मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

श्रद्धया सम्यमाप्यते

माँ ने कहा-बच्चे, अब तुम समझदार हो गए हो। स्नान कर लिया करो और प्रतिदिन तुलसी के इस वृक्ष में जल भी चढ़ाया करो। तुलसी की उपासना की हमारी परंपरा पुरखों से चली आ रही हैं।´´

बच्चे ने तर्क किया -``माँ तुम कितनी भोली हो " इतना भी नहीं जानती कि यह तो पेड़ हैं " पेड़ों की भी कहीं पूजा की जाती हैं, इसमें समय व्यर्थ खोने से क्या लाभ ?"

लाभ हैं मुन्ने ! श्रद्धा कभी निरर्थक नहीं जाती। हमारे जीवन में जो विकास और बौद्धिकता हैं, उसका आधार श्रद्धा ही हैं। श्रद्धा छोटी उपासना से विकसित होती हैं और अंत में जीवन को महान् बना देती हैं, इसलिए यह भाव भी निर्मूल नहीं।

तब से विनोबा भावे जी ने प्रतिदिन तुलसी को जल देना प्रारंभ कर दिया। माँ की शिक्षा कितनी सत्य निकली, उसका प्रमाण अब सबके सामने है। 

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