हैं। अनुकूलता-प्रतिकूलता दोनो में भगवान् की समान कृपा है।
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3) चिन्ता ही करनी हैं तो केवल भगवान की करों।
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4) जिस हृदय में भगवान को स्थान देना है, उसे कषाय-कल्मषो से स्वच्छ किया जाना चाहिये। इसके लिए आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण, और आत्म-विकास की चारों ही दिशा धाराओ में बढना आवश्यक है।
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5) जिसका प्रत्येक कर्म भगवान को-आदर्शों को समर्पित होता हैं, वही सबसे बडा योगी है।
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6) जिसने भगवान की शरण ली हैं, उसके पग नहीं डगमगाते।
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7) भगवान यदि आता हैं तो वह श्रेष्ठ चिन्तन के रुप में ही आता है।
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8) भगवान की समीपता के लिये शुद्ध चरित्र आवश्यक है।
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9) भगवान की दुकान प्रात: चार बजे से छ: बजे तक ही खुलती है।
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10) भगवान का होकर भगवान के नाम का जप करना चाहिये।
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11) भगवान को घट-घट का वासी और न्यायकारी मानकर पापों से हर घडी बचते रहना ही सच्ची भक्ति है।
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12) भगवान के खेत ( दुनिया ) में जो बोओगे वही तो काटोगे।
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13) भगवान के सामने सच्चे हृदय से अपने दोष स्वीकार करने से उनका परिमार्जन हो जाता है।
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14) भगवान पर विश्वास का अर्थ हैं - अपने पुरुषार्थ और उज्ज्वल भविष्य पर विश्वास करना।
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15) भगवान तभी सहायता करते हैं जब मानवीय पुरुषार्थ समाप्त हो जाते है।
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16) भगवान आदर्शों का समुच्चय है।
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17) भगवान् की वाणी गीता हैं, और भक्त की वाणी रामायण है। शिक्षा दो प्रकार से दी जाती हैं-कहकर और करके। गीता में कहकर शिक्षा दी गयी है और रामायण में करके शिक्षा दी गयी है।
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18) भगवान् के प्रत्येक विधान में प्रसन्न रहने वाले के भगवान् वश में हो जाते है।
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19) भगवान् ने सिद्ध (निषादराज), साधक (विभीषण) और संसारी (सुग्रीव)-तीनो को अपना मित्र बनाया है।
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20) भगवत्प्राप्ति के लिये मनुष्य को पात्र बनना चाहिये।
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21) संसार के लिये उपयोगी होना कर्मयोग, अपने लिये उपयोगी होना ज्ञानयोग, और भगवान के लिये उपयोगी होना भक्तियोग है।

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22) संसार में कृपालु न्याय नहीं कर सकता और न्यायकारी कृपा नहीं कर सकता। परन्तु भगवान् में न्याय और कृपा-दोनो पूरे-के-पूरे है।

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23) सबमें भगवान को देखना तथा भगवान मे सबको देखना चाहिये।
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24) सबसे बडे सौभाग्यशाली वे हैं, जिन्हे भगवान के काम में हाथ बंटाने का मौका मिला।

ईश्वर

1) व्यक्ति का अन्त:करण ईश्वर की वाणी है।
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2) वही मनुष्य ईश्वर के दर्शन कर सकता हैं, जिसका अन्त:करण निर्मल और पवित्र है।
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3) जो ईश्वर को पा लेता हैं वह मूक और शान्त हो जाता है।
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4) जो ईश्वर पर विश्वास रखतते हैं वे निजी जीवन में उदार बनकर जीते है।
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5) जो मन को अपने वश में नहीं करते, हृदय को शुद्ध नही बनाते, ईश्वर के प्रति उनकी सब प्रार्थना व्यर्थ है।
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6) जो वक्ता श्रोता को अज्ञानी समझकर बोलता हैं वह वक्ता स्वयं अज्ञानी हैं। क्योंकि यहॉं सबमें परमात्मा बैठा हैं। कौन यहॉं अज्ञानी हैं। `` ईश्वर अंस जीव अबिनासी। ´´
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7) जो वास्तविक मौन को साध लेता हैं , वह भौतिक जीवन में गम्भीर, शान्त, सम्माननीय और वजनदार प्रतीत होता हैं, और आध्यात्मिक जीवन में ईश्वरोन्मुख बनता चला जाता है।
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8) जो आलस्य और कुकर्म से जितना बचना चाहता हैं, वह ईश्वर का सबसे बडा भक्त हैं।
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9) नास्तिकता ईश्वर की अस्वीकृति को नही, आदर्शों की अवहेलना को कहते है।
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10) अपनी सभी आशाओं को ईश्वर पर केंद्रित कर दो तो कोई व्यक्ति निराश या निरस्त नहीं कर सकता ।
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11) अन्धकार में भटकों को ज्ञान का प्रकाश देना ही सच्ची ईश्वराधना है।
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12) अन्त:करण में ईश्वरीय प्रकाश जाग्रत करना ही मनुष्य जीवन का ध्येय है।
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13) ऐसे ईश्वर को खोज निकाले। जो चरित्र बन कर साथ-साथ रह सके।
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14) यह संसार एक दिव्य ईश्वरीय योजना हैं और उन्ही प्रभु की इच्छा से नियिन्त्रत है। इस सत्य की अवहेलना करने वाले व्यक्ति को ईश्वर के प्रति समर्पित होने की कला नहीं आती है। परिणामत: मन में चिन्ता, उद्वेग एवं अनेक तरह की उलझने उत्पन्न हो जाती है।
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15) ईश्वर एक हैं, उसकी इतनी आकृतियॉ। नहीं हो सकती जितनी की भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में गढी गयी हैं। उपयोग मन की एकाग्रता का अभ्यास करने तक ही सीमित रखा जाना चाहिये। प्रतिमा पूजन के पीछे आद्योपान्त प्रतिपादन इतना ही हैं कि दृश्य प्रतीक के माध्यम से अदृश्य-दर्शन और प्रतिपादन को समझने, हृदयंगम करने का प्रयत्न किया जाये।
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16) ईश्वर साधारण दिखने वाले लोगों को पसन्द करता हैं इसलिये उसने ऐसे लोग अधिक संख्या में बनाये है।
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17) ईश्वर उनकी मदद करता हैं, जो अपनी मदद आप करता है।
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18) ईसा का एक प्रेमपूर्ण वचन :- भयभीत न हो, निराश न हो, क्योंकि मैं तुम्हारा भगवान, तुम्हारा ईश्वर सदा तुम्हारे साथ हूँ । जहॉ-जहॉ भी तुम जाओगे, मैं तुम्हारे साथ रहूंगा।
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19) निराशा आम तौर पर हमारे अपने एजेण्डा की असफलता के कारण होती हैं न कि ईश्वर द्वारा हमारे लिये सोचे गये उद्धेश्यों से। निराशा से उपजे तनाव और संघर्ष हमारी आध्यात्मिक मॉस-पेशीयों को बलिष्ठ बनाते है।-लूसी शॉ
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20) अपने आपको जानना हैं, दूसरों की सेवा करना हैं और ईश्वर को मानना हैं। ये तीनो क्रमश: ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग है। साथ में योग (समता) का होना आवश्यक है।
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21) एक दूसरे को भगवान् की याद कराते रहें, भगवान् की चर्चा करते रहे। दीपक तले अंधेरा रहता हैं, पर दो दीपक आमने-सामने रख दे तो अंधेरा नहीं रहता।
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22) यदि आप भगवान के समीप जाना चाहते हों तो उसी के समान निरहंकारी बन जाओ।
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23) यह तथ्य हैं कि जिन्होने भगवान का आमन्त्रण सुना हैं, वह कभी घाटे में नहीं रहे।
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24) इन्सानी पुरुषार्थ एवं भगवान की कृपा मिलकर असंभव को सम्भव बनाती है।

ईश्वर

1) ईश्वर की सृष्टि को श्रेष्ठ, सुन्दर और समुन्नत बनाना ही उसकी आराधना हैं।
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2) ईश्वर की सर्वव्यापी दृष्टि से कोई नहीं बच सकता है।
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3) ईश्वर को मनुष्य के दुर्गुणों में सबसे अप्रिय अहंकार है।
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4) ईश्वर के घर के लगती देर, किन्तु नहीं होता अन्धेर।
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5) ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण भक्त को भी उसी जैसा बना देता है।
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6) ईश्वर विश्वास का फलितार्थ हैं-आत्मविश्वास और सदाशयता के सत्परिणामों पर भरोसा।
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7) ईश्वर भक्त अभक्त का बहीखाता नहीं रखता उसके लिये हर ईमानदार अपना और हर बेईमान शैतान की बिरादरी का है।
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8) ईश्वर से पाना और प्राणियों में बॉटना, इसी में सच्ची सम्पन्नता, समर्थता और जीवन की सच्ची सार्थकता है।
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9) ईश्वर तो हैं केवल एक, लेकिन उसके नाम अनेक।
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10) ईश्वर ने इन्सान बनाया, ऊंच नीच किसने उपजाया।
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11) ईश्वर ने जिन्हे बहुत दिया हैं, उन्हे भी देने की कला सीखनी चाहिये।
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12) ईश्वर कर्म नहीं करवाता, प्रत्युत फल भुगवाता हैं। मनुष्य कर्म स्वतन्त्रता से करता है, फल परतन्त्रता से भोगता है।
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13) जिस मनुष्य की जितनी कम आवश्यकता होती हैं, वह ईश्वर के उतने ही नजदीक होता है।
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14) जिस वक्त जो मिल जाये उसे ईश्वर की प्रसन्नता के निमित्त किया जाये तो आप आसानी से उन्नत हो जाओगे।
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15) हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को जीवन में उतारे।
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16) हमारी ईश्वर भक्ति, पूजा उपासना से आरम्भ होती हैं और प्राणिमात्र को अपनी ही आत्मा के समान अनुभव करने और अपनी ही शरीर के अंग अवयवो की तरह अपनेपन की भावना रखते हुए अनन्य श्रद्धा चरितार्थ करने तक व्यापक होती चली जाती है।
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17) भयभीत न हो, निराश न हो, क्योकि मै तुम्हारा भगवान, तुम्हारा ईश्वर सदा तुम्हारे साथ हू। जहॉं-जहॉं तुम जाओगे, मैं तुम्हारे साथ रहूंगा।
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18) श्रम ईश्वर की सबसे बडी उपासना है।
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19) सद्भावनाओ व सत् परवर्तियों से जिनका जीवन ओतप्रोत हैं, वह ईश्वर के उतना ही निकट है।
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20) सद्ज्ञान और सत्कर्म यह दो ईश्वर प्रदत्त पंख हैं जिनके सहारे स्वर्ग तक उड सकते है।
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21) सदा सर्वदा ईश्वर पर निर्भर रहना चाहिये। इससे धीरता, वीरता, गभ्भीरता, निर्भयता और आत्मबल की वृद्धि होती है।
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22) सर्वप्रथम स्वयं पर विश्वास रखों फिर ईश्वर में।
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23) उपासना सच्ची तभी हैं, जब जीवन में ईश्वर घुल जाये।
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24) उस ईश्वर को पूजो, जिसे तुम जेब में रख सको या जिसकी जेब में रह सको। इसे तलाशते मन फिरो, जो सातवे आसमान पर रहता हैं और एक ही भाषा की वर्णमाला पढा है।

गुण

1) एक मूर्ख ताकत को सद्गुण, दृढता को सच्चाई, बदले को इन्साफ और इन्सानियत को कमजोरी समझता है।
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2) धन उन्ही के पास ठहरता हैं, जो सद्गुणी है।
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3) खोजे परगुण अपने दोष, सीमित साधन में सन्तोष।
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4) कष्ट और विपित्त मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण है।
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5) महानता एवं मानवता का गुण न तो किसी के लियें सुरक्षित हैं और न किसी के लिये प्रतिबंधित। जो चाहे अपनी शुभेच्छाओ से उसे प्राप्त कर सकता है।
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6) मनुष्य अपने गुणों से आगे बढ़ता हैं न कि दूसरों की कृपा से।
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7) सि्नग्ध पुष्प के समान विकसित होने वाले अनेक सद्गुण भय की एक ठेस पाकर क्षत-विक्षत हो जाते है।
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8) विपत्ति में धीरज, संपत्ति में क्षमा, सभा में वाक्य चातुरी, युद्ध में पराक्रम, यश में प्रेम और शास्त्रों में लगन-ये सद्गुण महात्माओं में स्वाभाविक होते है।
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9) जिज्ञासा तेज बुद्धि का एक स्थायी और निश्चित गुण है।
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10) जिस गुण को आप अपने में लाना चाहते हैं, उस गुण वाले का संग करो। यह बहुत बढ़िया उपाय है।
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11) जिसने बेच दिया ईमान, करों नहीं उसका गुणगान।
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12) जिन आन्तरिक सद्गुणो के आधार पर कोई जाति महान बन सकती हैं ,उन्हे विकसित करने वाला आध्यात्मवाद आज उपेक्षा के गर्त में पडा हैं। उसे अग्रगामी बनाकर ही मानवता का वास्तविक रुप देखा जा सकता है।
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13) जिनकी तुम प्रशंसा करते हो, उनके गुणों को अपनाओ और स्वयं भी प्रशंसा के योग्य बनो।
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14) पक्षपात से गुण दोष में और दोष गुण में बदल जाते है।
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15) पर दोष दर्शन एवं अपने गुण दर्शन का त्याग करना चाहिये।
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16) प्रसन्नता सब सद्गुणों की जननी है।
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17) संवेदनशीलता जहॉं कहीं भी हैं, वहॉं अपने आप सद्गुणों की कतार खडी हो जायेगी। इसके विपरीत निष्ठुरता जहॉं हैं, वहॉं दुर्गुणो की लाइन लगते देर न लगेगी ।
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18) सारे पुण्यो और सद्गुणो की जड सत्य है।
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19) सद्गुण साधक को साधने के पथ पर लगाता है।
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20) सद्गुणो का संग्रह सच्ची कमाई है।
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21) स्व-मूल्यांकन की एक ही कसौटी सद्गुणों का विकास।
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22) स्वयं के सत्वगुणों की अति न्यूनता के कारण हमें दूसरों के गुण भी नहीं दिखाई देते है।
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23) स्वार्थ नहीं परमार्थ महान्, वंश नहीं गुण कर्म प्रधान।
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24) सच्चाई, ईमानदारी, सज्जनता और सौजन्य जैसे गुणों के बिना कोई मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता।

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ज्ञान

1) ज्ञानी वह हैं जो वर्तमान को ठीक से पढ सके और परिस्थिति के अनुसार चल सके।
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2) सन्मार्ग पर देर तक टिके रहना ज्ञान से ही सम्भव है।
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3) उपलब्धियॉं इस संसार में भरी पडी हैं, पर उन्हे प्राप्त करने के लिये ज्ञान, चरित्र एवं साहस चाहिये।
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4) दूसरो के लिये करना कर्मयोग हैं, अपने को जानना ज्ञानयोग हैं और परमात्मा को मानना भक्तियोग है।
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5) वेद, ज्ञान, उत्तम कुल पाया, फिर भी रावण असुर कहाया।
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6) तप का सुफल ज्ञान है।
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7) जो अपने को सबसे बडा ज्ञानी समझता हैं वह सामान्यत: सबसे बडा मूर्ख होता है।
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8) आत्म ज्ञान का सूर्य प्राय: वासना और तृष्णा की चोटियों के पीछे छिपा रहता हैं, पर जब कभी, जहॉं कहीं वह उदय होगा, वहीं उसकी सुनहरी रिश्मयां एक दिव्य हलचल उत्पन्न करती हुई अवश्य दिखाई देगी।
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9) अनुभवजन्य ज्ञान ही सत्य है।
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10) अल्प ज्ञान वाला महान् अहंकारी होता है।
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11) मन के हाथी को विवेक के अंकुश में रखो।
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12) मनुष्य का स्वविवेक ही सबसे बडा मार्गदर्शक है।
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13) मनुष्य शरीर की महिमा वास्तव में विवेकशक्ति के सदुपयोग की महिमा है।
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14) बिना विपित्त की ठोकर लगे, विवेक की ऑख नहीं खुलती।
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15) विवेक की जाग्रति न होने का कारण उसका आदर नहीं करना, महत्व नहीं देना है।
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16) विवेक का आदर तथा बल का सदुपयोग करना चाहिये।
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17) विवेक को कुंठित करने वाले दोषो से बचकर चलना चाहिये।
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18) विवेक शक्ति मनुष्य का गुंरु है।
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19) विवेक शक्ति का नाम मानव शरीर है।
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20) भूल सुधार मनुष्य का सबसे बडा विवेक है।
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21) परम्पराओ की तुलना में विवेक को महत्व दीजिये।
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22) सतत् आत्मनिरीक्षण अर्थात प्राप्त विवेक के प्रकाश में अपने दोषों को देखना चाहिये।
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23) सलाह सबकी सुनो पर करो वही जिसके लिये तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे।
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24) दुष्प्रवृतियों , कुरीतिया, मूढ-मान्यतायें विवेक की उपेक्षा करने से ही पनपती है। विवेक रुपी नेत्र के जाग्रत होते ही इनके मिटने में देर नहीं लगती है।

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