गुरुवार, 28 मई 2009

यदि दु:ख के बाद सुख न आता तो उसे कौन सहता...

1) ऐ जिन्दगी ! दु:खी लोगो के लिये तू एक युग हैं, सुखी लोगो के लिये एक क्षण।
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2) यदि दु:ख के बाद सुख न आता तो उसे कौन सहता।
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3) यह नियम हैं कि दु:खी आदमी ही दूसरे को दु:ख देता है।
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4) इस विश्व में किसी दु:खी मानव के लिये थोडी सी सहायता ढेरों उपदेश से कहीं अच्छी है।
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5) इच्छा से दु:ख आता हैं, इच्छा से भय आता हैं, जो इच्छाओं से मुक्त हैं वह न दु:ख जानता हैं न भय।
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6) बीज मन्त्र :- सम्मान दे, सलाह लें। सुख बॉटे, दु:ख बंटाये
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7) बुरे स्वभाव वाला मनुष्य जिस योनि में जायेगा, वहीं दु:ख पायेगा। मरने पर स्वभाव साथ में जाता है।
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8) कहा जाता हैं कि जीवन में दु:खो से संघर्ष करने के लिये साहस चाहिये। वास्तविकता यह हैं कि साहसी व्यक्ति तक दु:ख पहुंचता ही नहीं।
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9) कोई वस्तु दुखमय हैं न सुखमय। सुख-दु:ख तो मन के विकार है।
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10) मेरी तो बस एक ही प्रार्थना हैं, सभी प्राणियों का हृदय स्थिर रहें और मैं सब दु:खों को सहन करुं।
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11) मनुष्य जिस-जिस कामना को छोड देता हैं, उस-उस ओर से सुखी हो जाता हैं। कामना के वशीभूत होकर तो वह सर्वदा दु:ख ही पाता है।
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12) जिसे कभी दु:ख अनुभव नहीं हुआ , वह सुख अनुभव नहीं कर सकता।
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13) निष्फलता, निराशा, निर्धनता, निरुत्साह सब दु:खानुभूति की ही संताने है।
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14) निद्रा भी कैसी प्यारी वस्तु है घोर दु:ख के समय भी मनुष्य को यही सुख देती है।
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15) हमारी मानसिक अशान्ति, उद्विग्नता, क्षोभ, नैराश्य, क्लेश और दु:खादि के मूल में हैं हमारे द्वारा लोकहित का बाधित होना।
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16) भगवान् की कृपा को देखो, सुख-दु:ख को मत देखो। माता कुन्ती ने विपित्त का वरदान मॉगा था।
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17) परपीडा से छलक उठे मन, 
यह छलकन ही गंगाजल है। 
दु:ख हरने को पुलक उठे मन, 
यह पुलकन ही तुलसीदल हैं।।
जो अभाव में भाव भर सके, 
वाणी से रसदार झर सके। 
जनहिताय अर्पित जो जीवन, यह अर्पण ही आराधन है।
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18) पाप का निश्चित परिणाम दु:ख है।
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19) श्रम का अर्थ हैं-आनन्द और अर्कमण्यता का अर्थ हैं-दु:ख।
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20) शान्त तथा पवित्र आत्मा में क्लेश, भय, दु:ख, शंका का स्पर्श कैसे हो सकता है।
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21) संसार से सुख चाहने वाला दु:ख से कभी बच सकता ही नही।
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22) सच्चे मित्र के सामने दु:ख आधा और खुशी दोगुनी हो जाती है।
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23) सुख ऊपर पत्थर पडो, जो राम हृदय से जाय। बलिहारी वा दु:ख की जो हर पल राम रटाय। कबीरदासजी।
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24) सुख को भोगना दु:ख को निमन्त्रण देना है।

स्वर्गीय हनुमान प्रसाद पोद्दार

धर्म और अध्यात्म के बल पर जीवन का विकास कितना सहज हो सकता है- स्वर्गीय हनुमान प्रसाद पोद्दार ने स्वयं को इसके एक उदाहरण के रुप में प्रस्तुत किया । स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद ने गीता के आधार पर जीवन जीकर, उच्च जीवनमूल्यों का प्रतिपादन किया किया था। गीता एक अर्थ में राष्ट्रीय पुनर्जागरण की प्रेरणा ग्रन्थ बन गई थी । भाई जी (इसी नाम से पोद्दार जी विख्यात हुए ) ने, इसी महत्ता को देख `साहित्य सम्वार्धिनी समिति´ की स्थापना की और नई सजधज के साथ भारतमाता के चित्र सहित , गीता का प्रकाशन किया । बाद में धर्मप्रेमी , सद्गृहस्थ विद्वान श्री जयदयाल गोयंदका जी के संपर्क में आने से, उनकी गीता निष्ठा बढती गई । दोनो महानुभावो ने गीताप्रेस की स्थापना की । इस बीच उन पर ब्रिटिश सरकार के मुकदमे भी चले । उनके घर की देख-भाल जयदयाल आदि करते । जेल से छूटने पर उनने `कल्याण´ पत्रिका का प्रवर्तन किया । गोरखपुर आकर बसे भाईजी का सारा जीवन धर्मप्रचार , समाजसुधार में लग गया । एक सद्गृहस्थ संत के रुप में उनका जीवन बीता । गीताप्रेस गोरखपुर ने विचार-क्रांति की वह जन-जन में गहरी पैठ कर गई । धन्य हैं भाईजी ! जिनका सारा जीवन अध्यात्म मार्ग के पथिक की तरह बीता ।

Orison Swett Marden

1- No man fails who does his best.
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2- A good system shortens the road to the goal.
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3- A will finds a way.
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4- All men who have achieved great things have been great dreamers.
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5- Be larger than your task.
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6- It is what we do easily and what we like to do that we do well.
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7- No one has a corner on success. It is his who pays the price.
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8- Our thoughts and imagination are the only real limits to our possibilities.
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9- Power gravitates to the man who knows how.
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10- The Creator has not given you a longing to do that which you have no ability to do.
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11- The influential man is the successful man, whether he be rich or poor.
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12- The waste of life occasioned by trying to do too many things at once is appalling.
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13- There is no medicine like hope, no incentive so great, and no tonic so powerful as expectation of something tomorrow.
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14- There is no stimulus like that which comes from the consciousness of knowing that others believe in us.
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15- We advance on our journey only when we face our goal, when we are confident and believe we are going to win out.
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16- We fail to see that we can control our destiny; make ourselves do whatever is possible; make ourselves become whatever we long to be.
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17- We make the world we live in and shape our own environment.
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18- We must give more in order to get more. It is the generous giving of ourselves that produces the generous harvest.
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19- What power can poverty have over a home where loving hearts are beating with a consciousness of untold riches of the head and heart?
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20- Wisdom is knowledge which has become a part of one's being.
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21- You cannot measure a man by his failures. You must know what use he makes of them. What did they mean to him. What did he get out of them.
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22- You have not found your place until all your faculties are roused, and your whole nature consents and approves of the work you are doing.
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23- You will never succeed while smarting under the drudgery of your occupation, if you are constantly haunted with the idea that you could succeed better in something else.
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24- Your expectations opens or closes the doors of your supply, If you expect grand things, and work honestly for them, they will come to you, your supply will correspond with your expectation.
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                                         आप भी हमारे सहयोगी बने।

साहित्य सम्राट प्रेमचंद जी

प्रेमचंद जी को साहित्य सम्राट बनाने का श्रेय उनकी माँ को ही जाता है । लोक-जीवन से जुड़े, उनकी माँ के किस्से कहानियाँ कितने लंबे हाते थे कि सुनते-सुनाते खत्म ही नहीं होते । बहुत प्रखर बुद्धि और कई भाषाओं की जानकार थीं वे। पढ तो सब लेती थीं, पर एक भी अक्षर लिख नही पाती थी । प्रेमचद जी की कहानियाँ-उपन्यासों में जो सहज पात्र, स्वाभाविक घटनाक्रम, आदर्शोन्मुखी और भारतीय जनजीवन का सजीव चित्रांकन हुआ है, बहुत कुछ उनकी माता की ही देन था। वे अपनी कहानियों से श्रोताओं को इस तरह बाँधे रखती थी कि वे तन्मय होकर रह जाते । प्रेमचंद जी ने अपनी माँ से कथा-कहानियाँ, लोक-जीवन के चरित्रों के बारे मे सुनकर अपने आप को गढा, तभी वे एक विशिष्ट व्यक्ति बन सके । माँ ने बेटे को बनाया, ऐसे उदाहरणो से हमारा इतिहास भरा पडा है।

महात्मा हुसैन

हुसैन का कहना है कि उसे तीन बार विशेष रुप से लज्जित होना पड़ा। इनमें पहली घटना एक शराबी की है । वह एक दिन शराब के नशे में पैर इधर-उधर पटकता जा रहा था और कभी-कभी कीचड़ में गिर भी जाता था। हुसैन भी वहीं होकर जा रहा था। 

उसने कहा- ``अरे भाई ! पैर ठिकाने रखकर चलो , नही तो कीचड़ में गिर जाओगे।´´ यह सुनकर शराबी ने कहा-``अरे भले आदमी ! तू ही अपने पैरों को सँभालकर रख, क्योकि तू एक धार्मिक पुरुष है। मै तो शराबी हूँ, अगर गिर जाऊँगा तो तो फिर उठ बैठूँगा और पानी से शरीर को धो डालूँगा, पर यदि तू गिर जाएगा तो फिर सहज में स्वच्छ न बन सकेगा।´´

दूसरी घटना मे एक बालक दीपक लेकर आ रहा था। हुसैन ने पुछा- `` यह दीपक कहाँ से लाया ? ´´उसी समय संयोगवश हवा के झोंके से दीपक बुझ गया । उस बालक ने कहा-``पहले तो यह बतलाओ कि दीपक गया कहाँ ? फिर मै तुमको बतलाऊँगा कि दीपक कहाँ से आया था। ´´

तीसरी घटना एक रुप-यौवन संपन्न युवती की है । उसने हुसैन बाबा के पास आकर क्रोधपूर्वक अपने पति के निर्मोहीपन की शिकायत की ।

हुसैन ने कहा-´´बेटी! पहले तू अपने माथे के वस्त्र को ठीक कर जो हट गया है, फिर जो कुछ कहना हो सो कहना ।´´ यह सुनकर उस युवती ने कहा-`` अरे भाई ! मैं तो ईश्वर के बनाए एक पदार्थ के प्रेम में मुग्ध होकर बेखबर हो गई थी, मुझे अपने शरीर का भी होश न था। अगर तुमने सावधान न किया होता तो मैं ऐसी ही हालत में बाजार में चली जाती, पर प्रभु के ध्यान में मस्त होने पर भी `माथा उघाडा है या ढका´ है ऐसी साधारण बात का तुम्हे ध्यान बना रहता है, यह देखकर मुझे तो आश्चर्य होता है । ´´

महात्मा हुसैन का कहना है कि इन शब्दों को सुनकर मैं वास्तव में सावधान हो गया ।


बंदा वैरागी

सत्रहवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, काश्मीर के डोगरा राजपूत परिवार में जन्मे लक्ष्मण देव (बाद में बंदा वैरागी) शुरु से ही देश, धर्म और स्वाभिमान की रक्षा के लिए, अत्याचारी मुगल शासको का अंत करने की बात कहते थे। एक दिन शिकार के दोरान गर्भवती हिरनी उनके हाथों गलती से मार दी गई , गर्भ से दो बच्चे छिटककर गिरे तो उन्होने तुरंन्त वैराग्य ले लिया । 16 वर्ष लक्ष्मण देव नासिक के पास पंचवटी में जाकर तप करने लगे । पन्द्रह वर्ष के दौरान उनकी ख्याति वैरागी के रुप में, उस क्षेत्र में हो गई । इससे घबराकर वैरागी दक्षिणी पंजाब चले गए । गुरु गोविंद सिंह ने उन्हें राष्ट्रधर्म के लिए आगे आने को प्रेरित किया । गुरु के बंदे वे बने , इसलिए बंदा वैरागी कहलाए । एक हुक्मनामा और 25 शिष्य (सिख) लेकर खालसा दल उनने बनाया। प्रखर निष्ठा एंव देशभक्ति की भावना से भरे सैनिकों की एक अच्छी फौज तैयार हो गई । सरहिंद के नवाब ने गुरु साहब के पुत्रों को जिंदा दीवार में चिनवा दिया था। उसी नवाब वजीर खाँ पर आक्रमण कर उनने सरहिंद जीत लिया । अपने राज्य में उनने गुरु गोविंद सिंह के नाम के सिक्के चलवाए । यवन शासको ने उनका बड़ा बर्बर अंत किया, पर उनके मुख से उफ तक न निकली । शरीर छोड़ दिया , पर धर्म नहीं बदला ।

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