रविवार, 23 अगस्त 2009

Forgiveness Quotes

1- A soft refusal is not always taken, but a rude one is immediately believed. - Alexander Chase 
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2- Always forgive your enemies - nothing annoys them so much. - Oscar Wilde 
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3- For my part I believe in the forgiveness of sin and the redemption of ignorance. 
- Adlai E. Stevenson
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4- Forgive many things in others; nothing in yourself. - Ausonius 
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5- Forgive your enemies, but never forget their names. - John F. Kennedy 
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6- Forgiveness is a funny thing, it warms the hearts and cools the sting. - Peter Allen 
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7- Forgiveness is a funny thing. It warms the heart and cools the sting. - William A. Ward 
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8- Forgiveness is a gift you give yourself. - Suzanne Somers 
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9- Forgiveness is a virtue of the brave. - Indira Gandhi 
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10- Forgiveness is the final form of love. - Reinhold Niebuhr 
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11-Forgiveness is the fragrance that the violet sheds on the heel that has crushed it. 
- Mark Twain
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12- Forgiveness is the giving, and so the receiving, of life. - George MacDonald 
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13- Forgiveness is the key to action and freedom. - Hannah Arendt 
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14- Forgiveness is the remission of sins. For it is by this that what has been lost, and was found, is saved from being lost again. - Saint Augustine
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15- Forgiveness means letting go of the past. - Gerald Jampolsky 
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16- God will forgive me. It's his job. - Heinrich Heine
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17- If there is something to pardon in everything, there is also something to condemn.
-Friedrich Nietzsche
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18- It is easier to forgive an enemy than to forgive a friend. - William Blake 
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19- It is easier to forgive an enemy than to forgive a friend. - John Dryden 
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20- It is often easier to ask for forgiveness than to ask for permission. -Grace Hopper 
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21- It takes one person to forgive, it takes two people to be reunited. -Lewis B. Smedes 
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22- It's far easier to forgive an enemy after you've got even with him. - Olin Miller 
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23- Life is an adventure in forgiveness. - Norman Cousins
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24- Without forgiveness, there's no future. - Desmond Tutu
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Faith

1- A man of courage is also full of faith. - Marcus Tullius Cicero
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2- Be faithful in small things because it is in them that your strength lies. - Mother Teresa
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3- Doubt is a pain too lonely to know that faith is his twin brother. - Kahlil Gibran
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4- Faith consists in believing when it is beyond the power of reason to believe. - Voltaire
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5- Faith has to do with things that are not seen and hope with things that are not at hand. 
Saint Thomas Aquinas
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6- Faith is a passionate intuition. - William Wordsworth 
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7- Faith is not contrary to reason. Sherwood Eddy 
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8- Faith is reason grown courageous. - Sherwood Eddy 
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9- Faith is spiritual imagination. - Henry Ward Beecher 
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10- Faith is taking the first step even when you don't see the whole staircase. 
- Martin Luther King, Jr।
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11- Faith, to my mind, is a stiffening process, a sort of mental starch. - E. M. Forster
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12- Faith: not wanting to know what is true. - Friedrich Nietzsche 
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13- Have faith in God; God has faith in you. - Edwin Louis Cole
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14- I do not pray for success, I ask for faithfulness. - Mother Teresa
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15- If patience is worth anything, it must endure to the end of time. And a living faith will last in the midst of the blackest storm. - Mohandas Gandhi
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16- In faith there is enough light for those who want to believe and enough shadows to blind those who don't. - Blaise Pascal
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17- In the affairs of this world, men are saved not by faith, but by the want of it. 
Benjamin Franklin
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18- Nor shall derision prove powerful against those who listen to humanity or those who follow in the footsteps of divinity, for they shall live forever. Forever. Kahlil Gibran 
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19- Reason is our soul's left hand, faith her right. John Donne
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20- Take the first step in faith. You don't have to see the whole staircase, just take the first step.
Martin Luther King, Jr. 
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21- The faith that stands on authority is not faith. Ralph Waldo Emerson 
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22- To me faith means not worrying. John Dewey 
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23- Ultimately, blind faith is the only kind. Mason Cooley 
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24- Your faithfulness makes you trustworthy to God. Edwin Louis Cole
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बुधवार, 19 अगस्त 2009

नरसी महता

अंतकाल में महापुरूषों को देह की पीड़ा तो रहती है, पर मन कभी विकल नहीं होता । वे मन से प्रसन्न रहकर कष्ट को सहन करते हैं। अपने सारे भोग काट कर ही जाते है। नरसी महता की पत्नी मरी । लोगों ने आकर देखा-वे कीर्तन कर रह थे। खूब प्रसन्न थे। लोगो ने सोचा वियोग में पागल हो गए हैं, बहुत स्नेह करते थे अपनी पत्नी को, लेकिन वो प्रसन्न-मुक्त हो गई। इस तथ्य को संसारी आदमी नही समझ सकते।

नियमित उपासना

नियमित उपासना का काई न कोई उपक्रम बैठा लिया जाए तो उसके बड़े ही चमत्कारी सत्परिणाम सामने आते है। श्री कंदकरि बीरेश लिंगम् ने जिस दिन से दीक्षा संस्कार ग्रहण किया, उसी दिन से निष्ठापूर्वक एक सौ बार गायत्री मंत्र का जप नित्य नियमित रूप से करने का दृढ निश्चय कर लिया। उपासना में श्रद्धा और नियमितता अपनी शक्ति होती है। श्री बीरेश लिंगम् की माँ भूत-प्रेतों का नाम सुनकर ही भयभीत हो जाती थी । उन्ही दिनों उनके यहाँ एक तांत्रिक योगी आता था। जो अपने को प्रेतविद्या का निष्णात मानता और भूत भगाने का आश्वासन देता था। उसकी माता जी को उस तांत्रिक के प्रति गहरी श्रद्धा थी । यह एक प्रकार का अंधविश्वास ही था। बीरेश लिंगम् इस अंध मान्यता को कहाँ स्वीकार करने वाले थे। उनने उस तांत्रिक को घर में आने से मना कर दिया । तांत्रिक क्रोधित होकर उनके उपर आक्रमण करने पर उतारू हो गया और बुरे से बुरा शाप देने लगा।

नियमित रुप से गायत्री उपासना करने वाले पर उसकी धमकी का काई प्रभाव नहीं पड़ा , वरन् `शिकारी खुद शिकार बन गया´ वाली उक्ति ही चरितार्थ होती देखी गई । तांत्रिक बीरेश लिंगम् की गरजना को सुनकर बीमार पड़ गया और दिन-प्रतिदिन दुर्बल होता चला गया । उस महान उपासक के हृदय में करुणा कूट-कूट कर भरी थी, इसलिए उस तांत्रिक को कुछ आर्थिक सहायता प्रदान कर उसे वापस घर भेज दिया । उस दिन से तांत्रिक ने भी उपासना का महत्व समझ लिया और संकल्प किया कि आज से मैं गायत्रीसाधक के साथ कोई ऐसी हरकत नहीं करुँगा, एक साधक की तरह ही रहूँगा।


राष्ट्र धर्म

राष्ट्र हम में से हरेक के सम्मिलित अस्तित्व का नाम है। इसमें जो कुछ आज हम है, कल थे और आने वाले कल में होंगें, सभी कुछ शामिल है। हम और हम में से हरेक के हमारेपन की सीमाएँ चाहे जितनी भी विस्तृत क्यो न हों, राष्ट्र की व्यापकता में स्वयं ही समा जाती है। इसकी असीम व्यापकता में देश की धरती, गगन, नदियाँ, पर्वत , झर-झर बहते निर्झर , विशालतम सागर और लघुतम सरोवर, सघन वन , सुरभित उद्यान, इनमें विचरण करने वाले पशु, आकाश में विहार करने वाले पक्षी, सभी तरह के वृक्ष व वनस्पतियाँ समाहित है। प्रांत, शहर , जातियाँ, यहाँ तक कि रीति-रिवाज, धर्म-मजहब , आस्थाएँ-पंरपराएँ राष्ट्र के ही अंग-अवयव है।

राष्ट्र से बड़ा अन्य कुछ भी नही हैं। भारतवासियों की एक ही पहचान है-भारत देश, भारत मातरम् । हम में से हरेक का एक ही परिचय है-राष्ट्रध्वज, अपना प्यारा तिरंगा। इस तिरंगे की शान में ही अपनी शान है। इसके गुणगान में ही अपने गुणो का गान हैं । हमारी अपनी निजी मान्यताएँ, आस्थाएँ, परंपराएँ, यहाँ तक कि धर्म, मजहब की बातें वहीं तक कि इनसे राष्ट्रीय भावनाएँ पोषित होती है( जहाँ तक कि ये राष्ट्र धर्म का पालन करने में , राष्ट्र के उत्थान में सहायक है। राष्ट्र की अखंड़ता, एकजुटता और स्वाभिमान के लिए अपनी निजता को निछावर कर देना प्रत्येक राष्ट्रवासी का कर्तव्य है।

राष्ट्र धर्म का पालन प्रत्येक राष्ट्रवासी के लिए सर्वोपरि है। यह हिंदू के लिए भी उतना ही अनिवार्य है, जितना कि सिख, मुसलिम या ईसाई के लिए। यह गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब या तमिल, तैलंगाना की सीमाओं से कही अधिक है। इसका क्षेत्र तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक सर्वत्र व्याप्त है। राष्ट्र धर्म के पालन का अर्थ है- राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु व परिस्थिति के लिए संवेदशील होना, कर्तव्यनिष्ठ होना( राष्ट्रीय हितो के लिए, सुरक्षा के स्वाभिमान के लिए अपनी निजता, अपने सर्वस्व का सतत बलिदान करते रहना । )

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

सुभद्राकुमारी चौहान

सारे मनोरोग विषाद सें आरंभ होते है। कोई ऐसा विधान नही कि विषाद को योग बना दे। लेकिन श्रीमद्भगवद्गीता युगों-युगों से मानव मात्र को विषाद को योग में बदलना सिखाती आई है। पांडवों का सारा जीवन कष्टों मे ही बीता । और कौरवो का जीवन सुख में, ईश्र्या-द्वेष में, भाँति-भाँति के कुचक्रो में बीता । पाडंवो ने जो कुछ भी जीवन विद्या का शिक्षण लिया, वह अपने दु:ख के क्षणों में ही उन्हे मिला । महाभारत में उनके जीवन का अंतिम सोपान आता है, जब युद्ध आरंभ होते ही धनुर्धरश्रेष्ठ अर्जुन विषादग्रस्त हो जाता है- तनाव, अत्यधिक आत्मग्लानि एवं राग की पराकाष्ठा के क्षणों से गुजरता है। तब भगवान उसे मन की चंचल लता से जुझना सिखाते है। अपनी शरण में आने को कहते है। (मामेकं शरणं व्रज)। यह सब आज के अर्जुनो के लिए भी है। आज का युवा दिग्भ्रांत है। परीक्षा आते ही घबरा जाता है। कैसे जूझे ? सीखे गीता के योग से।

`वीरो का कैसा हो वसंत´ जैसी कविताओं की सृजेता सुभद्राकुमारी चौहान (1904-1948) प्रयाग में जन्मी थीं। चौदह वर्ष की अल्पायु में उनका विवाह खंडवा के ठाकुर लक्ष्मणसिंह चौहान के साथ हुआ। ठाकुर साहब स्वयं माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा प्रकाशित , संपादित राष्ट्रवादी पत्र `कर्मवीर´ के सहायक संपादक थे। उन्होने चाहा कि उनकी पत्नी की आगे बढने की इच्छा रोकी नही जानी चाहिए। उन्हें थियोसॉफिकल स्कूल में भरती कर दिया गया। बाद में वे स्वतंत्रता-संग्राम में भी कूद पड़ीं। जेल गई। लौटने पर खांडवा में पति के साथ रहते हुए माखनलाल जी के संमर्क मे आई । उन्होनें सुभद्रा जी की काव्य प्रतिभा को पहचाना । धीरे-धीरे उनकी कविता में देशभक्ति के अंगारे धधकने लगे । `खुब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी´ यह उनकी ही कविता थी । उनकी सरल, सुबोध, चुभती भाषा में लिखी कविताओं ने जन-जन को प्रभावित किया । ठाकुर साहब राष्ट्रदेव की सेवा में अपनी तरह लगे रहे। वे भी गृहस्थी सँभालतीं, साथ ही पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलनों में भाग लेती । वंसत पंचमी ,1948 को एक रोड एक्सीडेंट में वे चल बसी , पर नारी जगत के लिए प्रेरणास्त्रोत बन गई।







मन: स्थिति

बिंबसार महावीर के दर्शन करने गए। मार्ग में एक महात्मा का स्थान भी पड़ता था। वे एक साम्राज्य के स्वामी थे, पर सब छोड़कर कठोर तप कर रहे थे। उनके दर्शन कर महावीर के पास पहुँचे तो पूंछा कि वो दीर्धकाल से तप कर रहे है । उनकी गति क्या होगी , अंत क्या होगा , महावीर बोले-``इस क्षण यदि वो शरीर छोड़ दे तो सातवे नरक को प्राप्त होंगें।´´ बिंबसार स्तब्ध रह गए। पुन: कहा-``हाँ ,मै उन्ही के विषय में बता रहा हूँ। अभी मरे तो स्वर्ग लोक में जाएँगे।´´ बडी अजीब बात लगी बिंबसार को । फिर पूंछा-``फिर से देखिए-बताएँ क्या गति होगी -``अब वे सिद्धो के लोक को जाएँगे-अब वे मोक्ष को प्राप्त हो गए है।´´ रहस्य खोलते हुए महावीर ने कहा-``जिस पल तुमने पूंछा था, उस समय उसके पास राज्य पर शत्रु के हमले की खबर आई थी। मंत्री ने आकर कहा-`बहु मार दी गई´ उनके अंदर का क्षत्रिय जाग उठा था। `लाओ तलवार´, यह कह उठे थे। इसीलिए कहा था `नरक जाएँगे।´ दूसरे पल उनने सोचा, सिर पर जटाएँ है-किसका बेटा , किसकी बहु-कैसा राज्य, किसका बदला ! विकृति धुल गई । मै अपने रास्ते चलूँगा । फिर स्वर्ग सिद्धों के लोक की बात कही । कर्म की अंतिम पीड़ा वे भुगत चुके थे। अत: अशेष हो गए थे। इसलिए मैने कहा-मुक्त हो गए । जैसी मन: स्थिति में आप जीते हैं, वैसी ही गति होती है। ´´ 

आध्यात्मिक कार्य

स्वामी विवेकानंद अमेरिका से लौटकर मद्रास रुके थे। वहाँ उन्होने फरवरी, 1897 में `मेरी समर नीति´ ,`भारत के महापुरूष´, `राष्ट्रीय जीवन में वेदातं की उपयोगिता´ तथा `भारत का भविष्य´विषय पर व्याख्यान दिए। थकान के बावजूद विभिन्न विषयों पर स्वामी जी का इतना गूढ़ प्रतिपादन व उसकी श्रमशीलता देखकर आयोजक श्री सुंदरराम अय्यर ने पुछा कि उन्हे इतना परिश्रम करने के लिए शक्ति कहाँ से मिलती है " स्वामी जी ने कहा-``किसी भी भारतीय से पूंछकर देख लीजिए। आध्यात्मिक कार्य हेतु किसी भी भारतीय को कभी थकान का बोध नही होता ।´´

शनिवार, 15 अगस्त 2009

स्वाइन फ्लू उपचार

१- बाबा रामदेव ने कहा है कि कपाल भारती और अनुलोम-विलोम जैसे योग के जरिए स्वाइन फ्लू जैसी खतरनाक बीमारी से कारगर ढंग से निपटा जा सकता है। बाबा का दावा है कि सुबह उठकर गहरी सांस लेने से इस फ्लू का वाइरस आप पर हमला नहीं करेगा२- बाबा रामदेव एक सामान्य भारतीय पौधे गिलोए (बेल) का रस पीकर स्वाइन फ्लू से बचा जा सकता है। असल में आयुर्वेद में इस बेल का बहुत पहले से प्रयोग हो रहा है और लीवर से जुड़ी बीमारियों में इसका प्रयोग होता रहा है। इसके प्रयोग का तरीका काफी आसान है। बेल की करीब दो इंच मोटी टहनी को तुलसी की पांच पत्तियों के साथ मूसली या किसी और तरीके से कूट लिया जाए और रात को आधा गिलास पानी में डालकर सुबह छानकर पी लिया जाए। यह एक व्यक्ति के लिए है और इसका प्रयोग दिन में एक बार ही काफी है। इसकी टहनी और तुलसी की पत्ती को अच्छी तरह उबालकर भी पीया जा सकता है।
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३- यूनानी में "हुम्मा-ए-वबाईया" - यूनानी चिकित्सा पद्धति में स्वाइन फ्लू को "हुम्मा-ए-वबाईया" नाम से जाना जाता है। इसके अनुसार यह बलगमी बुखार है। राजस्थान यूनानी मेडिकल कॉलेज एण्ड हॉस्पिटल के डॉ। परवेज अख्तर वारसी ने बताया कि बचाव के लिए सब्जियों में हींग का उपयोग करें। अजवाइन का पानी उबालकर दिन में दो बार पीएं।
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४- आयुर्वेद में है उपाय - द आर्ट ऑफ लिविंग के श्री श्री आयुर्वेद केन्द्र के वरिष्ठ आयुर्वेदिक चिकित्सक डॉ। मणीकांतन एवं डॉ. निशा मणीकांतन ने बताया कि आयुर्वेद में लक्ष्मी तरू की पत्तियों की चाय, तुलसी, आंवला और अमृत प्रतिरक्षा को बढ़ाने का काम करते हैं।
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५- तुलसी के पत्ते हैं कारगर - आध्यात्मिक संत बाबा जयगुरूदेव ने स्वाइन फ्लू के इलाज का देशी नुस्खा सुझाया है। उन्होंने तुलसी के 15-20 पत्ते दो कप पानी में उबालें। इसमें चीनी या नमक नहीं डालें। तीन उबाल आने पर छानकर सुबह खाली पेट इसका सेवन करें।
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६- होम्योपैथी में भी इलाज - राजकीय होम्योपैथिक चिकित्सालय के चिकित्सा अधिकारी डॉ। टी.पी. यादव ने बताया कि यदि किसी व्यक्ति में बीमारी का डर बैठा हुआ है तो प्राथमिक स्तर पर होम्योपैथी में एकोनाइट और आरसेनिक एलबम दवा ली जा सकती है।
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७- पाँच पत्तियाँ तुलसी तथा पाँच दाने काली मिर्च मुंह में रख कर चबाइए और इसका रस धीरे-धीरे गले से नीचे उतारिये। दिन में तीन बार -सुबह ,दोपहर,शाम यह काम कीजिए और निश्चिंत होकर घूमिये। जितने दिन संभव हो सके यही काम करते रहिये।
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८- होम्योपैथी के अन्टीबायोटिक मदर टिन्क्चर का उपयोग प्रति दिन एक या दो बार अवश्य करें ।छोटे बच्चों को इस मिसरन की ५ से १० बूण्द द्वा किसी मीठे शर्बत में मिलकर या शहद में मिलाकर पिला दें ।
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९- भीड़ भाड़ वाली जगह से लौटने के बाद पहले हाथ और फिर मुंह धोएं।
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१०- डॉक्टरों का कहना है कि खांसने या छींकने या नाक साफ करने के बाद अपने हाथ आंख, नाक और मुंह पर कतई नलगाएं। शरीर के ये हिस्से सबसे ज़ल्दी फ़्लू की चपेट में आते हैं. सावधानी के लिए समय समय पर हाथ धोते रहें।
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११- मेज़, खाना बनाने की जगह, बाथरूम के फ़र्श और कोनों को साफ़ रखें। इन जगहों पर बैक्टरिया आसानी से पनपतेहैं. सफ़ाई के लिए पानी के साथ कीटनाशकों का इस्तेमाल करें।
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१२- हवा के जरिए फैलने वाले इस तरह के किसी भी विषाणु से स्रुरक्षा पाने का सीधा सा उपाय अपनाइये कि जब भी घर से बाहर निकलें तो जेब में दो-चार कपूर(camphor) की टिकिया डाल लीजिये और यदि मिल जाएं तो तुलसी की चार-पांच पत्तियां मुंह में रख लें।
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१३- लावण्य आयुर्वेदिक हास्पिटल के चेयरमैन अशोक श्रीवास्तव ने कहा कि शास्त्रों में जिस स्वाइन फ्लू सरीखे रोग का जिक्र है, उसके लक्षणों में - शरीर में भारीपन, शिरा शूल, सर्दी जुकाम, खांसी, बुखार और संधियों में पीड़ा होना है। तीव्रावस्था में यह अवस्था शीघ्रकारी और प्राणघातक सिद्घ हो सकती है। इस अवस्था विशेष को 'मकरी' नाम से जाना जाता है। इसके लिए शरीर की प्रतिरोधक शक्ति को बढ़ाने वाली औषधियां - गुड़ची, काली तुलसी, सुगंधा आदि का प्रयोग करना चाहिए। रोग के विशिष्ट उपचार के लिए पंचकोल कषाय, निम्बादि चूर्ण, संजीवनी वटी, त्रिभुवन कीर्ति रस, गोदंति भस्म और गोजिहृदत्वात् औषधियां प्रयोग की जाती हैं, लेकिन इनका प्रयोग रोग की अवस्था के अनुसार आयुर्वेदिक चिकित्सक की देखरेख में ही किया जाना चाहिए।
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१४- होम्योपैथी डॉक्टर पंकज भटनागर के अनुसार स्वाइन फ्लू से बचाव के लिए जेल्सिमिनम 30 की दस-दस गोलियां दिन में तीन बार लेनी चाहिए। रोग के उपचार के लिए उनका कहना है कि एकोनाइट 30, बेलेडोना 30, आरसेनिक अल्बम 30, रूसटॉक्स 30, नक्सवोमिका 30 और इन्फ्लुऐंजीनम 30 उपयोगी सिद्घ होती हैं। पर ये दवाएं रोग के लक्षण के अनुसार ही लेनी चाहिए।
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१५- अपने हाथ बार बार धोएं कम से कम१५ सेकंड्स तक और बहते स्वच्छपानी मे धोएं। 
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१६- कमसे कम ८ घंटे की नींद लें अपने सुरक्षात्मक सिस्टम को ठीक रखने के लिए यह जरुरी है।
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१७- रोज ८ से १० ग्लास पानी पियें
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१८- अल्कोहोल का उपयोग न करें क्योंकि ये आपकी सुरक्षा कम करता है
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१९- लक्षण : स्वाइन फ्लू के लक्षण यू तो सामान्य जुकाम जैसे ही होते है परंतु इससे 100 डिग्री तक की बुखार आती है, भूख कम हो जाती है और नाक से पानी बहता है। कुछ लोगों को गले में जलन, ऊल्टी और डायरिया भी हो जाता है। जिस किसी को भी स्वाइन फ्लू होता है। उसमें उपरोक्त लक्षणों में से कम से कम तीन लक्षण तो जरूर दिखाई देते है।
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२०- बच्चों में लक्षण तेज साँस चलना या साँस लेने में तकलीफ होना। त्वचा के रंग में बदलाव आना अगर बच्चा यथोचित पानी नहीं पी रहा है लगातार उल्टियाँ होना फ्लू जैसे लक्षण और ठीक होने के बाद पुनः बुखार आना और खाँसी की बहुत ज्यादा तकलीफ होना। बच्चों के इस बीमारी की चपेट में आने की आंशका ज्यादा है क्योंकि वे स्कूल में दोस्तों से करीब से मिलते-जुलते हैं, बच्चों को इससे बचाएँ।
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२१- खाँसी या छींक आने पर टिशु पेपर का इस्तेमाल करें एवं उसे तुरंत डस्टबीन में फेंकें।
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२२- भीड़ वाली जगह पर न जाएँ।
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२३- यदि संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आना भी पड़ता है, तो फेस मास्क या रेस्पिरेटर पहनें।
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२४- आसिलटेमाविर (टेमीफ्लू) नाम की दवा यदि लक्षण आरंभ होने के 48 घंटे के अंदर शुरू की जाए तो सहायक हो सकती है।
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मंगलवार, 11 अगस्त 2009

समय का महत्त्व

अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन समय के बड़े पाबंद थे । एक बार उन्होने कुछ विशिष्ट अतिथियों को तीन बजे अपराहृ भोजन के लिए आमंत्रित किया । साढे़ तीन बजे उन्हें सैनिक कमांडरों की आवश्यक बैठक में भाग लेना था। ठीक तीन बजे भोजन तैयार था। टेबल पर लग चुका था, पर मेहमान नही आए । प्रतिक्षा करने के बजाए राष्ट्रपति ने अकेले भोजन प्रारम्भ कर दिया । आधा भोजन समाप्त हो गया, तब मेहमान पहुँचे । उन्हे दु:ख था और अप्रसन्नता भी थी, पर वे भोजन में शामिल हो गए। वाशिंगटन ने समय पर अपना भोजन समाप्त किया एवं उनसे विदा लेकर बैठक में चलें गए। यह घटना `टाइम मैनेजमेंट´ के महत्व को बताती है। आज इसी की सबसे अधिक उपेक्षा होती है। हो सकता है किसी को यह घटना अतिरंजित लगे, पर उस दिन सभी ने अपने राष्ट्रपति की सफलता का मर्म एवं समय का महत्त्व जान लिया ।


`भारतमाता की जय´

18 वर्ष के तरूण स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी हेमू कलानी पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगा। मुकदमा चला। अँगरेज न्यायाधीश के हर प्रश्न का उसने निर्भीक होकर जवाब दिया । सैनिक मुख्यालय हैदराबाद (सिंध) के कमांडर ने आजीवन करावास की सजा को फाँसी में बदल दिया। फैसला सुनाने से दंड मिलने तक उसका वजन लगभग 8 पौंड बढ़ गया था । 21 जनवरी, 1943 को उसे फाँसी पर चढा़या जाना था। `भारतमाता की जय´-`इंकलाब जिंदाबाद´ का नारा लगाता हेमू फाँसी पर चल पड़ा । जब उससे अंतिम इच्छा पूछी गई और पूरी की जाने का आश्वासन मिल गया तो वचनबद्ध जिला मजिस्ट्रेट (ब्रिटिश) को भी `भारतमाता की जय´ बोलनी पड़ी । यह है क्रांतिकारी जज्बा।

चोकर की उपयोगिता

गेहूँ के आटे को छानकर जो चोकर अलग किया जाता है, वह कितना गुणकारी है, यह जानना जरूरी है। यह कब्ज की अद्वितीय प्राकृतिक औषधि है। यह आँतों में उत्तेजना पैदा नही करता तथा कैन्सर से दूर रखता है ( यह प्रयोग द्वारा प्रमाणित हो गया है।) अमाशय के घाव (पेप्टिक अल्सर),आँतों के विभिन्न रोग, उच्च कोलेस्टेरॉल से भी यह बचाता है। चोकर खाने वालों को कभी पाइल्स, भगंदर या मलाशय का कैन्सर नही होता है। मोटापा घटाने के लिए चोकर एक नीरापद औषधि है। मधुमेह निवारण में भी चोकर मदद करता है। चोकर मिश्रित आटा रोटी को और भी स्वादिष्ट बना देता है । गेहूं का चोकर एक आदर्श रेशा (फाइबर डाइट) है। हम आज कि जीवन शैली में मैदे वाली रोटी खाते हैं एवं चोकर के इतने लाभों को पाने से बचे रहते है। 


मांटेस्सरी शिक्षा प्रणाली

मरिया मांटेस्सरी(MONTESSORY) रोम में जन्मी थीं। वे इटली की प्रथम महिला चिकित्सक बनीं। किशोरावस्था के अपराधियों, पागलखानो को देखकर जड़ों मे जाने की उनकी इच्छा जागी । उन्होंने स्कूलों की शिक्षा पद्धति का विश्लेशण किया, पाया कि वहीं पर गड़बड़ है। उन्होने देखा कि बच्चे चुपचाप सुनते रहते हैं। उन्हे अपने विचार अभिव्यक्त करने पर डाँटा जाता है। एक परिष्कृत शिक्षा-प्रणाली को विकसित करने की बात उनके जेहन में आई । पहला प्रयोग एक गंदी बस्ती लोरेंजो से किया । यहीं जन्मी मांटेस्सरी शिक्षा प्रणाली, जो आज सारे विश्व में बाल शिक्षण का आधार है। 1913 में उन्होंने इस पद्धति पर पहली पुस्तक प्रकाशित की । इस पुस्तक को प्राय: सभी देशो ने अपना लिया गया । आज सभी श्रद्धा से उस महिला को याद करते हैं, जिसने एक युगप्रवर्तक शिक्षण पद्धति दी। 

मिलेंगें ऐसे लोग हमें आज ?

आज जिस उपाधि की हम बात करते हैं-भारत की सर्वोच्च उपाधि `भारत रत्न´ , उसका विधान पं0 गोविंन्द वल्लभ पंत (भारत के दूसरे गृहमंत्री ) के समय में चला था। प्रथम व द्वितीय के बाद अगले की बारी आई तो सर्वसम्मति से भाई जी हनुमानप्रसाद पोद्दार का नाम चुना गया । वे गीता प्रेस, गोरखपुर के संस्थापक-गीता आंदोलन के प्रणेता थे । उन तक बात पहुँची । उन्होने पंत जी से कहा-`` हम इस योग्य नही है। देश बड़ा है। कई सुयोग्य व्यक्ति होगें । हमने कुछ किया भी है तो किसी पुरस्कार की आशा से नही किया । आप किसी और को दे दें ।´´ नेहरू जी को पता चला तो उन्होने पंत जी से कहा-``जाओ और मिलो । आदर सत्कार से बात करो । कोई बात हो सकती है। पता लगाओ।´´ पंत जी ने आकर बात की । पुन: भाई जी बोले-``हम स्वयं को इस लायक मानते ही नहीं । हमने भक्तिभाव से परमात्मा की आराधना मानकर ही सब कुछ किया है। ´´ ऐसा ही हुआ । सरकार को इरादा बदलना पड़ा । मिलेंगें ऐसे लोग हमें आज ? आज तो पद के लिए लड़ाई और उपाधि पर संघर्ष चलता है। वस्तुत: भाई जी जिस भाव और भूमिका मे जीते थे, वह लोक की प्रतिष्ठा से परे-और भी ऊपर थी । उन्हें दैवी सत्ताओं का अनुग्रह सहज ही प्राप्त था। फिर लोक क्या प्रभावित करता उन्हें ! 

सच्चा ब्रह्मचर्य

चैतन्य महाप्रभु न्याशास्त्र के विद्वान थे । परमज्ञानी थे। पत्नी विष्णुप्रिया थीं। दोनो का जीवन ठीक ही चल रहा था, पर श्री कृष्ण में भक्ति जगी तो जबरदस्त वैराग्य जागा । दिनो दिन खाना नहीं खाते। `कृष्ण कृष्ण' कहकर पड़े रहते । ऐसी स्थिति हो गई कि घर वालो ने कहा- ``ऐसी स्थिति में शरीर छूटे , उससे अच्छा है कि संन्यास दिला दें । ´´ गुरू के पास ले गए । उनने कहा कि हम परीक्षा लेंगें । गुरू ने जीभ पर शक्कर के दाने रखे । वे उड़ गए। गले नही । मन उर्ध्वगामी हो चुका था। वृत्ति भागवताकार हो चुकी थी । गुरू भारती तीर्थ बोले- ``यह तो बडी उच्चस्तरीय आत्मा है। यह शिष्य नहीं, हमारे गुरू होने योग्य है। हमारा अहोभाग्य है। ऐसा व्यक्ति नही देखा , जो इतना ईश्वरोन्मुख हो । यही सच्चा ब्रह्मचर्य है। ´´

श्री अरविंद

पांडिचेरी आकर रह रहे योगी श्री अरविंद पूर्ण रूप से साधना मे संलग्न रहते थे, कभी घर से बाहर भी नही निकलते, पर अँगरेज सरकार के जासूस उनके पीछे ही पडे़ रहते थे । ऐसे ही किसी व्यक्ति ने पांड़िचेरी पुलिस को सुचना दी कि दो क्रांतिकारियों की सहायता लेकर श्री अरंविद आपत्तिजनक साहित्य तैयार कर रहे है , जिसका सम्बन्ध भारत से भागकर फ्रांस में रह रहे क्रांतिकारी नेताओ से है । एक फ्रांसीसी पुलिस ऑफीसर श्री अरंविद के आश्रम में तलाशी लेने आया । उसने वहाँ जो आध्यात्मिक साहित्य पर ग्रीक, लैटिन फ्रेंच भाषा की पांडुलिपियाँ देखी , तो वह योगीराज का मित्र बन गया । फिर किसी को उधर आँख उठाकर देखने नही दिया । पॉल रिचार्ड एवं मिर्रा रिचार्ड पहले कुछ दिन के लिए एवं बाद में 1920 में पांडिचेरी स्थायी रूप से आ गए । फिर श्री अरविंद का पूरा ध्यान मिर्रा रिचार्ड रखने लगी । बाद में वही आश्रम की श्री माताजी कहलाई । एक क्रांतिकारी के रूप मे जीवन आरंभ करने वाले श्री अरविंद का जीवन एक महानायक की शिखर यात्रा का प्रतीक है, जिसमें वे आध्यात्मिकता की ऊँचाइयों तक पहुँचने एवं अतिमानस के अवतरण की घोषणा कर गए । 

झाँसी की रानी

महारानी लक्ष्मीबाई केवल 24 वर्ष जीवित रहीं,पर इस अवधि में उन्होने ऐसे शौर्यपरक कार्य कर दिखाए, जिनकी याद आज डेढ़ सौ वर्ष बीतने पर भी अगणितों को प्रेरणा देती रहती है । लक्ष्मीबाई झाँसी की रानी के नाम से प्रसिद्ध है । भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम रुपी रणयज्ञ की वे प्रथम व विशिष्ट होता कही जाती है। कहा जाता है-``रहिमन साँचे सुर कौ बैरिहु करें बखान ।´´ -सच्चे शुरवीर का उसके शत्रु भी गुणगान करते है। अँगरेजो को जिस तरह लक्ष्मीबाई ने नाकों चने चबवाए , जिस तरह से वह उनसे लडी , वे भी उनकी तारीफ पर विवश हुए। झाँसी, कालपी, ग्वालियर , इन तीनो क्षेत्रो मे उन्होने वीरतापुर्वक युद्ध किया । अस्त्र-संचालन , घुडसवारी में नाना साहब के साथ हुए प्रशिक्षण ने लक्ष्मीबाई को वीरांगना एवं देशभक्त बना दिया । वे पुणे से विवाहोपंरात झाँसी आ गई । 1851 में उनके एक पुत्र हुआ , जिसकी अकालमृत्यु हो गई । बाद में 1856 में उनने एक बालक को दत्तक पुत्र बना लिया, पर अँगरेजो को को यह रूचा नहीं । देश में विद्रोह का वातावरण बन रहा था। यह संयोग ही था कि कानपुर , मेरठ , झाँसी से यह आगे सारे देश मे फैली । धार्मिक स्वाभाव की विधवा रानी ने एक सेनापति की भूमिका निभाई और संघर्ष करते हुए ग्वालियर के पास शहीद हो गई । धन्य हैं ऐसी वीरांगनाएँ !

ऐसे जन्मा पंचतंत्र

विष्णु शर्मा की `पंचतंत्र´ की कहानियाँ आज से 18000 वर्ष पूर्व लिखी गई थीं। ये सभी जीव-जंतु, पशु-पक्षियों को पात्र बनाकर रची गई है। इससे इसकी रोचकता एवं सर्वग्राहृता बढ़ जाती थी । इसके पीछे भी एक इतिहास है। दक्षिण भारत में अमरशक्ति नामक एक राजा था । उसके तीन पुत्र थे -मंदबुद्धि, नटखट व बडे उपद्रवी । नाम था बहुशक्ति, उग्रशक्ति, अनंतशक्ति । उन्हे देखकर राजा बहुत दुखी हुआ । सभासदो के समक्ष उसने अपनी चिंता रखी । विष्णु शर्मा वहाँ उपस्थित थे। उन्होने कहा-``इन्हे आप मेरे घर भेज दें। छ माह में राजनीति में निपुण बनाकर भेज दूगाँ । ´´ राजा ने स्वीकार कर लिया । तीनो की मनोवृति का अध्ययन कर विष्णु ने सोचा कि इन्हे रोचक कथाओं द्वारा शिक्षण दिया जाना चाहिए । खेल-खेल में ये सीख लेंगें । कोई गंभीर शिक्षण यह ग्रहण नही कर सकेगें । उन्होने पशु-पक्षी-पर्यावरण आदि को लक्ष्य कर रोचक कहानियो द्वारा नीति की शिक्षा देना आरंभ किया । तीनों बडे़ चाव से इन कहानियों को सुनते । इन कथाओं में राजनीति का पूरी तरह समावेश किया गया था । धीरे-धीरे उनकी बुद्धि का विकास होता गया एंव छह माह में राज-व्यवहार के नियम समझ गए। ऐसे जन्मा पंचतंत्र, जो आज भी बच्चों में उतना ही लोकप्रिय है। 

धर्मयुद्ध है यह।

अर्जुन ने जब खांडव वन को जलाया , तब अश्वसेन नामक सर्प की माता बेटे को निगलकर आकाश में उड़ गई , मगर अर्जुन ने उसका मस्तक बाणों से काट डाला । सर्पिणी तो मर गई, पर अश्वसेन बचकर भाग गया। उसी वैर का बदला लेने वह कुरुक्षेत्र की रण भूमि में आया था। उसने कर्ण से कहा-``मै विश्रुत भुजंगो का स्वामी हूँ । जन्म से पार्थ का शत्रु हूँ। तेरा हित चाहता हूँ। बस एक बार अपने धनुष पर चढाकर मेरे महाशत्रु तक पहुँचा दे । तू मूझे सहारा दे, मै तेरे शत्रु को मारुंगा ।´´ कर्ण हँसे बोले- जय का मस्तक साधन नर की बाँहों में रहता है, उस पर भी मैं तेरे साथ मिलकर-साँप के साथ मिलकर मनुज से युंद्ध करुँ, निष्ठा के विरुद्ध आचरण करुँ ! मै मानवता को क्या मुँह दिखाऊँगा ?´´

इसी प्रसंग पर रामधारी सिंह`दिनकर ´ने अपने प्रसिद्ध काव्य `रिश्मरथी´ में लिखा है -

``रे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज है , छिपे नरों में भी, सीमित वन में ही नही, बहुत बसते पुर-ग्राम-घरों में भी ।´´

सच ही है, आज सर्प रुप में कितने अश्वसेन मनुष्यों के बीच बैठे हैं-राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लीन, आतंकवाद के समर्थक । महाभारत की ही पुनरावृत्ति है आज । धर्मयुद्ध है यह।


जड़े मजबूत रखना

एक रात भयंकर तूफान आया । सैकड़ों विशालकाय पुराने वृक्ष धराशायी हो गए। अनेक किशोर वृक्ष भी थे, जो बच गए थे, पर बुरी तरह सकपकाए खड़े थे। प्रात:काल आया, सूर्य ने अपनी किरणें धरती पर फैलाई । ड़रे हुए वृक्षों को देखकर किरणों ने पूछा-``तात! तुम इतना सहमे हुए क्यों हो ? ´´ किशोर वृक्षों ने कहा-``देवियो! ऊपर देखो ,हमारे कितने पुरखे धराशायी पड़े हैं ।रात के तूफान ने उन्हें उखाड़ फेंका । न जाने कब यही स्थिति हमारी भी आ बने।´´ किरणें हँसी और बोलीं-``तात! आओ, इधर देखो ! यह वृक्ष तूफान के कारण नही, जड़े खोखली हो जाने के कारण गिरे। तुम अपनी जड़े मजबूत रखना तुफान तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ पायेगा।´´ 

रविवार, 9 अगस्त 2009

चरित्र

1) करते वहीं राष्ट्र उत्थान, जिन्हे निज चरित्र का ध्यान।
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2) भाग्य पर नहीं चरित्र पर निर्भर रहो।

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3) श्रेष्ठ चिन्तन की सार्थकता तभी हैं, जब उससे श्रेष्ठ चरित्र बने और श्रेष्ठ चरित्र तभी सार्थक हैं, जब वह श्रेष्ठ व्यवहार बन कर प्रकट हो।

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4) सद्चिन्तन से ही सद्चरित्रता हस्तगत हो सकती है।

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5) सुन्दर चेहरा आकर्षक भर होता हैं, पर सुन्दर चरित्र की प्रामाणिकता अकाट्य है।

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6) दर्पण मे अपना चेहरा देखों, चेहरे में अपना चरित्र देखो।

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7) चरित्र बल महान् बल है।

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8) चरित्र की सुन्दरता ही असली सुन्दरता है।

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9) चरित्र का परिवर्तन या उत्कर्ष वर्जन से नहीं, योग से होता है।

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10) चरित्र से बढकर और कोई उत्तम पूंजी नहीं।

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11) चरित्र जीवन में शासन करने वाला तत्व हैं और वह प्रतिभा से उच्च है।

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12) चारित्रिक समर्थता के बिना भौतिक प्रगति एवं सुव्यवस्था के दिवास्वप्न देखना उपयुक्त नहीं।

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13) जहॉं शासक चरित्र विहीन, वहॉं आपदा नित्य नवीन।

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14) अपमान को निगल जाना चरित्र पतन की आखिरी सीमा है।

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15) अपनी गलती मान लेना महान् चरित्र का लक्षण है।

भोजन

1) द्वेष करने वाला अपने भोजन को विषाक्त कर देता है। 
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2) भोजन करके करिये मूत्र, गुर्दा स्वस्थ रहे ये सूत्र। 

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3) भोजन स्वास्थ्य की जरुरत हैं, स्वाद की नहीं। 

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4) पैरो को धाने के बाद ही भोजन करें , किन्तु पैरो को धोकर ( गीले पैर ) शयन न करे। 

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5) दाहिने स्वर भोजन करें, बॉये पीवे नीर। ऐसा संयम जब करे, सुखी रहें शरीर। 

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6) दूसरों से पूर्व भोजन समाप्त कर उठों नही, और यदि उठ जाये तो उनसे क्षमा मॉगनी चाहिये। 

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7) जो अपने हिस्से का काम किये बिना ही भोजन पाते हैं वे चोर है। 

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8) आधा भोजन दुगुना पानी, तिगुना श्रम, चौगुनी मुस्कान। 

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9) हे पुरुष श्रेष्ठ ! खाते हुये कभी भी शंका न करें ( कि यह अन्न मुझे पचेगा या नही ) 

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10) जैसा अन्न खाते हैं, मन बुद्धि का निर्माण भी वैसा ही होता है। 

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11) प्राणी नित्य जैसा अन्न खाता हैं, उसकी वैसी ही सन्तति होती है। 

बालक

1) बालक प्रकृति की अनमोल देन हैं, सुन्दरतम कृति हैं, सबसे निर्दोष वस्तु हैं। बालक मनोविज्ञान का मूल हैं, शिक्षक की प्रयोगशाला है। बालक मानव-जगत् का निर्माता हैं। बालक के विकास पर दुनिया का विकास निर्भर हैं। बालक की सेवा ही विकास की सेवा है।
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2) जिन बालकों का तपस्यामय वातावरण में विकास होता हैं, वे ही बडे होकर महापुरुषों के रुप में सर्वतोमुखी उन्नति करके नर-रत्नो के रुप में संसार के समक्ष आकर जगमगाते है।

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3) जो बचपन और जवानी में भजन नहीं करते, वे बुढापे में भजन नहीं कर सकते।

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4) जो बच्चों को सिखाते हैं, उन पर बडे खुद अमल करे तो यह संसार स्वर्ग बन जाये।

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5) बचपन:- यह शब्द हमारे सामने नन्हे-मुन्नों की एक ऐसी तस्वीर खिंचता हैं, जिनके हृदय में निर्मलता, ऑखों में कुछ भी कर गुजरने का विश्वास और क्रिया-कलापो में कुछ शरारत तो कुछ बडों के लिए भी अनुकरणीय करतब।

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6) बच्चों को पहला पाठ आज्ञापालन का सिखाना चाहिये।

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7) बच्चे वे चमकते वे तारे हैं जो भगवान के हाथ से छूटकर धरती पर आये हे।

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8) मॉ का हृदय बच्चे की पाठशाला है।

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9) जिस समय अनाथ बच्चा ऑसू बहाता हैं, उस समय वह ऑसू सीधे परमेश्वर के हाथ में जा पडता है।

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10) देश के भविष्य की संभावना देखनी हैं, तो आज के बच्चों का स्तर देखो।

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11) दूसरा बच्चा होवे कब, पहला स्कूल जाए तब।

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12) जो हम बच्चों को सिखलाते, उसे स्वयं कितना अपनाते।

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13) गरीब बच्चों को मिठाई खिलाओ तो शोक-चिन्ता मिट जायेंगे।

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14) ईश्वर कभी-कभी अपने बच्चों की ऑखों को ऑसुओं से धोता हैं, ताकि वे उसकी कुदरत और उसके आदेशो को सही पढ सके।

अवगुण

1) केवल एक `` भय ´´ को अन्त:करण से निकाल फेंकने से अनेक अवगुण स्वयं विनष्ट हो जाते है।
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2) मानव को विवेक का आश्रय लेना चाहिये। विवेक द्वारा मनुष्य दुर्गुणों से विमुख होकर सद्गुणो की ओर उन्मुख होता है।

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3) जिस इन्सान के अन्दर पाप बसा हुआ है, वहीं दूसरों के दोष देखता हैं।

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4) भीतरी दोषो को दूर करो।

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5) स्वयं के दुर्गुणों को चिन्तन व परमात्मा के उपकारों का स्मरण ही सच्ची प्रार्थना है।

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6) दोष बतलाने वाले का गुरु-तुल्य आदर करना चाहिये, जिससे भविष्य में उसे दोष बतलाने में उत्साह हो।

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7) दोष दृष्टि करने से मुफ्त में पाप हो जाता है।

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8) दुर्गुण त्यागो बनो उदार, यही मुक्ति सुरपुर का द्वार।

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9) दुर्गुण जीवन के लिये साक्षात् विष हैं। उनसे अपने को इस प्रकार बचाये रहना चाहिये, जैसे मॉ बच्चे को सर्तकता पूर्वक आग से बचाये रखती है।

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10) दूसरों के गुण और अपने अवगुण ढूँढो ।

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11) जो दूसरों के अवगुणो की चर्चा करता हैं वह अपने अवगुण प्रकट करता है।

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12) न अशुभ सोचें, न दोष ढूंढे, न अन्धकार में भटके।

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13) अपने दोष-दुर्गुण खोजें एवं उसे दूर करे।

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14) अपने दोषो की ओर से अनभिज्ञ रहने से बडा प्रमाद इस संसार में और कोई नहीं हो सकता।

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15) अपने दोषो को सुनकर चित्त में प्रसन्नता होनी चाहिये।

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16) अपने दोष ही अंतत: विनाशकारी सिद्ध होते है।

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17) अन्त:करण की पवित्रता दुर्गुणों को त्यागने से होती है।

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18) एक क्षण तक प्रज्वलित रहना अच्छा है, किन्तु सुदीर्घ काल तक धुआ छोडते रहना अच्छा नही है।

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