सोमवार, 30 नवंबर 2009

क्या करें, क्या न करें ? - 2

1. मल त्याग करते समय जोर-जोर से साँस नहीं लेनी चाहिये। (ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्म. 26/26)
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2. किसी जलाशय से बारह अथवा सोलह हाथ दूरी पर मूत्र-त्याग ओर उससे चार गुणा अधिक दूरी पर मल-त्याग करना चाहिये। (धर्मसिंधु 3 पू.आहिन्क)

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3. वृक्ष की छाया में मल-मूत्र का त्याग न करें। परन्तु अपनी छाया भूमि पर पड़ रही हो तो उसमें मूत्र-त्याग कर सकते हैं। (आपस्तम्बधर्मसूत्र 1/11/30/16-17)

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4. मल-मूत्र का त्याग करते समय ग्रहों, नक्षत्रों, चारों दिशाओं, सूर्य, चन्द्र और आकाश की ओर नहीं देखना चाहिये। अपने मल-मूत्र की ओर भी नहीं देखना चाहिये। (देवीभागवत 11/2/15, कूर्मपुराण उ.13/42)

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5. पेड़ की छाया में, कुएँ के पास, नदी या जलाशय में अथवा उनके तट पर, गौशाला में, जोते हुए खेत में, हरी-भरी घास में, पुराने (टूटे-फूटे) देवालय में, चौराहे में, श्मशान में, गोबर पर, जल के भीतर, मार्ग पर, वृक्ष की जड़ के पास, लोगों के घरों के आस-पास, खम्भे के पास, पुल पर, खेल-कूद के मैदान में, मंच (मचान) के नीचे, भस्म (राख) पर, देव मंदिर में या उसके पास, अग्नि या उसके निकट, पर्वत की चोटी पर, बाँबीपर, गड्ढे में, भूसी में, कपाल (ठीकरे या खप्पर) में, बिल में, अंगार (कोयले) पर, और लकड़ी पर मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिये। (ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्म. 26/19-24, गरूड़पुराण, आचार. 96/38)

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6. अग्नि, सूर्य, गौ, ब्राह्मण, गुरू, स्त्री, चन्द्रमा, आती हुई वायु, जल और देवालय-इनकी ओर मुख करके (इनके सम्मुख) मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिये। 

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7. जो स्त्री-पुरूष सूर्य, या वायु की ओर मुख करके पेशाब करते हैं, उनकी गर्भ में आयी हुई सन्तान गिर जाती है। (महाभारत, अनु. 125/64-65)

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8. सामने देवताओं का और दाहिने पितरों का निवास रहता हैं, अत: मुख नीचे करके कुल्ले को अपनी बायीं ओर ही फेंकना चाहिये। (व्याघ्रपादस्मृति 200)

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9. दूधवाले तथा काँटेवाले वृक्ष दातुन के लिये पवित्र माने गये हैं। (लघुहारितस्मृति 4/9)

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10. अपामार्ग, बेल, आक, नीम, खैर, गूलर, करंज, अर्जुन, आम, साल, महुआ, कदम्ब, बेर, कनेर, बबूल आदि वृक्षों की दातुन करनी चाहिये। परन्तु पलाश, लिसोड़ा, कपास, धव, कुश, काश, कचनार, तेंदू, शमी, रीठा, बहेड़ा,सहिजन, सेमल आदि वृक्षों की दातुन नहीं करनी चाहिये। (विश्वामित्रस्मृति 1/61-63)

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11. कशाय, तिक्त अथवा कटु रसवाली दातुन आरोग्यकारक होती हैं। (वृद्धहारीतस्मृति 4/24)

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12. महुआ की दातुन से पुत्रलाभ होता हैं। आक की दातुन से नेत्रों को सुख मिलता हैं। बेर की दातुन से प्रवचन की शक्ति प्राप्त होती हैं। बृहती (भटकटैया) की दातुन करने से मनुष्य दुष्टों पर विजय पाता हैं। बेल और खेर की दातुन से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती हैं। कदम्ब से रोगों का नाश होता हैं। अतिमुक्तक (कुन्द का एक भेद) से धन का लाभ होता हैं। आटरूशक (अड़ूसा) की दातुन से सर्वत्र गौरव की प्राप्ति होती हैं। जाती (चमेली) की दातुन से जाति में प्रधानता होती हैं। पीपल यश देता हैं। िशरीश की दातुन से सब प्रकार की सम्पत्ति प्राप्त होती हैं। (स्कन्दपुराण, प्रभास. 17/8-12)

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13. कोरी अंगुली से अथवा तर्जनी अंगुली से कभी दातुन नहीं करना चाहिये। कोयला, बालुका, भस्म (राख) नाख़ून, ईंट, ढेला और पत्थर से दातुन नहीं करना चाहिये। ( स्कन्दपुराण, प्रभास. 17/19)

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14. दातुन कनिश्ठका अंगुली के अग्रभाग के समान मोटी, सीधी तथा बारह अंगुल लम्बी होनी चाहिये। (वसिश्ठस्मृति-2, 6/18)

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15. दन्तधावन करने से पहले दातुन को जल से धो लेना चाहिये। दातुन करने के बाद भी उसे पुन: धोकर तथा तोड़कर पवित्र स्थान में फेंक देना चाहिये। (गरूड़पुराण, आचार. 205/50)

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16. सदा पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके दन्तधावन करना चाहिये। पश्चिम और दक्षिण की ओर मुख करके दन्तधावन नहीं करना चाहिये। (पद्मपुराण, सृिश्ट 51/125)
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17. प्रतिपदा, षष्टि , अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या के दिन शरीर पर तेल नहीं लगाना चाहिये। (ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्री कृष्ण 75/60)

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18. सिर पर लगाने से बचे हुए तेल को शरीर पर नहीं लगाना चाहिये। (कूर्मपुराण, उ.16/58)

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19. यदि नदी में स्नान कर रहे हो तो जिस ओर से उसकी धारा आती हो, उसी ओर मुँह करके तथा दूसरे जलाशयों में सूर्य की ओर मुँह करके स्नान करना चाहिये। (महाभारत, आश्व.92)

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20. बिना शरीर की थकावट दूर किये और बिना मुख धोये स्नान नहीं करना चाहिये। (चरकसंहिता, सूत्र. 8/11)

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21. सूर्य की धूप से सन्तप्त व्यक्ति यदि तुरन्त (बिना विश्राम किये) स्नान करता हैं तो उसकी दृष्टि मन्द पड़ जाती हैं और सिर में पीड़ा होती हैं। (नीतिवाक्यामृत 25/28)

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22. नग्न होकर कभी स्नान नहीं करना चाहिये। (मनुस्मृति 4/45)
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23. पुरूष को नित्य सिर के ऊपर से स्नान करना चाहिये। सिर को छोड़कर स्नान नहीं करना चाहिये। सिर के ऊपर से स्नान करके ही देवकार्य तथा पितृकार्य करने चाहिये। (वामनपुराण 14/53)

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

काम छोटा पर हृदय नहीं

इंग्लेंड की कॉमन सभा में वाद-विवाद चल रहा था। एक सदस्य ने अपने विरोधी से कहा, ``महाशय ! उन दिनों को भूल गये, जब आप जूतों पर पॉलिश किया करते थे।´´ उस सदस्य ने गम्भीरता पूर्वक उत्तर दिया,-``महोदय ! मेरा काम छोटा रहा हैं, हृदय नहीं। मेरी पॉलिश भी ईमानदारी के साथ ही की जाती थी, किसी को असंतुष्ट नहीं किया।´´ विरोधी सदस्य इस नम्रतापूर्वक उत्तर से बड़े लज्जित हुए और अनुभव किया कि श्रेष्टता का आधार उच्चाधिकार नहीं वरन् सदाचार हैं। 

नारियों का साहस

बात स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों की हैं, क्रांग्रेस ने देशवासियों से गांधी दिवस मनाने और तिलक स्वराज फण्ड के लिए चंदा जमा करने की अपील की। लाहौर में पुलिस का कड़ा प्रबंध था, अत: कोई व्यक्ति जब हिम्मत न कर सका, तब वहाँ महिलाओं ने सभा की, भाषण दिए, खद्धर बेचा और चंदा इकट्ठा किया, यह देखकर सारा लाहौर गांधी दिवस मनाने उमड़ पड़ा।

उम्र बढ़ी तो काम बढ़ा

प्रेसीडेंट लिंकन के एक मित्र ने कहा-``आप काफी वृद्ध हो गए हैं, अब काम के घंटे कुछ कम कर देना चाहिए।´´

लिंकन हँसे और बोले-``श्रीमान् जी ! इस परिपक्व अवस्था से बढ़िया काम करने का और कौन-सा समय होगा।´´ यह कहकर उन्होंने अपने सेक्रेटरी से कहकर काम के घंटों में 1 घण्टे की और वृद्धि कर दी।

ईश्वर नही तो उसकी स्रष्टि को पूजो

एक बार साधु ने आकर गांधीजी से पूछा-``हम ईश्वर को पहचानते नहीं, फिर उसकी सेवा किस प्रकार कर सकते हैं ?´´ गांधीजी ने उत्तर दिया-``ईश्वर को नहीं पहचानते तो क्या हुआ,, इसकी स्रष्टि को तो जानते हैं। ईश्वर की स्रष्टि की सेवा ही ईश्वर की सेवा हैं।´´

साधु की शंका का समाधान न हुआ, वह बोला-``ईश्वर की तो बहुत बड़ी स्रष्टि हैं, इस सबकी सेवा हम एक साथ कैसे कर सकते हैं ?´´ ईश्वर की स्रष्टि के जिस भाग से हम भली-भाँति परिचित हैं और हमारे अधिक निकट हैं, उसकी सेवा तो कर सकते हैं। हम सेवा कार्य अपने पड़ौसी से प्रारंभ करे। अपने आँगन को साफ करते समय यह भी ध्यान रखें कि पड़ौसी का भी आँगन साफ रहे। यदि इतना कर लें तो वही बहुत हैं।´´ गांधी जी ने गंभीरतापूर्वक समझाया। साधु उससे बहुत प्रभावित हुए।

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

सच्चे अतिथि

महाराष्ट्र के संत श्री एकनाथ जी को छह मसखरे युवक सदा तंग किया करते थे। एक बार एक भूखा ब्राह्मण उस गांव में आया और भोजन की याचना की। गांव के उन्ही दुष्ट जनो ने उससे कहा कि ``यदि तुम संत एकनाथ को क्रोधित कर दो तो हम तुम्हे 200 रूपये देगे। हम तो हार चुके शरारत कर-करके, पर उन्हें क्रोध आता ही नहीं।´´ दरिद्र ब्राह्मण भला कब मौका चूकने वाला था। फौरन उनके घर गया, वहाँ वे न मिले तो मंदिर में जा पहुँचा, जहाँ वे ध्यान मग्न बैठे थे। वह जाकर उनके कंधे पर चढ़ कर बैठ गया। संत ने नेत्र खोले और शांत मुद्रा में बोले-``ब्राह्मण देवता ! अतिथि तो मेरे यहाँ नित्य ही आते हैं, किन्तु आप जैसा स्नेह आज तक किसी ने नहीं जताया, अब तो मैं आपको बिना भोजन किये नहीं जाने दूंगा।

मैं तो बापू का चपरासी हूं।

बिहार के चम्पारन जिले में महात्मा गांधी का शिविर लगा था। किसानों पर होने वाले सरकारी अत्याचारों की जाँच चल रही थी। हजारों की तादाद में किसान आ-आकर बापू से अपने दुख निवेदन कर रहे थे। उस समय उस जाँच आन्दोलन में कृपलानी जी का बड़ा प्रमुख सहयोग था। 

वे गांधी जी के केम्प सेक्रेटरी के रूप में काम कर रहे थे। इसलिये जिला अधिकारियों की आँख की किरकिरी बने हुए थे।

डाक ले जाने का काम कृपलानी जी ही करते थे। एक बार कलक्टर ने पूछा, आप ही तो वह प्रोफेसर कृपलानी हैं जो इस सब हलचल के प्रमुख हैं। फिर आप यह डाक का काम क्यों करते है. 

कृपलानी जी ने उत्तर दिया - ``मैं तो एक साधारण कार्यकर्ता और बापू का चपरासी हूं।´´ कृपलानी जी का उत्तर सुनकर कलक्टर ने महात्मा गांधी की महानता को समझा और आन्दोलन की गरिमा का अन्दाज लगा लिया।

रविवार, 22 नवंबर 2009

क्या करें, क्या न करें ? - 1

1. दो घटी अर्थात् अड़तालिस मिनट का एक मुहूर्त होता हैं। प्रन्द्रह मुहूर्त का एक दिन और पंद्रह मुहूर्त की एक रात होती हैं। सूर्योदय से तीन मुहूर्त का `प्रात:काल´, फिर तीन मुहूर्त का `संगवकाल´, फिर तीन मुहूर्त का मध्यान्ह काल´, फिर तीन मुहूर्त का `अपरान्हकाल´ और उसके बाद तीन मुहूर्त का `सायंकाल´ होता हैं। (विष्णुपुराण 2/8/61-64)
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2. ऋषियों ने प्रतिदिन सन्ध्योपासन करने से ही दीर्घ आयु प्राप्त की थी। इसलिए सदा मौन रहकर द्विजमात्र को प्रतिदिन तीन समय सन्ध्या करनी चाहिये। प्रात:काल की सन्ध्या ताराओं के रहते-रहते, मध्यान्ह की सन्ध्या सूर्य के मध्य-आकाश में रहने पर और सांयकाल की सन्ध्या सूर्य के पश्चिम दिशा में चले जाने पर करनी चाहिये। (महाभारत, अनु. 104/18-19)

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3. दोनों सन्ध्याओं तथा मध्यान्ह के समय शयन, अध्ययन, स्नान, उबटन लगाना, भोजन और यात्रा नहीं करनी चाहिये। (पद्मपुराण, स्वर्ग 55/71-72)

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4. रात में दही खाना, दिन में तथा दोनों सन्ध्याओं के समय सोना और रजस्वला स्त्री के साथ समागम करना-ये नरक की प्राप्ति के कारण हैं। (ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्म. 27/40)

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5. अत्यन्त सबेरे, अधिक साँझ हो जाने पर और ठीक मध्यान्ह के समय कही बाहर नहीं जाना चाहिये। (मनुस्मृति 4/140)

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6. रात्रि मे पेड़ के नीचे नहीं रहना चाहिये। (मनुस्मृति 4/73)

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7. अमावस्या के दिन जो वृक्ष, लता आदि को काटता हैं अथवा उसका एक पत्ता भी तोड़ता हैं, उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता हैं। (विष्णुपुराण 2/12/10)

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8. सन्ध्याकाल में भोजन, स्त्रीसंग, निद्रा तथा स्वाध्याय-इन चारों कर्मों को नहीं करना चाहिये। कारण कि भोजन करने से व्याधि होती हैं, स्त्रीसंग करने से क्रूर सन्तान उत्पन्न होती हैं, निद्रा से लक्ष्मी का ह्रास होता हैं और स्वाध्याय करने से आयु का नाश होता हैं। (यमस्मृति 76-77)

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9. पूर्व की तरफ सिर करके सोने से विद्या प्राप्त होती हैं। दक्षिण की तरफ सिर करके सोने से धन तथा आयु की वृद्धि होती हैं। पश्चिम की तरफ सिर करके से प्रबल चिन्ता होती हैं। उत्तर की तरफ सिर करके सोने से हानि तथा मृत्यु होती हैं अर्थात् आयु क्षीण होती हैं। (भगवंतभास्कर, आचारमयुख)

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10. टूटी खाट पर नहीं सोना चाहिये। (महाभारत, अनु. 104/49)

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11. सिर को नीचा करके नहीं सोना चाहिये। (सुश्रुतसंहिता, चिकित्सा 24/98)

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12. जूठे मुँह नहीं सोना चाहिये। (महाभारत, अनु. 104/67)

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13. नग्न होकर नहीं सोना चाहिये। (मनुस्मृति 4/75)

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14. भीगे पैर नहीं सोना चाहिये। सूखे पैर सोने से लक्ष्मी प्राप्त होती हैं। (मनुस्मृति 4/76)

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15. निद्रा के समय मुख से ताम्बुल, शय्या से स्त्री, ललाट से तिलक और सिर से पुष्प का त्याग कर देना चाहिये। (धर्मसिंधु 3 पू.क्षुद्रकाल)

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16. रात्रि में पगड़ी बाँध कर नहीं सोना चाहिये। (विष्णु धर्मोत्तर . 2/89/24)

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17. दिन में कभी नहीं सोना चाहिये। रात के पहल और पिछले भाग में भी नींद नहीं लेनी चाहिये। रात के प्रथम और चतुर्थ पहर को छोड़कर दूसरे और तीसरे पहर में सोना उत्तम हैं। (नारदपुराण, पू. 26/27)

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18. जिसके सोते-सोते सूर्योदय अथवा सूर्यास्त हो जाय, वह महान् पाप का भागी होता हैं और बिना प्रायिश्चत्त (कृच्छªव्रत)-के शुद्ध नहीं होता। (भविष्यपुराण , ब्राह्म. 4/90)

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19. स्वस्थ मनुष्य को आयु की रक्षा के लिये ब्राह्ममुहूर्त में उठना चाहिये। (देवीभागवत 11/2/2)

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20. किसी सोये हुये मनुष्य को नहीं जगाना चाहिये। (याज्ञवल्क्यस्मृति1/138)

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21. विद्यार्थी, नौकर, पथिक, भूख से पीड़ित, भयभीत, भण्डारी और द्वारपाल-ये सोते हुए हो तो इन्हें जगा देना चाहिये। (चाणक्यनीति. 9/6)

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22. निवास स्थान से दूर दक्षिण या दक्षिण-पश्चिम (नैऋZत्य) दिशा में जाकर मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये। (आपस्तम्बधर्मसूत्र 1/11/32/2)

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23. सिर को वस्त्र से ढककर मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये। (पद्मपुराण, क्रियायोग. 11/9)

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24. गाँव से नैऋZत्यकोण में जाकर इस मन्त्र का उच्चारण करे-
गच्छन्तु ऋषयो देवा: पिशाचा ये च गुह्यका:।
पितृभूतगणा: सर्वे करिष्ये मलमोचनम्।।

`यहाँ जो ऋषि , देवता, पिशाच, गुह्यक, पितर तथा भूतगण हों, वे चले जाये, मै यहाँ मल-त्याग करूँगा।´ - ऐसा कहकर तीन बार ताली बजाये और सिर को वस्त्र से ढककर मलत्याग करे। (नारदपुराण पूर्व.66/3-4)

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

पंडित नेहरू का वजन

एक बाल सम्मेलन के अवसर पर पंडित नेहरू बालक-बालिकाओं के बीच प्रश्नोत्तर का आनंद ले रहे थे। तभी एक बालिका ने प्रश्न किया-

``क्या आपने कभी अपना वजन भी लिया हैं ?´´ पंडित नेहरू ने तुरंत उत्तर दिया-``अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखने के कारण मैने अनेक बार वजन लिया।´´

बलिका ने फिर प्रश्न किया- अच्छा बताइए, आपका सबसे ज्यादा और सबसे कम वजन कब और कितना था ?

नेहरू ने बिना रूके कहा-``मेरा सबसे ज्यादा 162 पोंड उस समय था जब मैं अहमदनगर जेल में था, और सबसे कम साढ़े सात पोंड वजन जब मैं पैदा हुआ तब था।´´ बालिका ने ताज्जुब से पूछा-``जेल में तो वजन कम हो जाना चाहिए, परन्तु बढ़ कैसे गया ?´´ 

पंडित नेहरू ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-``उस समय मेरा वजन इस खुशी से बढ़ गया कि मैं अपने देश की सेवा में जेल का कष्ट सहन कर रहा हूं।´´ 

शत्रु वह जो जी दुखाए।

एक बार शेखसादी के पास एक व्यक्ति गया और कहने लगा-``आपका अमुख शत्रु आपकी बुराई कर रहा था और आपको तरह-तरह की गालिया बक रहा था।´´

सो तो में भी जानता हूँ, थोड़ा रूककर शेखसादी बोले- ``भाई शत्रु तो कहलाता वही हैं, जिससे बैर-विरोध हो। पर कम-से-कम इतना तो हैं कि वह मुँह के सामने कुछ नहीं कहता। आप तो मेरे सामने ही बुराई कर रहे हैं, अब आप ही बताइये कि मेरा शत्रु कौन हैं ? अच्छा होता, आपने मेरा जी न दुखाया होता और चुपचाप ही बने रहते। बुराई करने वाला व्यक्ति बहुत लज्जित हुआ और वहाँ से उठ कर चला गया। उस दिन से उसने कभी किसी की बुराई नहीं की।

मानव जाति एकात्मा

चीन में उन दिनों कुछ थोड़े शहरों को छोड़ कर शेष स्थानों पर विदेशियों के प्रवेश पर रोक लगा दी गई थी। कभी भूल से कोई विदेशी वहाँ पहुँच जाता तो चीनी मरने-मारने को उतारू हो जाते, उनकी जान संकट में पड़ जाती। 

एक बार स्वामी विवेकानन्द चीन भ्रमण करने गये। उनकी किसी गाँव में भ्रमण की इच्छा हुई। दो जर्मन पर्यटकों की भी इच्छा वहाँ का ग्राम्य जीवन देखने की थी, पर साहस के अभाव में उनकी प्रवेश की हिम्मत नहीं हो रही थी। उन्होनें यह बात स्वामी जी से कही तो स्वामी जी ने कहा-``सारी मनुष्य जाति एक हैं, हमें विश्वास हैं कि यदि हम सच्चे हृदय से वहाँ के लोगों से मिलने चले तो वे लोग हमें मारने की अपेक्षा प्रेम से ही मिलेंगे।´´

वे जर्मन पर्यटकों को लेकर गाँव की ओर चल पड़े। दुभाषिया उनके लिए तैयार नहीं हो रहा था, पर जब स्वामी जी नहीं रूके तो वह भी साथ चला तो गया, पर अन्त तक उसे यही भय बना रहा कि वे लोग उसे मारे नही। 

गाँव वाले विदेशियों को देखकर लाठी लेकर मारने दौड़े। स्वामी विवेकानन्द ने उनकी ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि डालते हुए कहा-``क्या आप लोग अपने भाईयों से प्रेम नहीं करते।´´ दुभाषिया ने यही प्रश्न उनकी भाषा में ग्रामीणों से पूछा। तो वे लोग बेचारे बड़े लज्जित हुए और लाठी फेंककर स्वामी जी के स्वागत-सत्कार में जुट गये। यह देखकरा जर्मन बोले-``सच हैं, यदि आप जैसा निश्छल प्रेम सारे संसार के लोगों में हो जाये, तो धरती पर कहीं भी कष्ट-कलह नहीं रह जाये।´´

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

आचार संहिता - सदाचार प्रशंसा



।। श्री हरि:।।

आचारहीनं न पुनन्ति वेदा
यद्यप्यधीता: सह षड्भिरंगे:।
छन्दांस्येनं मुत्युकाले त्यजन्ति
नीडं शकुन्ता इव जातपक्षा:।।

(वसिष्टस्मृति 6/3, देवी भागवत 11/2/1)

" शिक्षा , कल्प, निरूक्त, छन्द, व्याकरण और ज्योतिष -इन छ: अंगो सहित अध्ययन किये हुए वेद भी आचारहीन मनुष्य को पवित्र नहीं करते। मृत्युकाल में आचारहीन मनुष्य को वेद वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे पंख उगने पर पक्षी अपने घोंसले को।
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आचाराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिता: प्रजा:।
आचाराöनमक्षय्यमाचारो हन्त्यलक्षणम्।।

(मनुस्मृति 4/156)

`मनुष्य आचार से आयु को प्राप्त करता हैं, आचार से अभिलाषित सन्तान को प्राप्त करता हैं, आचार से अक्षय धन को प्राप्त करता हैं और आचार से ही अनिष्ट लक्षण को नष्ट कर देता हैं।´
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दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति नििन्दत:।
दु:खभागी च सततं व्याधितो•ल्पायुरेव च।।

(मनुस्मृति 4/157, वसिश्ठस्मृति 6/6)

दुराचारी पुरूष संसार में निन्दित , सर्वदा दु:खभागी, रोगी और अल्पायु होता हैं।´
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आचार: फलते धर्ममाचार: फलते धनम्।
आचाराच्छिªयमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।

(महाभारत, उद्योग. 113/15)

`आचार ही धर्म को सफल बनाता हैं, आचार ही धनरूपी फल देता हैं, आचार से मनुष्य को सम्पत्ति प्राप्त होती हैं और आचार ही अशुभ लक्षणों का नाश कर देता हैं।´
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कुलानि समुपेतानि गोभि: पुरूशतो•र्थत:।
कुलसंख्यां न गच्छन्ति यानि हीनानि वृत्तत:।।
वृत्ततस्त्वविहीनानि कुलान्यल्पधनान्यपि।
कुलसंख्यां च गच्छन्ति कशऽन्ति च महद् यश:।।

(महाभारत, उद्योग. 36/28-29)

`गौओं, मनुष्यों और धन से संपन्न होकर भी जो कुल सदाचार से हीन हैं, वे अच्छे कुल की गणना में नहीं आ सकते। परन्तु थोड़े धन वाले कुल भी यदि सदाचार से संपन्न हैं तो वे अच्छे कुलों की गणना में आ जाते हैं और महान् यश को प्राप्त करते हैं।´
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वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हत:।।

(महाभारत, उद्योग. 36/30)

सदाचार की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिये। धन तो आता और जाता रहता हैं। धन क्षीण हो जाने पर भी सदाचारी मनुष्य क्षीण नहीं माना जाता, किन्तु जो सदाचार से भ्रष्ट हो गया, उसे तो नष्ट ही समझना चाहिये।´
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न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाणमिति मे मति:।
अन्तेश्वपि हि जातानं वृत्तमेव विशिश्यते।।

(महाभारत, उद्योग. 34/41)

`मेरा ऐसा विचार है कि सदाचार से हीन मनुष्य का केवल ऊँचा कुल मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि नीच कुल में उत्पन्न मनुष्यों का भी सदाचार श्रेष्ठ माना जाता हैं।´

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आचारप्रभवो धर्म: धर्मस्य प्रभुरच्युत:।
आश्रमाचारयुक्तेन पूजित: सर्वदा हरि:।।

(नारदपुराण, पूर्व. 4/22)

`आचार से धर्म प्रकट होता हैं और धर्म के स्वामी भगवान् vishnu हैं। अत: जो अपने आश्रम के आचार में संलग्न हैं, उसके द्वारा भगवान् श्रीहरि सर्वदा पूजित होते हैं।´

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स्दाचारवता पुंसा जितौ लोकावुभावपि।।
साधव: क्षीणदोशास्तु सच्छब्द: साधुवाचक:।
तेशामाचरणं यत्तु सदाचारस्स उच्यते।।

(विष्णुपुराण 3/11/2-3)

सदाचारी मनुष्य इहलोक और परलोक दोनों को ही जीत लेता हैं। `सत्´ शब्द का अर्थ साधु हैं और साधु वही हैं, जो दोषरहित हो। इस साधु पुरूष का जो आचरण होता हैं, उसी को सदाचार कहते हैं।´
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आचारहीन: पुरूशो लोके भवति नििन्दत:।
परत्र च सुखी न स्यात्तस्मादाचारवान् भवेत्।।
(शिवपुराण, वा.उ. 14/56)

`आचारहीन मनुष्य संसार में निन्दित होता हैं और परलोक में भी सुख नहीं पाता। इसलिये सबको आचारवान् होना चाहिये।´
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सर्वो•यं ब्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।
वृत्ते स्थितस्तु शूद्रो•पि ब्राह्मणत्वं नियच्छति।।

(महाभारत, अनु. 143/51)

`लोक में यह सारा ब्राह्मण-समुदाय सदाचार से ही अपने पर पर बना हुआ हैं। सदाचार में स्थित रहने वाला शूद्र भी (इस जन्म में) ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो सकता हैं।
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आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजा:।
आचारदéमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम्।।
आचार: परमो धर्मो नृणां कल्याणकारक:।
इह लोके सुखी भूत्वा परत्र लभते सुखम्।।

(देवी भागवत 11/1/10-11)

`आचार से ही आयु, सन्तान तथा प्रचुर अन्न की उपलब्धि होती है। आचार सम्पूर्ण पातकों को दूर कर देता है। आचारवान् मनुष्य इस लोक में सुख भोगकर परलोक में भी सुखी होता हैं।´
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आचारवान् सदा पूत: सदैवाचारवान् सुखी।
आचारवान् सदा धन्य: सत्यं च नारद।।

(देवीभागवत 11/24/98)

`(भगवान नारायण बोले-) नारद ! आचारवान् मनुष्य सदा पवित्र, सदा सुखी और सदा ही धन्य हैं-यह सत्य हैं, सत्य हैं।´

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शनिवार, 14 नवंबर 2009

अनमोल सद्विचार आपके मोबाइल पर


विचार क्रान्ति अभियान

नवयुग यदि आयेगा तो विचार-शोधन द्वारा ही, क्रान्ति होगी तो वह लहू और लोहे से नहीं, विचारों की विचारों से काट द्वारा होगी, समाज का नवनिर्माण होगा तो वह सद्विचारों की प्रतिष्ठापना द्वारा ही सम्भव होगा। 

- परम पूज्य गुरूदेव आचार्य श्रीराम शर्मा, शान्ति कुन्ज, हरिद्वार

-:एक निवेदन:-
मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने वाले सद्विचार अपने मोबाइल पर नि:शुल्क प्राप्त कर ``युग निर्माण योजना´´ को सफल बनाने में हार्दिक सहयोग करे।

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मनुष्य जीवन को फलदायी बनाने वाले सद्विचार अपने मोबाइल पर प्राप्त करें। इसके लिए आपको अपने मोबाइल से केवल एक बार यह मेसेज भेजना हैं। मेसेज टाइप करे - JOIN लिखे, इसके बाद एक स्पेस दे फिर MOTIVATIONS लिखे यानि  JOIN MOTIVATIONS लिखें और इसे 09870807070 पर भेज दें। Successfully Subscribe होने के बाद प्रतिदिन आपको अनमोल सद्विचार अपने मोबाइल पर प्राप्त होते रहेंगे।

यह सेवा पूर्णतया नि:शुल्क हैं।

हमारी आप सभी से यह विनम्र अपील हैं कि आप सभी विचार क्रान्ति अभियान की इस अभिनव योजना से जुड़े और अधिकाधिक लोगों को इस योजना से जोड़ने का प्रयास करावें। आइये ! विचार क्रान्ति की इस अनूठी योजना में हम सभी गिलहरी सा योगदान करे।


This service is currently available to users in India and requires an Indian mobile number.)

जनमानस परिष्कार मन्च
http://yugnirman.blogspot.com/

राजेन्द्र माहेश्वरी, आगुंचा 09929827894 ईमेल - vedmatram@gmail.com

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