सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

युवा संगठनों के लिए युग निर्माण अभियान के सूत्रों को ध्यान में रखें

ऋषि-सूत्रों के अनुरूप बढ़ें 
युग निर्माण अभियान के अन्तर्गत युवाओं को संगठित एवं सक्रिय बनाने के लिए इन दिनों जगह-जगह प्रयास चल पड़े हैं । जो भी परिजन इस दिशा में कार्य कर रहे हैं, वे सब साधुवाद के पात्र हैं । किसी भी आन्दोलन की सफलता के लिए बुजुर्गों के अनुभव और युवाओं के उत्साह का संयोग होना जरूरी होता है, अस्तु समय की माँग के अनुरूप युवा शक्ति को नवसृजन आन्दोलन के लिए संगठित और नियोजित तो किया ही जाना चाहिए, किन्तु इस संदर्भ में युगऋषि के विचारों को ध्यान में रखते हुए कुछ सावधानियाँ बरतना जरूरी है । 

सामान्य रूप से लोग संगठन की विशालता को सफलता का मुख्य प्रमाण मानकर उसकी गुणवत्ता को भूलने लगते हैं । हमारा नारा है-'युग निर्माण कैसे होगा ? व्यक्ति के निर्माण से ।' इसी तरह निर्माण के तीन चरण (व्यक्ति, परिवार एवं समाज) में पहला चरण व्यक्ति निर्माण है । 

युवा-युवतियों में जोश खूब होता है । एक बार लहर चल पड़े, तो वे उस दिशा में बड़ी संख्या में उमंग के साथ चल पड़ते हैं । इसलिए प्रत्यक्ष कार्यक्रमों में उन्हें लगाना आसान होता है । इसी बिन्दु पर सावधानी बरतना भी जरूरी हो जाता है । 

पूज्य गुरुदेव कहते रहे हैं कि युग परिवर्तन की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान उन्हीं का हो सकता है जो पहले स्वयं के चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार में परिवर्तन ला सकते हों । प्रत्यक्ष कार्यक्रम तो हमारे लिए व्यायाम जैसे माध्यम हैं । जैसे व्यायाम का मुख्य उद्देश्य स्वास्थ्य सुधार और शक्ति संवर्धन है, उसी तरह युग निर्माणी कार्यक्रमों का उद्देश्य आत्म परिष्कार तथा आत्मशक्ति का जागरण है । युवा पीढ़ी में स्थूल कार्यक्रमों के प्रति तो आकर्षण होता है, किन्तु आज के विचार प्रदूषण भरे माहौल में आत्म परिष्कार जैसे मूल आधारों की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता । जबकि युग निर्माण आन्दोलन के अन्तर्गत युवा संगठन का उद्देश्य मुख्य रूप से यही है कि युवा शक्ति उत्कृष्ट व्यक्तित्व सम्पन्न और आदर्श निष्ठ, चरित्र निष्ठ युग सृजेताओं के रूप में उभरे और युग परिवर्तन के लिए मजबूत नींव या स्तंभों की भूमिका निभाये । 

इसीलिए अपने युवा-संगठन की रीति-नीति प्रचलित ढर्रे से भिन्न रहनी चाहिए । युवाओं की सहज प्रवृत्ति और मिशन की आवश्यकता को ध्यान में रखकर ही युवाओं के लिए कार्य नीति बनाई गई है । इस दिशा में लगे युवा एवं प्रौढ़ परिजनों को अपने उद्देश्य और रीति-नीति को बड़ी सूझ-बूझ तथा तत्परता पूर्वक लागू करना होगा । 

विवेकपूर्ण दिशा-धारा
यों तो युग निर्माण आन्दोलन के सर्वमान्य सूत्र काफी प्रचलित हैं-मनुष्य में देवत्व का उदय-धरती पर स्वर्ग का अवतरण । इसके लिए नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रांतियाँ हैं । इस हेतु व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण के चरण हैं । स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन के साथ ही सभ्य समाज की अवधारणा है । व्यक्तित्व विकास के लिए साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा कार्यों का नियमित अभ्यास आदि है । 

किन्तु प्रश्न वहीं आकर टिकता है कि आम युवक-युवतियों के गले इन्हें सीधे उतारा कैसे जाये ? युवाओं को तो जोशीले और प्रत्यक्ष कार्यक्रम अच्छे लगते हैं । इसलिए प्रारंभ करने के लिए ऐसे सूत्र निर्धारित किए गये हैं, जिनके आधार पर युवाओं को उत्साहित-आकर्षित भी किया जा सके तथा उनमें युग निर्माण के मूल उद्देश्यों को जोड़ देना संभव हो सके । वे इस प्रकार हैं- 

चार तेजस्वी नारे 
१. स्वस्थ युवा -सबल राष्ट्र 
२. शालीन युवा-श्रेष्ठ राष्ट्र 
३. स्वावलम्बी युवा-सम्पन्न राष्ट्र तथा 
४. सेवाभावी युवा-सुखी राष्ट्र । 

इन नारों में उत्साह के साथ ऐसा दिशा-बोध भी है, जिसके आधार पर नई पीढ़ी को वांछित व्यक्तित्व-सम्पन्न बनाया जा सकता है । अभीष्ट है कि युवक-युवतियाँ स्वस्थ, शालीन, स्वावलम्बी तथा सेवाभावी बनें तथा अपने विकास को ईश्वरोन्मुख न बना पाएँ, तो राष्ट्रोन्मुख तो बना ही लें । चारों सूत्रों की विभिन्न संभावनाओं को यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है । 

१. स्वस्थ युवा- कहा जाता है पहला सुख निरोगी काया । काया को धर्म साधना का आधार (शरीरमाद्यम् खलु धर्मसाधनम्) कहा गया है । युग निर्माण के सूत्रों में भी पहला चरण स्वस्थ शरीर है । इसलिए अपने संगठन में युवाओं को स्वास्थ्य साधना से जुड़ने की प्रेरणा दी जाती है । निश्चित रूप से जिस देश के युवा शरीर-मन से स्वस्थ होंगे, वह राष्ट्र सबल-मजबूत राष्ट्र बनकर उभरेगा । 

स्वास्थ्य के लिए पहले हलका योग-व्यायाम करने-कराने की प्रेरणा दी जाय । यह प्रत्यक्ष आकर्षक कार्यक्रम बन जायेगा । फिर व्यायाम के क्रम को डि्रल-कवायद जैसी बनाकर उन्हें अनुशासन में कार्य करने का संस्कार दिया जा सकता है । इसी के साथ आहार-विहार के संयमों को जोड़ने तथा हानिकारक आदतों को छोड़ने का क्रम भी चल पड़ता है । क्रमशः युवकों-युवतियों को सधे हुए स्काउट जैसा संस्कार दिया जा सकता है । 

२. शालीन युवा- युवा पीढ़ी शरीर से स्वस्थ-बलिष्ठ बने यह अच्छा है, किन्तु शरीर से बलिष्ठ तो गुण्डे और आतंकवादी भी होते हैं । इसलिए स्वस्थ होने के साथ उन्हें शालीन बनाने की भी साधना करानी होगी । पूज्य गुरुदेव का प्रसिद्ध वाक्य है-'शालीनता बिना मोल मिलती है, किन्तु उससे सब कुछ खरीदा जा सकता है।' शालीन व्यक्ति के प्रति समाज में विश्वास और सम्मान का भाव उभरता है । जिसके प्रति यह दो भाव होते हैं, उन्हें स्वाभाविक रूप से हर प्रकार का जन सहयोग मिलने लगता है । इसीलिए शालीनता के द्वारा सब कुछ खरीदे जाने की बात कही गई है । 

शालीनता के अन्तर्गत पहले वाणी-व्यवहार का शिष्टाचार तथा उसके बाद स्वच्छ मन के तमाम सूत्रों का अभ्यास कराया जा सकता है । निश्चित रूप से जिस देश के युवा स्वस्थ और शालीन बनेंगे, वह राष्ट्र, श्रेष्ठ राष्ट्र कहलायेगा । इसीलिए युग निर्माणी नारा है- युवा बनें सज्जन-शालीन, दें समाज को दिशा नवीन । 

३. स्वावलम्बी युवा-सच कहा जाय, तो युवाओं को सहज ही स्वावलम्बी होना चाहिए, बच्चे और बूढ़े परावलम्बी भी रहें, तो क्षम्य है । यहाँ स्वालम्बन को केवल आर्थिक स्वालम्बन तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता । वह तो एक श्रेष्ठ प्रवृत्ति है, आर्थिक स्वावलम्बन भी उसका अंग है । 

लम्बे समय तक गुलामी झेलने के कारण देखा जाता है कि आज भी युवाओं में स्वावलम्बी प्रवृत्ति की बहुत कमी है । वे अपने बूते अपना भविष्य बनाने के युवोचित पुरुषार्थ के स्थान पर समाज की अनगढ़ धारा में निरीह की तरह बहते देखे जाते हैं । 

आत्म गौरव के बोध का उनमें भारी अभाव है । वे अपने अन्दर मनुष्य होने, युवा होने, विश्व की सर्वश्रेष्ठ और सबसे पुरातन संस्कृति के वारिस होने, विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र के नागरिक होने का गौरव कहाँ अनुभव कर पाते हैं? उन्हें अपने अन्दर भरी अद्भुत दिव्य सम्पदा तथा उसके उपयोग का बोध कहाँ है? इसीलिए पश्चिम की अनगढ़ नकल करके जीवन में तमाम समस्याएँ मोल लेते रहते हैं । 

विवेक बुद्धि-हमारे लिए क्या उपयोगी और क्या अनुपयोगी है, इसका निर्णय करने की क्षमता आज कितने युवाओं में है? वे तो अनगढ़ समाज की वाहवाही के आधार पर या प्रचलित ढर्रे के आधार पर अपने लिए मार्ग बनाना चाहते हैं । स्वयं अपना हित न समझ पाते हैं, न साध पाते हैं । 

अर्थ व्यवस्था-धन के उपार्जन एवं उपयोग की दिशा में अधिकांश नई पीढ़ी परावलम्बी है । मैनेजमैन्ट के उच्च स्तरीय कोर्स कर लेने पर भी वे नौकरी ही ढूँढ़ना चाहते हैं । अपनी व्यवस्था बुद्धि और मेहनत से बड़ी कम्पनियों को भारी लाभ कराते हैं और उसका एक छोटा अंश ही वेतन के रूप में पाते हैं । पूर्व राष्ट्रपति, देशरत्न डॉ. कलाम साहब कहते रहे हैं कि हमारे युवा नौकरी खोजने वाले नहीं, नौकरी देने वाले होने चाहिए । 

इसके साथ ही जो धन कमाते हैं, उसे भी विचार पूर्वक खर्च कहाँ कर पाते हैं । अधिकांश धन परम्परागत अनगढ़ प्रदर्शन में खर्च हो जाता है । अर्थात् धन की कमाई और खर्च दोनों ही मामलों में स्वावम्बन की प्रवृत्ति दिखाई नहीं देती । यदि यह प्रवृत्ति उभारी जा सके, तो हमारी युवा प्रतिभा सारे विश्व को नया प्रकाश देने में समर्थ है ।

इसी प्रकार मनोरंजन में स्वावलम्बी हों, तो मन को खराब करने वाले मनोरंजनों के स्थान पर साहित्य, संगीत, कला परक ऐसे मनोरंजन किए जा सकते हैं, जो मनुष्य की गरिमा भी बढ़ाएँ और सुख भी । 

कहने का तात्पर्य यही है कि स्वावलम्बन एक श्रेष्ठ प्रवृत्ति है, जो युवा चेतना के लिए सहज पाने योग्य है । यह सुनिश्चित है कि जहाँ ऐसे स्वावलम्बी युवा होंगे, वह राष्ट्र हर दृष्टि से सम्पन्न बनेगा । 

४. सेवाभावी युवा- युवावस्था ऊर्जा का भंडार लेकर आती है । प्रत्येक युवक-युवती में अपनी व्यक्तिगत जरूरतें पूरी करने की तुलना में कई गुनी कार्य क्षमता-ऊर्जा होती है । यदि ऊर्जा को दिशा न दी जाय, तो वह अवांछनीय दिशा में बह जाती है । युवाओं की अतिरिक्त ऊर्जा को यदि राष्ट्रहित, समाजहित जैसे सेवाकार्यों में न लगाया जायेगा, तो वह समस्याएँ पैदा करने में ही लग जायेगी । समस्याएँ पैदा होती हैं, तो उससे न समाज अछूता रहता है, न व्यक्ति । 

इसलिए हर युवा को जहाँ शालीनता, स्वालम्बन के नाते अपनी ऊर्जा, क्षमता, साधनों को बढ़ाने-बचाने का अभ्यास कराया जाना चाहिए, वहीं अतिरिक्त क्षमता को सेवाकार्यों में लगा देने का संस्कार भी दिया जाना चाहिए । जहाँ ऐसा नहीं होगा, वहाँ की युवा शक्ति नई-नई समस्याएँ पैदा करके समाज एवं राष्ट्र को दुःखी करती रहेगी । जहाँ सेवाभावी युवापीढ़ी होगी, वहीं 'सुख बाँटो, दुःख बँटाओ' का क्रम चलेगा । राष्ट्र सुखी बनेगा । अस्तु अपने युवा आन्दोलन को इन नारों के अनुरूप विकसित करने-कराने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए । 

दो आन्दोलन
जब युवा सेवाभावी बनेंगे, तो वे समाज हित के तमाम आन्दोलनों में भागीदारी कर सकेंगे; लेकिन युवा मानसिकता को देखते हुए उनके लिए दो आन्दोलन जरूरी हैं ? 

१. व्यसन-कुरीतियों से मुक्ति-इस दिशा में अपना नारा है- 'व्यसन से बचाओ-सृजन में लगाओ ।' कहने की जरूरत नहीं कि नशा, व्यसन तथा सामाजिक कुरीतियों में लगने वाले समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन को बचाकर उसका कुछ अंश भी सृजन में लगाया जा सके, तो सृजन के लिए संसाधनों की कमी न पड़े । 

२. आदर्श परिवार-आज परिवार टूट रहे हैं । उसका सबसे बड़ा खामियाजा नई पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है । पूज्य गुरुदेव ने कहा है-'बच्चों का पालन ही नहीं निर्माण भी करें' पर जहाँ परिवार भाव ही टूट रहा हो, वहाँ निर्माण की जहमत कौन उठाए? अस्तु युवकों को पारिवारिक सम्बन्धों-आदर्शों के प्रति भी जागरूक बनाया जाना है । परिवार संगठन की शुरुआत विवाह से ही होती है । इसलिए आदर्श विवाह भी इसी आन्दोलन के अंग बनेंगे । इसी आधार पर बेटे-बेटी तथा बेटी-बहू के बीच का भेद मिटेगा और नारी के प्रति होने वाले अत्याचार समाप्त हो जायेंगे । इसी आधार पर भाव-संवेदनाओं को पोषण मिलेगा तथा तमाम टेंशन-डिप्रेशनों से मुक्ति मिलेगी । 

अस्तु, हर क्षेत्र में युवाओं के प्रौढ़ मित्र-बुजुर्ग दोस्त उभरें तथा उक्त सूत्रों के आधार पर सृजनशील युवा संगठन खड़े करें । 

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