मंगलवार, 11 अगस्त 2009

धर्मयुद्ध है यह।

अर्जुन ने जब खांडव वन को जलाया , तब अश्वसेन नामक सर्प की माता बेटे को निगलकर आकाश में उड़ गई , मगर अर्जुन ने उसका मस्तक बाणों से काट डाला । सर्पिणी तो मर गई, पर अश्वसेन बचकर भाग गया। उसी वैर का बदला लेने वह कुरुक्षेत्र की रण भूमि में आया था। उसने कर्ण से कहा-``मै विश्रुत भुजंगो का स्वामी हूँ । जन्म से पार्थ का शत्रु हूँ। तेरा हित चाहता हूँ। बस एक बार अपने धनुष पर चढाकर मेरे महाशत्रु तक पहुँचा दे । तू मूझे सहारा दे, मै तेरे शत्रु को मारुंगा ।´´ कर्ण हँसे बोले- जय का मस्तक साधन नर की बाँहों में रहता है, उस पर भी मैं तेरे साथ मिलकर-साँप के साथ मिलकर मनुज से युंद्ध करुँ, निष्ठा के विरुद्ध आचरण करुँ ! मै मानवता को क्या मुँह दिखाऊँगा ?´´

इसी प्रसंग पर रामधारी सिंह`दिनकर ´ने अपने प्रसिद्ध काव्य `रिश्मरथी´ में लिखा है -

``रे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज है , छिपे नरों में भी, सीमित वन में ही नही, बहुत बसते पुर-ग्राम-घरों में भी ।´´

सच ही है, आज सर्प रुप में कितने अश्वसेन मनुष्यों के बीच बैठे हैं-राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लीन, आतंकवाद के समर्थक । महाभारत की ही पुनरावृत्ति है आज । धर्मयुद्ध है यह।


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